वैद्यनाथ मिश्र उर्फ़ नागार्जुन ! खादी का मोटा कुरता-पायजामा, कंधे से लटकता झोला, मंझोला क़द, कृष काया, गेंहुआ वर्ण, वटवृक्ष के बरोह की तरह विषम दाढ़ी, बेबाक वाणी, मस्तमौला मन, फकीरी बाना--महाकवि नागार्जुन की यही धज थी।
सन १९७४ के बिहार आन्दोलन के दौरान मुझे नागार्जुन के निकट आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आन्दोलन के समर्थन में जगह-जगह होनेवाली नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन और फणीश्वर नाथ 'रेणु' के नेतृत्व में हम युवा उत्साही कवियों, साहित्यानुरागियों एक दल अनायास बन गया था। जयप्रकाशजी की प्रेरणा से पटना सिटी के चौक पर तीन युवा कवि बारह घंटे की सांकेतिक भूख-हड़ताल पर बैठे थे, उनमें एक मैं था। भूख-हड़ताल की समाप्ति पर हमें शिकंजी पिलाने के लिए नागार्जुन पधारे थे। उसके बाद जाने कितने चौराहों पर हमने उनकी अगुआई में कवितायें पढ़ी थीं, भाषण दिए थे और चायखानों में बैठकर सम-सामयिक चर्चाएँ की थीं। आन्दोलन की धार को और अधिक पैनापन देने के लिए नागार्जुन के पास एक-से-बढ़कर एक कारगर साहित्यिक हथियार थे। युवा साथियों के साथ नागार्जुन नवयुवक बन जाते थे। वह अनूठी आत्मीयता और स्नेह के साथ हमें अपने साथ ले चले थे। हम सभी उन्हें अपने प्यार से 'नागा बाबा' कहते थे। वार्धक्य की अशक्तता उन्हें रोक न पातीथी, स्वस्थ्य की नरम-गरम स्थितियां उनकी गति को अवरुद्ध न कर पाती थीं। सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में नागार्जुन मसिजीवियों के प्रखर नेता थे । उन दिनों उनकी एक कविता बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसका पाठ वह झूम-झूमकर और चुटकियाँ बजाकर करते थे --
''इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?
बेटे को तर दिया, बोड दिया बाप को ?
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?''
जिन नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन ने इस कविता का पाठ किया, उनमें श्रोताओं की तालियाँ सामान रिदम पर बजती रहती थीं और श्रोता भावः-विभोर हो जाते थे। उन दिनों मेरे पूज्य पिताजी (स्व. प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') जयप्रकाश आन्दोलन के विचारवाही और समर्थित पत्र 'प्रजानीति' के संपादक बनकर दिल्ली जा बसे थे। पिताजी और नागार्जुनजी की पुरानी मित्रता थी, लेकिन मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि महाकवि नागार्जुन मेरे भी मित्र थे । सच तो यह है कि नागा बाबा की प्रभा-दीर्घा में जितनी पीढियों के प्रतिनिधि आए, सभी उनके मित्र बन गए। बाबा का हृदय समुद्र की तरह विशाल था। वह सबों को जोड़कर चलने के पक्षधर थे। भारत का कोई ऐसा शहर न होगा, जहाँ उनके युवा मित्रों की टोली न रही हो। वह अपनी प्रीती की डोर से सबको बांधे रखते थे।
नागा बाबा निरभिमानी व्यक्ति थे--सरल, सहज और उन्मुक्त मन के यायावर कवि ! निरंतर चलायमान, गृहस्थ होते हुए वीतरागी ! अंहकार, अभिमान उन्हें छू भी न सका था, किंतु स्वाभिमान उनमें प्रचुर मात्र में था। पटना सिटी के चौक पर हमारे दो अड्डे थे--जहाँ बाबा के साथ प्रतिदिन बैठका लगता था। एक था सिटी स्वीट हॉउस और दूसरा भज्जन पहलवान का होटल ! इंदिराजी बिहार आन्दोलन को सख्ती से कुचलने पर आमादा थीं। