सोमवार, 31 मई 2010

परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी : 'रेणु'


[तीसरी कड़ी]

किशोरावस्था की दहलीज़ पर कर जब मैं युवा हुआ और महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ तो दो वर्षों के बाद ही बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियां करती चलती थी। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस यां कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीँ आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुंजी पूरे मनोयोग से कवितायें सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवी-गोष्ठियों में पढ़ी जाती। मेरी एक कविता सुनकर रेणुजी ने खूब चुटकी ली थी। उस कविता का कुछ अंश ऐसा था --

"सचमुच, आम के मंजर में
वह खुशबू भी नहीं है,
उन्नीस वर्षीया वह,
जो मेरे दरवाज़े के कुएं से
रोज़ पानी भरने आया करती थी;
सुना है, रात उसका बापू
अधमरा घर लौटा है,
उसके शरीर पर नीले निशान हैं,
कमर में बूटों से कुचले जाने की मचक है,
लेकिन, मैं सिगरेट के धुंए को
आँखों से हटाकर
किसी की तलाश कर रहा हूँ,
मेरी चुहलबाजियों पर
किसी ने कर्फ्यू का ताला लगा दिया है... ।"

पूरी कविता सुनकर रेणुजी ने कहा था--"जहाँ न्याय की आवाज़ को बेरहमी से कुचला जा रहा हो, वहाँ तुम्हें अपनी चुहलबाजियों की फिक्र है !" आपसी विमर्श के बाद उन्होंने पुनः कहा था--"कविता के बिम्ब-प्रतीक अच्छे हैं और सबसे बड़ी बात यह कि आन्दोलन के इस संघर्ष-काल का एक भयावह चित्र तो कविता श्रोताओं के सामने रखती ही है। सच है, इस शासन की बर्बरता ने युवा-मन की चुहलबाजियों पर भी कर्फ्यू का ताला तो लगा ही दिया है।".... इतना कहकर वह हंस पड़े थे और मैं संकुचित हो उठा था। याद आता है कि चुहल की बात पर नागार्जुनजी ने भी चुटकी ली थी।

मैं और मेरे मित्र धूमपान की आदत के कारण रेणुजी से नज़रें बचाकर बैठते थे। हमारा यह लिहाज़ और सहज संकोच कॉफ़ी हाउस में हमारे लिए संकट का कारण बना रहता था। नागार्जुन जी से मिली छूट का लाभ उठाते हुए हम सभी उनसे बेतकल्लुफ हो गए थे, किन्तु रेणुजी की तेजस्विता और प्रभा-मंडल के सम्मुख हम स्वतन्त्रता लेने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे। उन्होंने इस स्थिति को भांप लिया और एक दिन हम सबों से कहा--"नागार्जुनजी तो मेरे भी बुजुर्ग हैं, जब आप उनके सामने स्मोक कर सकते हैं, तो मेरा लिहाज़ क्यों ? मैंने तो स्वयं यह व्यसन पाल रखा है।" रेणुजी की सहजता और सरलता के प्रति कृतज्ञ होते हुए भी हम उनके खुले आमंत्रण का लाभ उठाने की हिम्मत कभी न जुटा सके। मेरे सामने तो बाल्य-काल के दृश्य उठ खड़े होते थे, जब पिताजी के लिहाज़ में रेणुजी अपनी सिगरेट बुझाने को व्यग्र-आतुर हो उठते थे--यह स्मरण भी मुझ पर अंकुश रखता था।
[अगली कड़ी में समापन]
(मेरे विवाह के बाद 'वधू-स्वागत' में आये महाकवि नागार्जुन, १८-११-१९७८ का चित्र)

4 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सुंदर संस्मरण.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

आपकी कविता तो बहुत सुन्दर है, और उस पर रेणु जी की चुटकी भी. तीनों अंक आपने ज़रा जल्दी पोस्ट नहीं कर दिये? ये ऐसी सामग्री है, जिसे अधिसंख्य लोगों तक पहुंचना चाहिये....

अपूर्व ने कहा…

क्या कहूँ..अभी तो बस अगली कड़ी का इंतजार है..

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

लेकिन, मैं सिगरेट के धुंए को
आँखों से हटाकर
किसी की तलाश कर रहा हूँ,
मेरी चुहलबाजियों पर
किसी ने कर्फ्यू का ताला लगा दिया है... ।"

ओह....अद्भुत ....!!

कितना गहरा लिखते थे उस समय भी आप ....!!