[बात नयी नहीं, तो बहुत पुरानी भी नहीं है। मेरे पुण्यश्लोक पिताश्री पं० प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' जी का एक महाकाव्य था-- 'वृन्दावन'। सन १९५०-५१ में उसकी पाण्डुलिपि गीता प्रेस, गोरखपुर के स्व० हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को उनके मांगने पर भेजी गई थी। अपरिहार्य कारणों से उसका प्रकाशन लंबित होता रहा और एक दिन ज्ञात हुआ कि पाण्डुलिपि प्रेस में ही कहीं खो गई। पिताजी को इसका क्लेश जीवन भर रहा; क्योंकि उसकी जो दूसरी प्रति घर पर थी, वह दीमकों का ग्रास बन चुकी थी। पिताजी दो-तीन वर्षों तक पाण्डुलिपि के लिए गीता प्रेस से पत्राचार करते रहे, लेकिन पोद्दारजी की मृत्यु के बाद यह प्रयास भी शिथिल पड़ता गया... पाण्डुलिपि को मिलना न था, वह नहीं मिली।... बहरहाल, यह अवांतर कथा है...
आज कृष्ण जन्माष्टमी है। आज के दिन सुबह से ही पिताजी उतफ़ुल्ल नज़र आते थे और 'वृन्दावन' काव्य की रास-लीला की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगते थे। बहुत छुटपन से सुनता रहा हूँ ये पंक्तियाँ। आज भी ये पंक्तियाँ अन्तर मन में गूँज रही हैं... सुन पा रहा हूँ उनकी आवाज़ .... सोचता हूँ, क्यों न अपने ब्लोगेर मित्रों के साथ बांटूं ये पंक्तियाँ ! इसी ख़याल से 'रास लीला' के कुछ छंद ब्लॉग पर रख रहा हूँ। ये भी इसलिए बच गईं क्योंकि पटना की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं--]
रास-लीला
शांत आकाश है, शांत वातास है, इंदु-कर भूमि पर शान्ति जड़-सा रहा।
आज यमुना किनारे खड़े कृष्ण के, चित्त में रास-रस है उमड़-सा रहा॥
ईश की कामना से बना विश्व यह, आज रह-रह बुलाता उन्हें पास है।
धर अधर पर मुरलिका मधुर श्याम ने, इसलिए ही बजाई अनायास है॥
गोपियाँ लग्न थीं गेह के नेह में, वेणु का स्वर सुना भ्रांत-सी हो गईं।
कृष्ण के प्रेम को क्षेमकर जानकर, देह-मन खो, मगन हो, विजन को गईं॥
वेणु की तान में गान जो प्राण का, चित्त को खींचकर वह बुला-सा रहा।
अमित आनंद-संदोह के पालने, ब्रह्म ज्यों जीव को है झुला-सा रहा॥
यह घड़ी है बड़ी भाग्यशाली की जो, श्याम ने आप ही है पुकारा हमें।
कर कृपा-कोर चितचोर ने चाव से, आज ही तो प्रथम है निहारा हमें॥
व्यर्थ असमर्थता का न कुछ अर्थ है, त्याग कर दर्प अर्पण स्वयं को करें।
आज आत्मा मिले तत्त्व परमात्म से, हम अमरलोक का रस रसा में भरें॥
सोच कर इस तरह रह सकीं थिर न फिर, श्याम की लालसा से मचलने लगीं।
तोड़ बंधन सभी, मोड़ मुंह मोह से, गोपियाँ घर-नगर से निकलने लगीं॥
धेनु पय-भार से रान्भती रह गई, बह गई छाछ फिर दूर गिर पात्र से।
सुधि बिसर कर, सिहर कर किधर जा रहीं, वसन-भूषण गिरे स्रस्त हो गात्र से॥
कंठलग्ना स्वपति की नवोढा निकल, चल पड़ी हो विकल तिलमिलाती हुई।
स्तन्य छूटा सरल शिशु मचलता रहा, माँ चली मोद में गीत गाती हुई॥
जो सती थी, व्रती, मतिमती, कान्त की चरण-आराधना छोड़ वह चल पड़ी।
घर संजोती, बिलोती हुई दूध जो, काज से आज मुंह मोड़ वह चल पड़ी॥
मोद में मग्न होकर कहीं गोपियाँ, ताल से स्वर मिला, गीत गाने लगीं।
कंठ के नीड़ से मीड़-खग को सुभग, मूर्छना-ग्राम-संयुत उडाने लगीं॥
गोपियों का परम भाग्य थीं हेरतीं, स्वर्ग में मुग्ध देवांगनाएँ खडीं।
सोचतीं, क्यों न ब्रज में मिला जन्म जो, कृष्ण का संग पातीं सहज दो घड़ी॥
यों महारास रस है बरस-सा रहा, है सरस यह रसा डोलती लोल-सी।
आज की चांदनी से छनी यामिनी, है मही पर रही मत्तता घोल-सी॥
नाचते गोपियों संग माधव मुदित, नाचती सृष्टि सारी निहारी गई।
सोम-रवि के सहित, स्वर्ग की छवि अमित, आज यमुना किनारे उतारी गई॥
नाचने-सी लगी यह रसा रास में, अब्धि में दूर तक पूर आने लगा।
स्वर्ग में यक्ष-गन्धर्व-किन्नर-निकर, मत्त हो नाचने और गाने लगा॥
नाचने लग गए ग्रह-उपग्रह सभी, रह सके जड़ न जड़, आज चेतन बने।
दूर कर देह का दाह देही रहा, विजित जग में सजग मीन-केतन बना॥
13 टिप्पणियां:
=--..__..-=-._.
