जख़्म फिर हरा हो गया...
फिल्म 'माॅम' की कलानेत्री श्रीदेवी के हठात् मौन हो जाने से सारा संसार स्तब्ध है और कई ऐंगल से उनकी अचानक हुई मौत पर विचार कर रहा है। टीवी के तमाम चैनलों पर यही चिंता कल से व्यक्त हो रही है कि ऐसा कैसे हो गया?...
मैं अपने अनुभव से जानता हूँ कि ऐसा भी होता है। काल कभी भी, कहीं भी दबे पाँव आ धमकता है और जीते-जागते, हँसते-गाते, ख़ुशदिल इंसान की धड़कनें बंद कर जाता है। श्रीदेवी भी उसी क्षिप्र कालगति का ग्रास बन गयी हैं, जिसकी शिकार मेरी माँ हुई थीं कभी।...
फिर 4 दिसम्बर, सन् 1968 याद आया, जिसके ब्राह्म मुहूर्त में मेरी माँ के दिल की धड़कनों को भी काल ने गिरफ़्तार कर लिया था--औचक! 3 दिसम्बर 68 की शाम तक वह दफ़्तर में थीं। तमाम संचिकाओं के निबटारे के बाद बाज़ार गयी थीं। दूसरे दिन एकादशी थी। प्रत्येक एकादशी पर सत्यनारायण भगवान् की कथा-श्रवण का उनका नियम था। उन्हीं के पूजन के लिए वह बाज़ार से खरीद लायी थीं फल और हवन-सामग्रियाँ, साथ में श्रीराम-जानकी और भजन-मग्न पवनसुत हनुमान की फ्रेम में मढ़ी हुई तस्वीरें। वह पूर्णतः स्वस्थ और प्रसन्नचित्त थीं। तब कौन जानता था कि कल का सूर्योदय वह देख न सकेंगी?
विवाह समारोह में पूरी हार्दिकता और प्रसन्नता से शामिल होनेवाली श्रीदेवी को भी कहाँ ज्ञात था कि कल का सूरज उनके दर्शन के लिए नहीं निकलेगा? इस स्तम्भित कर देनेवाले आघात को खूब पहचानता हूँ मैं! जब हम बच्चों ने अपनी माँ को खोया था, तब हम चारों भाई-बहन टीन एजर्स ही थे। माँ स्वदेश में ही, किन्तु घर से दूर थीं। श्रीदेवी की दोनों बेटियाँ भी उसी आयु-वर्ग के आसपास की हैं आज। पाँच-छह घण्टों की यात्रा कर हम माँ के पास तो कहाँ, उनके पार्थिव अवशेष तक पहुँच गये थे, लेकिन श्रीदेवी की बेटियों को तीन दिनों से माँ का नहीं, उनके शव-दर्शन की विह्वल प्रतीक्षा करनी पड़ रही है और दुनिया है कि नियमों-विधानों की उलझी सुलझाने में लगी है। माँ तो अनन्त की यात्रा पर चली गयीं हैं, उन्हें तो अब आना नहीं है कभी...! आना है शव को, डेड बाॅडी को, पार्थिव अवशेष को...! यह मान लेना भी कितना कठिन है, त्रासद और दुःखद है...!
जानता हूँ, संपूर्ण ब्रह्माण्ड की समस्त गतिविधियों के हठात् रुक जाने-जैसी और स्तब्ध कर देनेवाली घड़ी है यह...! ऐसी मर्मान्तक, स्तब्धकारी और जड़ कर देनेवाली पीड़ा का भुक्तभोगी हूँ मैं भी, मेरा पूरा परिवार भी। संवेदना-सांत्वना का कोई भी शब्द पीछे छूट गये परिजनों की इस पीड़ा का शमन नहीं कर सकता। यह अवसाद आजीवन सालता रहेगा अब।...
श्रीदेवी के महाप्रस्थान से वह पुराना जख़्म फिर से हरा हो गया है।... बस, इतना ही कह सकूँगा अभी।...
