पुराने ज़माने में गाँव-देहात में देर शाम होते ही जो लालटेन बुझने लगती थी, लोग उसे बुझाकर एक किनारे रख देते थे। कौन उसके शीशे साफ करे, मिट्टी का तेल भरे? ये जहमत उठाने से सो जाना लोग बेहतर समझते थे, लेकिन अब वक़्त बदल गया है। लालटेनें अब प्रचलन में रहीं नहीं। शहर तो शहर अधिकांश गाँवों से भी गायब हो गयी हैं लालटेनें।
लेकिन, ज़िन्दगी की राहों को रौशन करने के लिए नासिका के ऊँचे टीले के दोनों ओर जलती-बुझती रहती हैं दो-दो लालटेनें। किन्तु इन लालटेनों का विधान कबीर की उलटबांसियों की तरह ही उलटा है। दिन के उजाले में ये जलती हैं और रात होते ही स्वयमेव बुझ जाती हैं। इन्हें जलाना-बुझाना नहीं पड़ता। इन लालटेनों को हम आँख, नयन, नेत्र आदि कहते हैं। वैसे, यह भी कहा गया है--'नयन जरै दिन रैन हमारे'। सच है, ये लालटेनें जलती तो रहती हैं दिन-रात, लेकिन इनका जलना-बुझना स्वचालित है। इन लालटेनों का स्विच होती हैं हमारी पलकें। पलकें बंद हुईं और स्वतः बुझ गयीं लालटेनें। पलकें खुलीं तो रौशन हो उठीं लालटेनें।
नयनों के अत्यधिक उपयोग से या अनियमित शयन-जागरण से या अनुचित खानपान से इन लालटेनों पर कालिख-सी पुत जाती है, जिसे आंग्ल भाषा में कहते हैं कैटरेक्ट और देसी भाषा में मोतियाबिंद! सैंतीस वर्षों से मैं भी तम्बाकू का सेवन करता रहा हूँ और अक्षरों से खूब फोड़ी हैं आँखें, रात-रात-भर जागकर। भोजन की अनियमितता मेरी जीवनचर्या रही थी। मेरी लालटेन पर कालिख तो आनी ही थी, आयी। जब बहुत परेशानी होने लगी तो मैंने शल्य क्रिया का निर्णय लिया।
मुझे याद आया, यह कष्ट पिताजी को भी हुआ था। मैंने जब से उन्हें देखा था, चश्मे में ही देखा था। अपने चौथेपन में उन्होंने अपनी एक आँख की शल्य क्रिया अलीगढ़ अकेले जाकर प्रख्यात चिकित्सक डाॅ. पाहवा से करवायी थी। पन्द्रह दिन अस्पताल में रहे थे और अनेक कष्ट उठाये थे। पन्द्रह दिनों के बाद एक आँख पर हरी पट्टी बँधवाये वह दिल्ली गये थे और अपने अभिन्न मित्रों सर्वश्री बच्चन, जैनेन्द्र कुमार और अज्ञेयजी से मिलकर पटना लौटे थे। तीन महीने के औषधोपचार के बाद उनकी आँख काम करने लायक हुई थी, मोटा पावर ग्लास लगाकर...!
अब, जब मेरी बारी आई तो मैंने भी अपने बच्चों को अपनी-अपनी व्यस्तताओं से हाथ खींचकर भाग-दौड़ करने से मना कर दिया और श्रीमतीजी के साथ पुणे के रूबी हाॅस्पिटल पहुँच गया। 17 जनवरी की सुबह वहाँ डाॅक्टर नरियोसन एफ. ईरानी ने मेरी बाईं आँख का लेजर ऑपरेशन किया और मात्र 20 मिनट में मुझे फ़ारिग कर दिया। दो घण्टे अपनी निगरानी में रखने के बाद उन्होंने मेरी आँख की पट्टी भी हटा दी और काले चश्मे में घर भेज दिया। 21 दिनों की औषधियों और तमाम परहेजों-सावधानियों के बाद पावर का नया चश्मा मुझे मिल गया है और दुनिया फिर से रौशन हो गयी है।
बदलते वक्त के साथ यह आॅपरेशन बहुत आसान हो गया है। सौभाग्य से मुझे युवा डाॅक्टर ईरानी भी ऐसे मिले, जो मित्रवत् व्यवहार करते थे। पूरी शल्य क्रिया के दौरान वह मुझसे बातें करते रहे और मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई। मेरी नासिका के बायीं ओर रखी लालटेन का शीशा उन्होंने ऐसा चमकाकर साफ कर दिया है कि दुनिया रौशन हो उठी है, दृश्य उछलकर नेत्र-पट पर नृत्य करने लगे हैं और अक्षर अब स्थिर भाव में खड़े मिलते हैं; उनमें लेशमात्र का कंपन नहीं होता। दीन-दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है, मेरे तो अच्छे दिन आनेवाले हैं!... खूब लिखूँगा-पढ़ूंगा और स्पष्ट दूर-दर्शन करूँगा।
एतदर्थ, मृदुभाषी आत्मीय चिकित्सक डाॅ. ईरानी का बहुत-बहुत आभार!
--आनन्द. 10 जनवरी, 2018.
