[मित्रो ! सितम्बर के अंतिम सप्ताह में पटना से अग्रज श्रीनवीन रस्तोगी और मित्रवर कुमार दिनेश का सम्मिलित आदेश-आग्रह प्राप्त हुआ कि पाटलिपुत्र परिषद्, पटना की शीघ्र प्रकाश्य स्मारिका के लिए तत्काल कुछ लिखूँ। 1967-68 के इतने वर्षों बाद परिषद् से स्मारिका का प्रकाशन होनेवाला था। तत्कालीन स्मारिका में, जब अनन्तशयनम आयंगर बिहार के राज्यपाल थे, तब उनकी, मुख्यमंत्रीजी की शुभकामनाओं के बाद पूज्य बच्चनजी और पिताजी की सम्मतियाँ उसमें छपी थीं। संपादक-मण्डल का निर्णय था कि दीर्घावधि के बाद प्रकाश में आनेवाली प्रस्तावित स्मारिका में मुझ अकिंचन-अपदार्थ का भी कोई-न-कोई आलेख होना ही चाहिए। अग्रज का आदेश और मित्र की ज़िद ने लिखने को विवश कर दिया, लेकिन कई व्यवधान भी थे। मुझे दक्षिण की यात्रा पर निकलना था--तिथियाँ सुनिश्चित थीं, उनमें परिवर्तन असंभव था। मुझे लिखना है तो क्या लिखूँ, यह विचार भी तो करना था। वैसे, संपादक कुमार साहब से मुझे एक इशारा तो मिला था कि पाटलिपुत्र की पावन भूमि का यशोगान करते हुए साहित्यिक उन्नयन की गाथा लिखनी है मुझे और अतीत से वर्तमान तक चले आना है। दिमाग़ ने लेखन की योजना बनानी शुरू कर दी। अपनी आदत के अनुसार मैं अतीतोन्मुख हुआ। अपनी यादों के आसमान को खुरचते हुए मुझे कई रंग मिले--ऐसे रंग भी, जो मेरे देखे हुए नहीं थे। जीवनानुभवों से इतर सुनी-जानी और पढ़ी हुई गाथाओं के रंग बड़े शोख़-चटख लगे थे मुझे। मैंने उत्खनन जारी रखा और भावों को शब्दों में पिरोने लगा।...
मित्र-संपादक-द्वय द्वारा दी हुई समय-सीमा में आलेख लिखकर भेज देने की सख़्त हिदायत थी। पहली कड़ी घर रहते लिख गया, फिर यात्रा शुरू हुई।...और लेखन में व्यवधान पड़ा। आप यक़ीन करें, यह आलेख कई टुकड़ों में, अनेक पड़ावों में, एयरपोर्ट के वेटिंग लाउंज मे, हवाई जहाज की यात्रा में, बेटी-दामाद और नवासे के घर पहुँचकर ड्राइंग रूम में या एकांत कक्ष में अथवा सुबह-सबेरे बगीचे में निरंतर लिखता ही रहा। श्रीमतीजी को थोड़ी उजलत भी हुई कि अजीब-सा व्यवहार कर रहा हूँ मैं--इतने दिनों बाद मिले दामाद साहब से न ठीक से बात कर रहा हूँ, न नवासे ऋतज के साथ मिलकर अपनी प्रसन्नता का इज़हार कर रहा हूँ। वह मुझे अकेला देखकर आयीं और अपनी आपत्ति भी दर्ज कर गयीं। लेकिन वह मेरा स्वभाव जानती हैं। जानती हैं कि जब तक लेखन का यह भूत मेरे सिर से उतरेगा नहीं, मैं सामान्य और प्रकृतिस्थ हो न सकूँगा। कोची में भी दो दिनों का ही अवकाश था, तीसरे दिन बहुत सबेरे तिरुवनन्तपुरम के लिए प्रस्थान करना था हमें, लेकिन एक दिन पहले ही मैंने आलेख पूरा कर लिया और मेल पर प्रेषित करके दायित्व-मुक्त हुआ।...
