बुधवार, 6 जून 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(6)

गोवा-प्रवास के अब दो दिन शेष थे। तीसरे दिन की सुबह हमें पुणे के लिए प्रस्थान करना था। फिर वही राह, वही पहाड़ की चढ़ाई, जहाँ से उतर आये थे हम! आठ घण्टों की वही लंबी डगर...! हमने तय किया कि अब हम विश्राम, व्यायाम और आनन्द-लाभ करेंगे, समुद्र-तट के अलावा कहीं जायेंगे नहीं।

जिस शाम हमलोग स्वीट लेक से लौटे, उसी के दूसरे दिन एक सुदर्शन दम्पती हमारे पड़ोसी बने। सुबह के दस-साढ़े दस बज रहे होंगे। हम समुद्र-तट से स्नान कर लौट आये थे। मैं बाहर पड़े सोफ़े पर ही बैठा था, जब दम्पती ने चेक-इन किया। भुर्राक़ गोरे थे दोनों प्राणी! मेरे ठीक बगल की अपनी कुटिया में प्रवेश करते हुए उन दोनों ने मुझे देखा और मधुर मुस्कान के साथ दो शब्द कहे--'गुड मॉर्निंग!' शिष्टाचारवश मैंने भी प्रत्युत्तर दिया। अपना सामान रैनबसेरे में रखकर वे समुद्र तट की ओर चले गये। मैं अपनी जगह जमा रहा। वे दोनों सुदर्शन थे--अच्छी-ख़ासी कद-काठी के, नैन-नक्श के। दोनों की त्वचा से रक्त की लालिमा जैसे छलक पड़ना चाहती हो। अन्य विदेशी कन्याओं की अपेक्षा युवती ने भद्र वेश धारण किया था और अत्यंत आकर्षक लग रही थी। वे सिगरेट का धुआं उड़ाते चले गये। चाय की प्रतीक्षा में मैं अपनी जगह पर जमा रहा। घण्टे-भर बाद वे दोनों लौट आये। तब तक चाय मैं पी चुका था और अपनी असली ख़ुराक, एक बीड़ा पान, के प्रबंधन में मशगूल था।
तभी पदचाप सुनकर मैंने सिर उठाया, देखा, वही दम्पती थे। उन्होंने मुझे देखकर मधुर मुस्कान दी। मैंने मुस्कुरा के पूछा--'हाउ डू यू लाइक द बीच?'
युवक ने कहा--"नो डाउट, बीच इज़ ब्यूटीफुल!' मैंने तस्दीक की--'यस, इट्स ऑसम!' तभी कन्या ने लपककर कहा--'यस, आसम...आसम!' लेकिन मुझे उन दोनों के अंग्रेजी उच्चारण में सहजता की कमी महसूस हुई। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया--'फ्राॅम वेयर आर यू?' पुरुष ने उत्तर देते हुए प्रश्न भी किया--'रशिया, एण्ड यू?' प्रत्युत्तर में मैंने स्वयं को भारतीय बताया। प्रश्न युवक ने किया था, उत्तर देते हुए मुझे उससे मुख़ातिब होना चाहिए था, लेकिन मेरी दृष्टि तो कन्या के मुखमण्डल पर ही स्थिर होकर रह गई थी। वह सचमुच बहुत सुन्दर थी। ये कुदरत भी न, किसी-किसी को अपनी नेमतों से क्या खूब नवाज़ती है!... तभी पुरुष ने अपनी भाषा में कुछ कहा और दोनों अपनी पर्णकुटी में चले गये, मैं संकुचित हो उठा। क्या मेरी स्थिर दृष्टि मर्यादाएँ लाँघ रही थी। इस पर तुर्रा यह कि छोटी बेटी ने लगे हाथ वर्जना भी दे दी--'प्लीज़, डोण्ट टाॅक टू मच, पापा!' बेटी के वाक्य ने मेरा संकोच और बढ़ा दिया, लेकिन मेरे-जैसा मुखर व्यक्ति भला चुप कैसे रहता? मैंने बेटी से कहा--'मैंने तो कुछ कहा ही नहीं था बेटा! बात की शुरूआत तो उन्हीं लोगों ने की थी। मैं क्या कुछ न कहता, चुप रहता?" बेटी ने चुप्पी साध ली। अब मैंने अपने अधबने पान को देखा, जिसका एक कोना सुपारी के डिब्बे से दबा था और उस पर लगा चूना सूख चला था। मेरी ही प्रतीक्षा में विकल था पान भी, उसे देखकर मुझे लगा, मेरी दृष्टि के कोर पर भी किसी पाँव धर दिया है।...

