सोमवार, 31 मई 2010

परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी :'रेणु'

[समापन किस्त]

स्कूल-कालेज तो आन्दोलन की आंधी में बंद पड़े थे, स्नातक अंतिम वर्ष की मेरी परीक्षा भी डेढ़ वर्ष बाद हुई थी। हम युवा साथियों के पास पर्याप्त समय था। हम पटना सिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय और पटना की सिन्हा लाइब्रेरी के चक्कर काटते, किताबें लेते और खूब पढ़ते। उन्हीं दिनों रेणुजी के कथा-संसार का मैंने परिभ्रमण किया था। उनकी कहानियों और उपन्यासों ने मुझे बाँध लिया था। परती पर परिकथा लिखने की क्षमता और पात्रता तो बस रेणुजी की ही थी। उनका उपन्यास 'परती परिकथा' पढ़कर मैं अभिभूत हुआ था। उनकी कहानियों में मिटटी की सोंधी महक थी, जो मन-प्राण पर छा जाती थी। उनकी कथा-यात्रा अनेक पडावों को पार करती, गाँव की गलियों से राजपथ और महानगरों तक पहुंची थी। उन्होंने पर्याप्त यश अर्जित किया था, प्रतिष्ठा पायी थी, किन्तु पद-प्रभाव को हमेशा अपने से दूर धकेलते रहे थे। विशिष्ट होकर भी वह सामान्य बने रहना पसंद करते थे। जाने किस चिकनी मिटटी का बना था वह शब्दों का शिल्पी कि अपनी चमक पर और कोई रंग चढ़ने ही न देता था। रेणुजी अनूठे रचनाकार तो थे ही, विलक्षण तत्त्वदर्शी भी थे। भावों-मनोभावों की गहरी पहचान थी उन्हें !
सन १९७४ में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया था। ७५ अगस्त में अपनी पहली नौकरी पर मैं स्वदेशी कॉटन मिल्स, कानपुर चला गया। रेणुजी से फिर मिलना नहीं हुआ। नागार्जुनजी तो यदाकदा दिल्ली आ जाते थे और पिताजी से मिलने घर पधारते थे, लेकिन रेणुजी स्वस्थ्य कारणों से पटना की सीमा में ही बद्ध हो गए थे। उनके अंतिम दिन कष्ट और कठिनाइयों में बीते। कुछ समय बाद समाचार-पत्रों से और पिताजी के पास आनेवाली डाक से हमें पता चला था कि रेणुजी गंभीर व्याधियों से ग्रस्त होकर पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती किये गए हैं । मैं अपनी नौकरी से बंधा था, मन मसोस कर रह गया । सन १९७६ के अंत में कानपुर से स्थानांतरित होकर मैं पुनः पिताजी के पास दिल्ली चला आया। रेणुजी ने इस बीच कई बार घर-अस्पताल की यात्रा की। उनका स्वस्थ्य दिनों-दिन गिरता जा रहा था।
सन १९७७ के प्रारंभिक दिनों में कभी अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा था--"रेणुजी की हालत अच्छी नहीं है। सोचता हूँ, पटना जाकर उनसे मिल आऊं। आप भी चार-पांच दिनों का वक़्त निकालें, तो आपके साथ चलना मुझे अच्छा लगेगा।" लेकिन पिताजी कार्यालयीय व्यस्तता के कारण पटना नहीं जा सके। अज्ञेयजी अकेले ही गए और रेणुजी से अस्पताल में मिलकर दिल्ली लौट आये। उन्होंने पटना से लौटकर पिताजी को बताया था कि 'रेणुजी के जीवन की अब बहुत आशा नहीं करनी चाहिए। व्याधियों ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे उनका उबर पाना मुश्किल लगता है।' अज्ञेयजी की आशंका निर्मूल नहीं थी। थोड़ा ही समय बीता था कि अप्रैल १९७७ में हमें रेणुजी के महाप्रस्थान का दु:संवाद मिला। हम सभी शोक-विह्वल थे और अपनी-अपनी स्मृतियों में उन्हें निहार रहे थे।
अब तो लंबा अरसा गुजर गया है, लेकिन स्मृति-शेष हुए रेणुजी की जब भी याद आती है, अथवा मैं राजेंद्र नगर के गोलंबर से गुजरता हूँ, तो वृत्ताकार बने उन भवनों के चतुर्थांश की नींव मुझे दीख जाती है और नींव से निकली मिटटी-रेत पर रेणुजी की 'परती परिकथा' साकार रूप लेती नज़र आती है। 'परती परिकथा' की कथा-भूमि तो अन्यत्र है, किन्तु उस कथा का अनूठा रचनाकार मेरे बाल-मन में संजोई हुई नींव में आज भी कहीं बिखरा पडा लगता है मुझे.... ।

8 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

क्या कहूं? बस पढ के महसूस करते रहने वाला संस्मरण. हम जैसों के लिये अनमोल धरोहर भी.