!=--..__..-=-._;
!=- -..@..-=-._;
!=--..__..-=-._;
!
!
!
!
!
!
HAPPY INDEPENDENCE DAY
..
Jai Hind, Jai Bharat.
क्या खूब लिखा हें आनन्द वर्द्धन जी पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया
रास-लीला के कुछ छंद---- 'मुक्त'
पिताश्री की इतनी अच्छी रचना से अवगत करा कर आपने दिल जीत लिया, यदि और भी रचनायें हैं तो हमें पढने का अवसर दें.
बधाई एवं हार्दिक आभार.
व्यर्थ असमर्थता का न कुछ अर्थ है, त्याग कर दर्प अर्पण स्वयं को करें।
आज आत्मा मिले तत्त्व परमात्म से, हम अमरलोक का रस रसा में भरें॥ati uttam .jai hind ,hare rama hare krishna .yah bharat hai jahan utsaah aur umang ki kami nahi .rango ki seema nahi .
waah .........is raas rang mein hi to doobna chahta hai har koi..........krishna ki gopi ban jana chahta hai har koi......aisi aur bhi rachnayein agar aapko pata ho to padhwaiyega.......besabri se intzaar rahega.
इस कारे कान्हा ने ऐसा मोहा है दिन प्रति दिन इसका मोह बढ़ता ही जाता है
बहुत सुन्दर रासलीला के मुक्तक है \
आभार
Itni sunder panktiyan padhvane ke liye shukriya.....
बेहतरीन प्रस्तुति के बहाने पिताजी को स्मरण करने के लिये साधुवाद स्वीकारें .....
कितनी मेहनत से लिखीं गयी होगी ये कविता | आश्चर्य होता है |
खो जाना दुखद है |
आदरणीय ओझा जी |एक ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी पढ़ कर आपके ब्लॉग पर आया अत्यंत दुखद लगा की आदरणीय पूज्य पिताश्री की वर्षों की महनत बेकार चली गई |जहाँ तक मेरा अनुभव है पिता श्री जब उन रचनाओं को पढ़ते होंगे -पाठ करते होंगे अपने मित्रों को सुनते होंगे तो आप को भी कई दोहे छंद ,कवित्त याद रह गए होंगे उन्हें ही याद कर कर के हम तक पहुचाईयेगा ,आभारी रहेंगे |वैसे तो जो रस लीला आपने प्रस्तुत की है कठिन नहीं है किन्तु अर्थ सहित लिखते तो उसका आनंद ही कुछ और होता क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने हिसाब से अर्थ करता है और लेखक का मंतव्य बदल जाता है आकाश शांत ,हवा शांत ,चन्द्र शान्ति बिखेर रहा है इसे ही आप अपनी भाषा में तो मधुरता और ही हो जाती | मधुराष्टकं की तरह हर चीज़ मधुर |आगे जैसे आपकी इच्छा |आप शायद यह भी सोचें की ऐसे तो ब्लॉग बहुत बड़ा हो जायेगा लोग इतना पढ़ पाएंगे या नहीं \
बाबूजी की रचना पर टिप्पणी करने का साहस कैसे कर सकती हूं मैं?
पूनमजी, आभारी हूँ.
योगेन्द्रजी, पिताजी सांसों की लय पर रहते हैं, उन्हें स्मरण करने के लिए किसी बहाने की ज़रुरत नहीं है... अन्यथा न लेंगे. हाँ, यह सच है कि जन्माष्टमी के दिन रास-लीला के छंदों के साथ उनका स्वर भी अंतर में गूंजने लगता है. आभारी हूँ!
अर्जकेशजी, पिताजी के छंद आपको प्रीतिकर लगे, जान कर प्रसन्न हुआ.
बृजमोहनजी, मेरी एक टिपण्णी के सूत्र पकड़कर आप मेरे ब्लॉग पर आये, आभारी हूँ. आपकी सलाह दिमाग में रहेगी...सप्रीत...
वंदनाजी,
आपका आभार भी क्या मानूं ? आश्वस्त हूँ, आप अन्यथा भी न लेंगी...
रास-लीला के कुछ छंद पढ़कर मन नाचने लगा है । अप्रतिम विभूति की लेखनी से निःसृत प्राणमय छन्द हैं यह !
मैं मुग्ध पढ़ रहा हूँ बस ...
एक टिप्पणी भेजें