[चित्र : डा. नरियोसन एफ. ईरानी के साथ मैं. 7-11-2018]
लेकिन, ज़िन्दगी की राहों को रौशन करने के लिए नासिका के ऊँचे टीले के दोनों ओर जलती-बुझती रहती हैं दो-दो लालटेनें। किन्तु इन लालटेनों का विधान कबीर की उलटबांसियों की तरह ही उलटा है। दिन के उजाले में ये जलती हैं और रात होते ही स्वयमेव बुझ जाती हैं। इन्हें जलाना-बुझाना नहीं पड़ता। इन लालटेनों को हम आँख, नयन, नेत्र आदि कहते हैं। वैसे, यह भी कहा गया है--'नयन जरै दिन रैन हमारे'। सच है, ये लालटेनें जलती तो रहती हैं दिन-रात, लेकिन इनका जलना-बुझना स्वचालित है। इन लालटेनों का स्विच होती हैं हमारी पलकें। पलकें बंद हुईं और स्वतः बुझ गयीं लालटेनें। पलकें खुलीं तो रौशन हो उठीं लालटेनें।
नयनों के अत्यधिक उपयोग से या अनियमित शयन-जागरण से या अनुचित खानपान से इन लालटेनों पर कालिख-सी पुत जाती है, जिसे आंग्ल भाषा में कहते हैं कैटरेक्ट और देसी भाषा में मोतियाबिंद! सैंतीस वर्षों से मैं भी तम्बाकू का सेवन करता रहा हूँ और अक्षरों से खूब फोड़ी हैं आँखें, रात-रात-भर जागकर। भोजन की अनियमितता मेरी जीवनचर्या रही थी। मेरी लालटेन पर कालिख तो आनी ही थी, आयी। जब बहुत परेशानी होने लगी तो मैंने शल्य क्रिया का निर्णय लिया।
मुझे याद आया, यह कष्ट पिताजी को भी हुआ था। मैंने जब से उन्हें देखा था, चश्मे में ही देखा था। अपने चौथेपन में उन्होंने अपनी एक आँख की शल्य क्रिया अलीगढ़ अकेले जाकर प्रख्यात चिकित्सक डाॅ. पाहवा से करवायी थी। पन्द्रह दिन अस्पताल में रहे थे और अनेक कष्ट उठाये थे। पन्द्रह दिनों के बाद एक आँख पर हरी पट्टी बँधवाये वह दिल्ली गये थे और अपने अभिन्न मित्रों सर्वश्री बच्चन, जैनेन्द्र कुमार और अज्ञेयजी से मिलकर पटना लौटे थे। तीन महीने के औषधोपचार के बाद उनकी आँख काम करने लायक हुई थी, मोटा पावर ग्लास लगाकर...!
अब, जब मेरी बारी आई तो मैंने भी अपने बच्चों को अपनी-अपनी व्यस्तताओं से हाथ खींचकर भाग-दौड़ करने से मना कर दिया और श्रीमतीजी के साथ पुणे के रूबी हाॅस्पिटल पहुँच गया। 17 जनवरी की सुबह वहाँ डाॅक्टर नरियोसन एफ. ईरानी ने मेरी बाईं आँख का लेजर ऑपरेशन किया और मात्र 20 मिनट में मुझे फ़ारिग कर दिया। दो घण्टे अपनी निगरानी में रखने के बाद उन्होंने मेरी आँख की पट्टी भी हटा दी और काले चश्मे में घर भेज दिया। 21 दिनों की औषधियों और तमाम परहेजों-सावधानियों के बाद पावर का नया चश्मा मुझे मिल गया है और दुनिया फिर से रौशन हो गयी है।
बदलते वक्त के साथ यह आॅपरेशन बहुत आसान हो गया है। सौभाग्य से मुझे युवा डाॅक्टर ईरानी भी ऐसे मिले, जो मित्रवत् व्यवहार करते थे। पूरी शल्य क्रिया के दौरान वह मुझसे बातें करते रहे और मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई। मेरी नासिका के बायीं ओर रखी लालटेन का शीशा उन्होंने ऐसा चमकाकर साफ कर दिया है कि दुनिया रौशन हो उठी है, दृश्य उछलकर नेत्र-पट पर नृत्य करने लगे हैं और अक्षर अब स्थिर भाव में खड़े मिलते हैं; उनमें लेशमात्र का कंपन नहीं होता। दीन-दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है, मेरे तो अच्छे दिन आनेवाले हैं!... खूब लिखूँगा-पढ़ूंगा और स्पष्ट दूर-दर्शन करूँगा।
एतदर्थ, मृदुभाषी आत्मीय चिकित्सक डाॅ. ईरानी का बहुत-बहुत आभार!
--आनन्द. 10 जनवरी, 2018.
[चित्र : डा. नरियोसन एफ. ईरानी के साथ मैं. 7-11-2018]
1 टिप्पणी:
यह तो सही है कि बदलते वक्त के साथ मोतियाबिंदु के आपरेशन कष्टतर नहीं रहे,आसान हो गए हैं। कुछ सात आठ वर्ष पहले मेरे पिताजी ने कराया था, अब तक तो कॊई दिक्कत नहीं है उन्हें। प्रसन्नता हुई यह जानकर कि आपकी मोतियाबिंदु शल्यक्रिया अच्छी तरह सफल हो गई । फिर भी,अभी ज्यादा पढ़ने लिखने या आँखों पर जोर देने के काम ना करें तो बेहतर है । अपना खयाल रखें । सादर ।
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