अपूर्व ने कहा…

माणिक्य-माला जैसी अमूल्य और संग्रहणीय है आपकी यह संस्मरण-श्रंखला..और क्या कहूँ..बस संयोग की बात है कि पिछले सप्ताह ही रेणु जी को पढ़ रहा था..उनके आंचलिक उपन्यास ’जुलूस’ मे...और दिमाग मे चित्र बनते-बिगड़ते रहे..’मैला आंचल’ मेरे साहित्यिक झुकाव के पहले पड़ावों मे से एक था..ऐसा कि अगर ईश्वर मुझे अपनी पढ़ी सारी किताबों मे से पाँच चुनने को कहे..तो उसे पहले चुनूँगा..रेणु जी मुझे प्रेमचंद के बाद दूसरे सबसे उल्लेखनीय हिंदी उपन्यासकार लगते हैं.. ऐसे दुर्लभ रचनाकार का सानिध्य मिल पाना भी प्रभु-कृपा ही है..और हम तो ऐसे संस्मरण पढ़ कर ही खुद को सौभाग्यशाली मानते हैं..आपकी श्रंखला की पहली पोस्ट वाला चित्र भी सहेज लिया है..

स्वाति ने कहा…

अनमोल संस्मरण.

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

जाने किस चिकनी मिटटी का बना था वह शब्दों का शिल्पी कि अपनी चमक पर और कोई रंग चढ़ने ही न देता था। रेणुजी अनूठे रचनाकार तो थे ही, विलक्षण तत्त्वदर्शी भी थे। भावों-मनोभावों की गहरी पहचान थी उन्हें

ऐसा चरित्र चित्रण जो हमें इस बात का अनुभव करवाए कि हम उस चरित्र के साथ हैं ,ये आप की ही कला है,
बहुत ज्ञानवर्धक संस्मरण ,
आप ख़ुश नसीब हैं कि ऐसे लोगों का साथ मिला आप को ,आप की लेखनी में उस सानिध्य का प्रभाव झलकता है,
बहुत मज़ा आया पढ़कर
रेणु जी की अंतिम समय की पीड़ा ने अवश्य दुख दिया

के सी ने कहा…

आपके संस्मरण शिल्प भाषा और कथ्य के स्तर पर अद्भुत हैं.
आपको पहले भी कई अनुरोध मिले होंगे और मेरा एक अनुरोध फिर से स्वीकारें कि इन्हें एक पुस्तक की शक्ल मिलनी चाहिए.
जिन्होंने युगों को बदलते हुए देखा उनकी आँख से ऐसे ही मूर्धन्य साहित्यकारों के बारे में पढ़ना हृदयस्पर्शी रोमांचक अनुभव होगा हर पाठक के लिए.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

'परती परिकथा' मैंने नहीं पढ़ा ....मैंने तो यह जानकर ही गर्व महसूस हो रहा है की हमारे ब्लोगर मित्र रेनू जी जैसे महान साहित्यकार क करीब रह चुके हैं ....

आपके परिवार में शायद सभी साहित्य प्रेमी हैं ...आपके पिताजी भी लिखते थे ....?
कभी उनका लिखा भी कुछ पोस्ट करें .....!!

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी, स्वातिजी,
आपकी टिप्पणी से उपकृत हुआ ! आभारी हूँ !

इस्मत,
तुम्हारा शुक्रिया ! तुमने मेरी इल्तजा सुनी और इतना लम्बा संस्मरण पढ़ा, अपनी प्रतिक्रया लिख भेजी !

अपूर्वजी,
आपने सत्य लिखा है ! 'मैला आँचल' रेणुजी के औपन्यासिक वृक्ष का सर्वाधिक सुकोमल और सुगन्धियुक्त पुष्प है ! ऐसा मैं भी मानता हूँ, किन्तु परती पर जो परिकथा है, वह भी अनूठी है ! है न ? आभार !!

किशोरजी, सुभेच्छाओं का शुक्रिया ! संस्मरणों को पुस्तकाकार छपवाने आग्रह पहले भी मिला है ! १२-१५ संस्मरण एकत्रित हो जाएँ, तो उन्हें पुस्तक की शक्ल में ढालने की सोचूंगा कभी अवश्य !! अभी तो आप मेरा आभार स्वीकारें !!

हीरजी,
मेरे पूज्य पिताजी अज्ञेय, बच्चन और दिनकर युग के प्रसिद्द साहित्यकार थे ! हिंदी संसार उन्हें 'मुक्तजी' नाम से जानता है ! लिखना उनकी जीविका भी थी और जीवनव्यापी साधना भी ! साथ ही पढ़ना ही उनका एकमात्र मनोरंजन था. ये संस्मरण जिन्हें मैं लिख रहा हूँ--यह सब उन्हीं के सान्निध्य का अतिरिक्त लाभ है ! अगर आप मेरे ब्लॉग के पिछले पृष्ठों पर जाएँ, तो पिताजी की कुछ रचनाएँ आपको अवश्य पढने को मिल जायेंगी ! प्रेमचंदजी पर लिखा उनका संस्मरण 'कहानी की शक्ति' तो पठनीय है ! मेरा विश्वास है, उसे पढ़कर आपको निश्चय ही आत्मतोष होगा ! आभारी हूँ !
साभिवादन--आ.

Sangya Ojha ने कहा…

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