[एक और यात्रा-कथा का काव्य : राजस्थान के बलोत्तरा से जालोर के रस्ते में]
यह पूरा प्रदेश बंजर है,
बलुआयी ज़मीन है,
प्रकृति की गोद में उग आए हैं
कांटे, झाडियाँ और
नुकीले छोटे-बड़े पहाड़--
आकाश की छाती में जैसे
चुपचाप धंस जाना चाहते हों !
पहाड़ काले पत्थरों के मौन हैं,
उन पर बिछी है--
धूपजली , काली, भूरी, बिछली घास,
जैसे रात्रि में निस्तब्ध उतर आनेवाली
शीत के प्रकोप से बचने के लिए
उन्होंने ओढ़ लिए हों--
फटे-पुराने कम्बल !
आकाश निर्विकार है,
उसके मन में
जाने कौन-सा विचार है !
संभवतः वह तौल रहा है--
धरती की गोद की उद्दाम सुन्दरता,
झाड़, पहाड़, काँटों की व्याकुलता !
निर-वृक्ष नंगे पहाडों के बौनेपन पर
वह मन-ही-मन हँसता है
और प्यारी वसुंधरा से यूँ कहता है--
''मेरे सूर्य से झरनेवाली ऊष्मा,
मेरी गोद से छलांग लगनेवाले
बादलों के ये छोटे-नन्हे बच्चे
तुम्हारी सुषमा बढाते हैं,
तुम्हारी सुन्दरता में चार चाँद लगते हैं...
और क्या तू नहीं जानती,
मेरी आत्मा के बगीचे में
कैसे-कैसे फूल खिल आते हैं ?
तेरे कांटे मुझे दंश नहीं देते,
मुझे गुदगुदाते हैं,
पहाड़ मुझे छूने की कोशिश में
आनंद के गीत गाते हैं,
हरी सूखी कंटीली झाडियाँ
मुझे सहलाती हैं,
मिलन की मौन प्रतीक्षा के गीत गाती हैं !
और सच है,
यह सब मुझे सहज भाते हैं,
मेरी छाया में उगने वाले हर पत्ते पर
वायु के मंद झखोरे
प्रीति-पराग के अनछुए छंद लिख आते हैं !
इसलिए प्यारी धरित्री !
तू मेरी चेरी है,
और मेरे असीम विस्तार में
बिछी हुई
यह सम्पूर्ण सृष्टि मेरी है !!''
4 टिप्पणियां:
और मेरे असीम विस्तार में
बिछी हुई
यह सम्पूर्ण सृष्टि मेरी है !!''
भाई आनन्द वर्धन ओझा जी।
इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए
बधाई।
आपने जिस जमीन का जिक्र किया है उसी पर मेरा जन्म हुआ है आपका बालोतरा कब आना हुआ ? अगर आप इससे सौ किलोमीटर और आगे आते तो शायद हमारा भी सौभाग्य जाग जाता. वैसे तचना जबरदस्त इसलिए भी लग रही कि मैं वो सब महसूस कर रहा हूँ जो आपने अपने शब्दों में ढाला है.खूबसूरत !!
rajsthan se mujhe lagao aur prem dono hai.yahi zindagi ke aham safar tay huye .isse judi har cheez priye hai .sundar rachana .kishore ji ke anubhav se main bhi guzar rahi hoon .
आदरणीय आनन्दवर्धन जी,
राजस्थान के भू-भागों का जिस खूबसूरती से वर्णन किया है मानो सजीव हो उठा हो आँखों के सामने कुछ वैसा ही जैसा श्री जसदेव सिँह जी के आँखों-देखा हाल के बारे में कहा जाता है कि सुननेवाला वहां पहुँच ही जाता है विदेह।
शब्द संयोजन और भाव मिश्रण आपके रचनाधर्म की ख्हशियत है और इसी परंपरा का निर्वाह बड़ी खूबसूरती से किया है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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