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर भी बिहार की जन-भावना की अनदेखी करके सैन्य-बल से आन्दोलन को दबा देने की हर सम्भव चेष्टा कर रहे थे। कर्फ्यू के दिन थे। कर्फ्यू में जब कभी घंटे भर की ढील होती, हम अपने अड्डे से बहार निकल आते--समाचारों का संग्रहण होता, चर्चाएँ होतीं, और चौराहों पर गोलबंद होकर हम नगर्जुंजी के नेतृत्व में आन्दोलन समर्थित अपनी-अपनी कवितायें पढ़ते, नारे लगते। वे अजीब ऊर्जा और उत्साह से भरे दिन थे। एक बार कर्फ्यू में ढील का लाभ उठाकर हूँ नुक्कड़ गोष्ठी कर रहे थे। हम युवा कवियों का काव्य-पाठ समाप्त हुआ तो बाबा उठे, वह तन्मय होकर अपनी काव्य-पंक्तियाँ गाने लगे। समय पर किसी का ध्यान न था, सभी मंत्र-मुग्ध थे। एक घंटे का वक्त कब बीत गया, पता ही न चला, अचानक सायरन बजती बी.एस.ऍफ़। की गाडियां चौक पर आ पहुंचीं। देखते-देखते भीड़ गलियों में गुम हो गई। हम युवा साथी भी भागकर सिटी स्वीट हाउस में जा छिपे; लेकिन वृद्ध बाबा बी.एस.ऍफ़ के हत्थे चढ़ गए। हम सबों ने होटल के दरवाजों से झाँककर देखा--जवानों ने बाबा को पकड़ लिया था, उनमें कुछ बातें हुईं, फिर अचानक बाबा ने विचित्र मुद्रा बनाई और चुटकियाँ बजा-बजाकर नृत्य करने लगे। हमने देखा, जवान बाबा को दुत्कार रहे हैं। बाबा ठुमकते हुए धीरे-धीरे हमारे पास आ पहुंचे। हमने शीघ्रता से दरवाज़ा खोलकर उन्हें अन्दर खींच लिया। नायक के आते ही हमारी टोली होटल की कुर्सियों पर फिर से जम गई। हमारी जिज्ञासा पर बाबा ने बताया--''आज तो बांकीपुर जेल की खिचडी खानी पड़ती, लेकिन मैंने भी चालाकी से काम लिया, बी.एस.ऍफ़. वालों ने मेरा नाम पूछा, तो 'बैजनाथ मिसिर, बैजनाथ मिसिर' कहते हुए मैं चुटकियाँ बजाने और नाचने लगा। एक जवान ने कहा--'लगता है, पागल है', दूसरे ने कहा--'जाने दो'। कभी-कभी लादिमाग हो जाना कितना सुखकर होता है ! देखो, मैं उनकी पकड़ से छूटकर नाचता-ठुमकता तुमलोगों के पास आ पहुँचा !'' बाबा की बात सुनकर हम सभी हंस पड़े थे।
लेकिन, बाबा का बचा रहना बहुत दिनों तक हो न सका, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वह अपनी कविताओं, आग उगलते व्याख्यानों और चुटकियाँ लेती, फब्तियां कसती क्षणिकाओं के कारन 'हिट-लिस्ट' में थे। उनकी क्षणिकाएं शूल की तरह चुभनेवाली थीं--
'माई ! तुम तो काले धन की बैसाखी पर टिकी हुई हो...'
और-- 'गुर्राती बैठी है वह टीले पर बाघिन,
चबा चुकी है ताज़ा नर-शिशुओं को गिन-गिन।
गुर्राती बैठी है...'
बाबा जेल चले गए तो हम युवा साथियों की शक्ति क्षीण हो गई, फिर भी हम अपनी शक्ति भर आन्दोलन की गति को तीव्रतर बनने में लगे रहे। सन ७४ के अंत में स्नातक अन्तिम वर्ष की परीक्षा देकर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला गया।
[क्रमशः]
10 टिप्पणियां:
बाबा नागार्जुन के बारे में पढकर अच्छा लगा. आभार.
आज किशोर जी के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी से यहाँ चला आया. मैं ये एक तरह से अभिभूत होकर लिख रहा हूँ कि जिस मरू भू भाग की आपकी यात्रा ने बरसों बरस आपके अंतस में अपना नैरन्तर्य बनाए रखा वो मेरी भी जनम-भोम है.किशोर जी के ही शब्दों में कहूँ तो ठीक वहीं से १०० किलो मीटर और दक्षिण-पश्चिम में.
आपका ब्लॉग पर चित्र बाबा नागार्जुन की ही याद दिला देता है. मैं, बाबा का स्पर्श- वंचित मैं, उनकी उपस्थिति यहाँ और इस पोस्ट के ज़रिये महसूस कर पा रहा हूँ,सौभाग्य मेरा.
मैंने कहीं पढा है कि बाबा आम के बड़े शौकीन थे और मैथिल ब्राहमणों की तरह सिर्फ स्वाद से ही सौ से ज़्यादा आमों की पहचान कर लेते थे. खैर,इस क्रमशः पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी.