फिर, चौबीस घंटे तक बगलगीर में किसी से बात नहीं हुई और अनावश्यक एक जटिलता मन में अवसाद-सी घुलती रही, जबकि मेरी ठहरी हुई दृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो आपत्तिजनक होने की कोटि में आता हो। कभी-कभी ऐसा होता है न कि किसी आकर्षक पुष्प, वस्तु, दृश्य या व्यक्ति को देखकर आप ठिठक जाते हैं, सम्मोहन की दशा में स्थिर-हतसंज्ञ हो जाते हैं। उस कन्या का रूप-लावण्य था ही ऐसा कि उस पर मेरी दृष्टि पड़ी, तो ठिठक गयी। उस दृष्टिपात में सहज सम्मोहन के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। हाँ, मानता हूँ, शिष्टता के तकाज़े से भटक गयी थी मेरी दृष्टि उस क्षण! लेकिन वह थी ही ऐसी कमनीय कुसुम--सुर्ख़ गुलाब-सी सुकोमल कन्या...!

चौबीस घण्टे के बाद मैं फिर उसी जगह, उसी सोफ़े पर बैठा था। मैंने देखा, वह कन्या अपनी पर्णकुटी से अकेले निकली और धुआँ उड़ाती चलती चली गई। मैंने सोचा, युवक भी अब घर से निकलेंगे और कुटिया में ताला बंद करके चले जायेंगे युवती के पास। मैं बार-बार खुले द्वार की ओर देखता रहा, युवक बाहर आये ही नहीं। करीब पैंतालीस मिनट का वक़्त व्यतीत हो गया। मैंने मन-ही-मन मान लिया कि युवती अकेली ही कहीं गयी होगी और पुरुष अंदर ही होंगे। लेकिन नहीं, पैंतालीस मिनट के बाद मैंने देखा, युवक-युवती दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, ये दोनों प्राणी तो बड़े निश्चिंत हैं और पूरी आश्वस्ति से पदाघात करते चले आ रहे हैं। बेटी की वर्जना के प्रभाव में मैंने स्वयं कुछ कहना-पूछना उचित नहीं माना। लेकिन वे जब करीब आ गये तो मेरी दृष्टि फिर उनकी ओर उठी और विवश हो गयी। आगे-आगे कन्या ही थी। कन्या की मीठी मुस्कान ने मेरा इस्तक़बाल किया। उसकी सम्मोहक मुस्कान से मेरा हौसला बढ़ गया। फिर मैं चुप न रह सका। मैंने दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए उसी से पूछा--'ह्वाई यू हैव लेफ़्ट इट ओपन?' अब उसने एक दिलकश मुस्कान बिखेरी और मीठी आवाज़ में बोली--'बिकाॅज़ यू आर हियर, सर!' यह कहकर वह हँस पड़ी और अपनी कुटिया में चली गयी। न इधर कोई दुर्भाव था, न उधर कोई अवगुंठन। उसकी निश्छल हंसी की खनक से मन का मुर्झाया गुलाब खिल उठा। मैंने वहीं बैठे-ठाले एक शेर कहा, कहिये तो सुना दूँ--

'कहो तो लिख दूँ किताब फूलों की,
तुम से मिलती है शक़्ल गुलाबों की।'

इस शेर के साथ यह प्रकरण समाप्त हुआ और मिट गया मन में अनावश्यक जड़ जमाता अपराध-बोध।...
अब हमारे पास सिर्फ़ वही दिन शेष था। श्रीमतीजी अपने घुटने की फ़िक्र में तैल-मर्दन के लिए मसाज सेंटर गयीं, जो उसी परिसर में था। वह लौटीं तो हम सभी तैयार होकर भोजन करने वेलेंकिनी गये और भोजन से निवृत्त होकर बाज़ार में घूमते फिरे--दो चीजों के लिए--एक तो कच्चे नारियल का शुद्ध तैल, जिसे खरीदने की सिफ़ारिश मसाज सेंटर ने की थी; दूसरे पान के छुट्टे पत्तों के लिए, जिसका भण्डार रिक्त हो चला था। दोनों सामग्रियाँ खरीद कर जब हम लौट रहे थे तो सड़क किनारे दूकनों में लटकते वस्त्रों को देखकर श्रीमतीजी ने कार रुकवायी और कपड़ों की कई दुकानों में गयीं। उनके साथ मैं भी था और बेटी भी। दुकान में खरीद-फरोख़्त करते विदेशी सैलानी भी थे। दुकानदार पुरुष भी थे और निपट घरेलू कोंकणी महिलाएँ भी। हम यह देखकर चकित रह गये कि वे सामान्य घरेलू महिलाएँ विदेशियों से उन्हीं की भाषा में बातें कर रही थीं और उन्हें संतुष्ट भी कर रही थीं। यह देख श्रीमतीजी से रहा न गया। उन्होंने एक दूकान की संचालिका से पूछ ही लिया--'आप इन लोगों से किस भाषा में बात कर रही हैं?' उसने कहा--'रशियन!' श्रीमतीजी बोलीं--'आपने रशियन सीखी है क्या?' वह मुस्कुराते हुए बोली--'आसपास के जितने भी बीच हैं, उन पर ज्यादातर रशियन ही आते हैं, उन्हीं से सीख ली है मैडम!' उसकी बात सुनकर श्रीमतीजी ने मुझसे कहा--'देखिये न, भाषा भी यात्रा करके कैसे आ पहुँची है यहाँ।' हम वहाँ से विस्मित लौटे।...