(--आनन्द. 26-02-2018)
फिल्म 'माॅम' की कलानेत्री श्रीदेवी के हठात् मौन हो जाने से सारा संसार स्तब्ध है और कई ऐंगल से उनकी अचानक हुई मौत पर विचार कर रहा है। टीवी के तमाम चैनलों पर यही चिंता कल से व्यक्त हो रही है कि ऐसा कैसे हो गया?...
मैं अपने अनुभव से जानता हूँ कि ऐसा भी होता है। काल कभी भी, कहीं भी दबे पाँव आ धमकता है और जीते-जागते, हँसते-गाते, ख़ुशदिल इंसान की धड़कनें बंद कर जाता है। श्रीदेवी भी उसी क्षिप्र कालगति का ग्रास बन गयी हैं, जिसकी शिकार मेरी माँ हुई थीं कभी।...
फिर 4 दिसम्बर, सन् 1968 याद आया, जिसके ब्राह्म मुहूर्त में मेरी माँ के दिल की धड़कनों को भी काल ने गिरफ़्तार कर लिया था--औचक! 3 दिसम्बर 68 की शाम तक वह दफ़्तर में थीं। तमाम संचिकाओं के निबटारे के बाद बाज़ार गयी थीं। दूसरे दिन एकादशी थी। प्रत्येक एकादशी पर सत्यनारायण भगवान् की कथा-श्रवण का उनका नियम था। उन्हीं के पूजन के लिए वह बाज़ार से खरीद लायी थीं फल और हवन-सामग्रियाँ, साथ में श्रीराम-जानकी और भजन-मग्न पवनसुत हनुमान की फ्रेम में मढ़ी हुई तस्वीरें। वह पूर्णतः स्वस्थ और प्रसन्नचित्त थीं। तब कौन जानता था कि कल का सूर्योदय वह देख न सकेंगी?
विवाह समारोह में पूरी हार्दिकता और प्रसन्नता से शामिल होनेवाली श्रीदेवी को भी कहाँ ज्ञात था कि कल का सूरज उनके दर्शन के लिए नहीं निकलेगा? इस स्तम्भित कर देनेवाले आघात को खूब पहचानता हूँ मैं! जब हम बच्चों ने अपनी माँ को खोया था, तब हम चारों भाई-बहन टीन एजर्स ही थे। माँ स्वदेश में ही, किन्तु घर से दूर थीं। श्रीदेवी की दोनों बेटियाँ भी उसी आयु-वर्ग के आसपास की हैं आज। पाँच-छह घण्टों की यात्रा कर हम माँ के पास तो कहाँ, उनके पार्थिव अवशेष तक पहुँच गये थे, लेकिन श्रीदेवी की बेटियों को तीन दिनों से माँ का नहीं, उनके शव-दर्शन की विह्वल प्रतीक्षा करनी पड़ रही है और दुनिया है कि नियमों-विधानों की उलझी सुलझाने में लगी है। माँ तो अनन्त की यात्रा पर चली गयीं हैं, उन्हें तो अब आना नहीं है कभी...! आना है शव को, डेड बाॅडी को, पार्थिव अवशेष को...! यह मान लेना भी कितना कठिन है, त्रासद और दुःखद है...!
जानता हूँ, संपूर्ण ब्रह्माण्ड की समस्त गतिविधियों के हठात् रुक जाने-जैसी और स्तब्ध कर देनेवाली घड़ी है यह...! ऐसी मर्मान्तक, स्तब्धकारी और जड़ कर देनेवाली पीड़ा का भुक्तभोगी हूँ मैं भी, मेरा पूरा परिवार भी। संवेदना-सांत्वना का कोई भी शब्द पीछे छूट गये परिजनों की इस पीड़ा का शमन नहीं कर सकता। यह अवसाद आजीवन सालता रहेगा अब।...
श्रीदेवी के महाप्रस्थान से वह पुराना जख़्म फिर से हरा हो गया है।... बस, इतना ही कह सकूँगा अभी।...
(--आनन्द. 26-02-2018)
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-02-2018) को ) "होली के ये रंग" (चर्चा अंक-2895) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
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