आनंद जी ,
आप तो सौभाग्यशाली हैं जिन्हें बाबा की संगत का सौभाग्य मिला ...नागार्जुन जी के बारे पढ़कर अच्छा लगा ...उनकी एक कविता मेरी जुबान पर हमेशा रहती है ......' बहुत दिनों तक चूल्हा रोया , चक्की रही उदास , बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई मेरे पास ....'
आनन्द वर्धन ओझा जी।
वैद्यनाथ मिश्र उर्फ़ नागार्जुन!
के बारे में आपके संस्मरण को पढ़कर
अच्छा लगा।
मुझे भी बाबा का सानिध्य मिला है।
उनकी मेजबानी का अवसर भी मुझे
भरपूर मिला है।
बहुत बढ़िया संस्मरण। बाबा तो अद्भुत थे, उनकी हर बात में निरालापन था। जयपुर, हरिद्वार में कुछ पल उनके साथ बिताने का सौभाग्य हमें भी मिला ...
मेरी आँखें संस्मरण पढ रहीं हैं और कानों में आपकी आवाज़ सुनाई दे रही है...... बाबा के साथ हमारी पटना से दिल्ली की यात्रा याद है न? आपके कारण मुझे भी बाबा के साथ का सौभाग्य मिला है.
हरकीरतजी, अकाल की विभीषिका फिर पूरे देश के सम्मुख है, बाबा की यह कविता-पंक्ति बहुतों के मन में फिर गूंजेगी--'बहुत दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास...'
शास्त्रीजी, बाबा के व्यक्तित्व का सम्मोहन वे सभी जानते हैं, जो उनके संपर्क में आये हैं. हम-आप और अजितजी, वंदनाजी बडभागी हैं, सच में...
अजितजी, आपकी लम्बी चुप्पी से मन परेशान था. आपको अपने ब्लॉग पर देखकर प्रसन्न हुआ. लम्बा विराम न किया कीजिये प्रभु ! बाबा की निकटता से आपने अवश्य उनके चुम्बकीय और अद्भुत व्यक्तित्व को देखा-जाना होगा.
वंदनाजी, आप तो जानती हैं, मेरी स्मृति में नागा बाबा के इतने चित्र है कि मैं स्वयं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि क्या-क्या लिखूं, क्या छोड़ दूँ ? बाबा और आपके साथ दिल्ली की यात्रा भला कैसे भूल सकता हूँ ?
मैं आप सबों का आभार मानता हूँ कि बाबा की जो स्मृतियाँ मैंने मन में संजो राखी थीं, उन्हें आप सबों ने मेरे साथ शेयर किया. आ.
मैंने अपनी शामें गिरवी रखी हुई हैं
आपकी तरह अपनी शर्तों पर जीने का साहस अभी नहीं मिल पाया है. आज आपकी टिप्पणी ने मुझे जगा दिया है और वंदना जी का आभार करने को जी चाह रहा है कि उन्होंने आप जैसे व्यक्तित्व से मिलवाया . बाबा नागार्जुन तो मेरे लिए इतिहास पुरुष ही थे, आज आपको पढ़ते हुए महसूस होता है वे मेरे सामने ही खड़े हों जैसे. अभी पढ़ना आरम्भ किया है और मैं खुद को अब कैसे रोकूंगा ?
आ. आनन्दवर्धन जी,
क्षमा चाहता हूँ कि वर्तमान की व्यवस्था का शिकार हो समयचक्र में कुछ उलझा हुआ था।
बाबा नागार्जुन का होना हमारे समय की एक बड़ी घटना है हमारा उनके समय में जन्म लेना या उन्हें देख पाना कुछ पूर्व जन्म की पुण्याई।
पूरे आलेख को बार-बार पढ़्ना है जब तक कि बैजनाथ मिसिर की देह गंध मह्सूस ना हो या दिमाग में आग ना भर जाये।
यह हो सकता है कि मैं अपने विचार व्यक्त करने में सबसे पीछे रह सकता हूँ, पर मेरी कोशिश रहती है कि रचना के साथ बहूं और अपने आपको रचनाधर्मी के साथ महसूस कर डूब जाऊं।
आपका स्नेहाकांक्षी,
मुकेश कुमार तिवारी
तिवारीजी,
आश्वस्त हुआ ! विलंब से ही सही, आपके नीर-क्षीर विवेचन की मुझे प्रतीक्षा रहेगी समादरणीय बन्धु !
सप्रीत...
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