शाम का वक़्त भी आनन्द-सागर गोते लगाते हुए व्यतीत हुआ। रात के भोजन की प्रतीक्षा करते हुए मैंने चार पंक्तियाँ लिखीं--
'रात की स्याही, उजालों की कहानी लिखिये,
हवा की शोख़ियाँ, रेत की बेज़ुबानी लिखिये,
ताउम्र ठहर जाइये, मौजों की परेशानी लिखिये,
देखिये दुनिया नयी, पर याद पुरानी लिखिये।'

समुद्र-तट की ऊर्जा ऐसी थी कि ब्राह्म मुहूर्त में ही जगा देती थी। गोवा की अंतिम रात में हम एहतियातन जल्दी शय्याशायी हुए और सुबह सात बजे अपनी पर्णकुटी छोड़कर मय-सरोसामाँ बाहर आ गये। वह रमणीय स्थान हमें आसानी से छोड़ कहाँ रहा था! लेकिन राह लंबी थी, हमें उस स्थान की मोहिनी शक्ति के हाथ झटकने पड़े। कार में बैठते ही मैंने सेलफोन के नोट पैड में कतिपय पंक्तियाँ लिखीं--

'जीवन है, सो यात्रा है...
चलते रहो, निर्भीक-निःशंक
कभी मिलेगा सुख का सागर
कभी मिलेगा दुःख का दंश!...
जीवन-पर्वत नहीं अल्लंघ्य,
पाँव धरा तो होगे उस पार,
पहुँच शीर्ष पर ही जानोगे
क्या है पर्वत के उस पार
और समझ लोगे तुम यह भी
था चढ़ना जितना दुष्कर,
उतना ही सुखदायी सफ़र था।
नीचे बने घरौंदों में ही,
कहीं एक अपना घर था...!'

हाशिम भाई घाटी से उतर तो आये थे, लेकिन अब उसकी चढ़ाई से चिंतातुर थे और उनकी चिंता से मैं भी। वह कोई दूसरी राह तलाश रहे थे। लंबी दूरी के चालकों से दरियाफ़्त कर रहे, नेट खँगाल रहे थे। उन्हें एक-दो अन्य मार्ग मिले भी, लेकिन वे बहुत लंबे थे, फिर तो उन्नतशिर पहाड़ की घाटी को लाँघना ही एकमात्र विकल्प था। मैंने हाशिम भाई को ड्राइविंग के कुछ टिप्स दिये और उनकी हौसलाअफ़जाई की। गोवा छोड़ने के पहले एक छोटी-सी दुकान की चाय पीकर हम तरोताज़ा हुए और लंबी यात्रा शुरू हुई। अंबोली घाटी के शीर्ष पर चढ़ते हुए हाशिम भाई ने कार-चालन बड़ी निपुणता से किया और निपाणी के एक होटल में दक्षिण भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों से पेट भरकर निरंतर चलते ही रहे। शाम के चार बजे हमने पुणे में प्रवेश किया। अत्यंत आनन्ददायी सफ़र था। खूब मज़ा आया।लेकिन, समुद्र के खारे जल ने मेरी पैंतीस वर्ष पुरानी और प्रिय दाढ़ी में कुछ ऐसा उत्पात मचाया कि पुणे पहुँचने के दस दिनों बाद ही मुझे उससे मुक्त होना पड़ा।... दस दिनों की इस गोवा-यात्रा का यही अर्जन और व्यय था, हुआ।...








(समाप्त)
[पुन : वृत्तांत समेटते-समेटते भी लंबा हो गया न?]

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