मुझे लगता है, किसी विधा में, किसी भी विषय पर, कुछ भी लिखना हो तो उसके लिए दिमागी रसोई जब तैयार हो जाती है, तब लेखन निर्बाध गति से होता है। पारिस्थितिक व्यवधान भी आयें तो वे लेखन का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर पाते; क्योंकि विचार, भावनाएं और इच्छित अभिव्यक्तियाँ सिद्ध होकर मस्तिष्क की कड़ाही में उबलने लगती हैं और उफनते दुग्ध की तरह पात्र से बाहर निकल आने को व्यग्र हो जाती हैं। फिर उन्हें तत्काल लिख डालना ही एक कलमकार की विवशता हो जाती है। यह विवशता मैंने बार-बार महसूस की है। शब्द-सामर्थ्य हो, भाषा-शैली पर किंचित् अधिकार हो, विचार और चिंतन को क्रमिक स्वरूप देते हुए तारतम्य गढ़ने की कला हो, तो भाषा का रथी गद्य के रणक्षेत्र में हुंकार भरता हुआ निरंकुश दौड़ सकता है।...
मैं क्या और मेरी हस्ती भी क्या! पूज्य पिताजी से मिली शब्द-संपदा और मेरा पल्लवग्राही ज्ञान जितना आलोक उनकी उपस्थिति मात्र से ग्रहण कर सका है, उसी ऊर्जा से लिख लेता हूँ थोड़ा-बहुत। लिखने की विवशता से ही लिखा है यह आलेख भी। अब इसकी छह कड़ियाँ कल से क्रमशः आपके सम्मुख होंगी। यह तो आप ही बता सकेंगे कि भाग-दौड़ के बीच लिखी गयी यह दीर्घकाय रचना आपको कैसी लगी!
वैसे, बताता चलूँ कि स्मारिका का प्रकाशन हो चुका है और दिनांक 9अक्तूबर, '17 को बिहार के उप-मुख्यमंत्री श्रीसुशीलकुमार मोदी के कर-कमलों द्वारा इसका विमोचन भी किया जा चुका है, मेरे सहपाठी अभिन्न मित्र और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री श्रीनन्दकिशोर यादव की उपस्थिति में...! स्थानाभाव, समायोजन की विवशताओं के कारण संपादकीय कतरनी भी यत्र-तत्र चली है, शीर्षक को भी सुघड़ बनाया गया है, लेकिन फेसबुक पर यह आलेख मैं अपने दिये हुए शीर्षक के साथ ही यथावत् रख रहा हूँ, वैसे मानता हूँ कि आलेख की तरह ही सिरनामा भी बड़ा हो गया है।...भई, खिचड़ी मेरी बनायी हुई है, मुझे अधिक नमक के साथ भी अच्छी लगती है...
यह प्रस्तावना (इंट्रो) भी इतनी बड़ी हो गयी कि इसे एक अलग पोस्ट की तरह रखना मुझे उचित प्रतीत हुआ। इसे पढ़कर आप अपने मन को तैयार कर रखिये, कल से किस्तें पढ़ने को...। इस प्रस्तावना पर अपनी पसंदगी का इज़हार करने की भी आवश्यकता नहीं है। पहले आलेख की पहली किस्त तो पटल पर आने दीजिए प्रभो! नमस्कार!!]
--आनन्द.
मित्र-संपादक-द्वय द्वारा दी हुई समय-सीमा में आलेख लिखकर भेज देने की सख़्त हिदायत थी। पहली कड़ी घर रहते लिख गया, फिर यात्रा शुरू हुई।...और लेखन में व्यवधान पड़ा। आप यक़ीन करें, यह आलेख कई टुकड़ों में, अनेक पड़ावों में, एयरपोर्ट के वेटिंग लाउंज मे, हवाई जहाज की यात्रा में, बेटी-दामाद और नवासे के घर पहुँचकर ड्राइंग रूम में या एकांत कक्ष में अथवा सुबह-सबेरे बगीचे में निरंतर लिखता ही रहा। श्रीमतीजी को थोड़ी उजलत भी हुई कि अजीब-सा व्यवहार कर रहा हूँ मैं--इतने दिनों बाद मिले दामाद साहब से न ठीक से बात कर रहा हूँ, न नवासे ऋतज के साथ मिलकर अपनी प्रसन्नता का इज़हार कर रहा हूँ। वह मुझे अकेला देखकर आयीं और अपनी आपत्ति भी दर्ज कर गयीं। लेकिन वह मेरा स्वभाव जानती हैं। जानती हैं कि जब तक लेखन का यह भूत मेरे सिर से उतरेगा नहीं, मैं सामान्य और प्रकृतिस्थ हो न सकूँगा। कोची में भी दो दिनों का ही अवकाश था, तीसरे दिन बहुत सबेरे तिरुवनन्तपुरम के लिए प्रस्थान करना था हमें, लेकिन एक दिन पहले ही मैंने आलेख पूरा कर लिया और मेल पर प्रेषित करके दायित्व-मुक्त हुआ।...
मुझे लगता है, किसी विधा में, किसी भी विषय पर, कुछ भी लिखना हो तो उसके लिए दिमागी रसोई जब तैयार हो जाती है, तब लेखन निर्बाध गति से होता है। पारिस्थितिक व्यवधान भी आयें तो वे लेखन का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर पाते; क्योंकि विचार, भावनाएं और इच्छित अभिव्यक्तियाँ सिद्ध होकर मस्तिष्क की कड़ाही में उबलने लगती हैं और उफनते दुग्ध की तरह पात्र से बाहर निकल आने को व्यग्र हो जाती हैं। फिर उन्हें तत्काल लिख डालना ही एक कलमकार की विवशता हो जाती है। यह विवशता मैंने बार-बार महसूस की है। शब्द-सामर्थ्य हो, भाषा-शैली पर किंचित् अधिकार हो, विचार और चिंतन को क्रमिक स्वरूप देते हुए तारतम्य गढ़ने की कला हो, तो भाषा का रथी गद्य के रणक्षेत्र में हुंकार भरता हुआ निरंकुश दौड़ सकता है।...
मैं क्या और मेरी हस्ती भी क्या! पूज्य पिताजी से मिली शब्द-संपदा और मेरा पल्लवग्राही ज्ञान जितना आलोक उनकी उपस्थिति मात्र से ग्रहण कर सका है, उसी ऊर्जा से लिख लेता हूँ थोड़ा-बहुत। लिखने की विवशता से ही लिखा है यह आलेख भी। अब इसकी छह कड़ियाँ कल से क्रमशः आपके सम्मुख होंगी। यह तो आप ही बता सकेंगे कि भाग-दौड़ के बीच लिखी गयी यह दीर्घकाय रचना आपको कैसी लगी!
वैसे, बताता चलूँ कि स्मारिका का प्रकाशन हो चुका है और दिनांक 9अक्तूबर, '17 को बिहार के उप-मुख्यमंत्री श्रीसुशीलकुमार मोदी के कर-कमलों द्वारा इसका विमोचन भी किया जा चुका है, मेरे सहपाठी अभिन्न मित्र और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री श्रीनन्दकिशोर यादव की उपस्थिति में...! स्थानाभाव, समायोजन की विवशताओं के कारण संपादकीय कतरनी भी यत्र-तत्र चली है, शीर्षक को भी सुघड़ बनाया गया है, लेकिन फेसबुक पर यह आलेख मैं अपने दिये हुए शीर्षक के साथ ही यथावत् रख रहा हूँ, वैसे मानता हूँ कि आलेख की तरह ही सिरनामा भी बड़ा हो गया है।...भई, खिचड़ी मेरी बनायी हुई है, मुझे अधिक नमक के साथ भी अच्छी लगती है...
यह प्रस्तावना (इंट्रो) भी इतनी बड़ी हो गयी कि इसे एक अलग पोस्ट की तरह रखना मुझे उचित प्रतीत हुआ। इसे पढ़कर आप अपने मन को तैयार कर रखिये, कल से किस्तें पढ़ने को...। इस प्रस्तावना पर अपनी पसंदगी का इज़हार करने की भी आवश्यकता नहीं है। पहले आलेख की पहली किस्त तो पटल पर आने दीजिए प्रभो! नमस्कार!!]
--आनन्द.
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-11-2017) को "नागफनी के फूल" (चर्चा अंक 2791) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इंतज़ार रहेगा
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