गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

यादों के आइने में डॉ- कुमार विमल...


[गतांक से आगे...]
इसी तरह दिन बीते और बीतते गए, लेकिन कुछ समय बाद ही विमलजी से मिलने का सुयोग बना। 'पौराणिक कोश' के रचयिता मेरे मामाजी पुण्यश्लोक पंडित राणाप्रसाद शर्मा की पुण्य-तिथि पर एक समिति ने श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन किया थाआयोजक मेरे पास आये और बोले--"हम चाहते हैं, विमलजी की अध्यक्षता में यह सभा संपन्न होवह आपके गुरुदेव हैंआप उनसे आग्रह करेंगे तो वह आपकी बात उठा सकेंगे। " इस चर्चा के बाद मैं आयोजकों के साथ पूर्वानुमति लेकर समय से विमलजी के पास पहुंचामुझे देखकर विमलजी प्रसन्न हुएनमस्कारोपरांत आयोजकों ने अपनी बात रखी, मैं चुप ही रहाआयोजकों का निवेदन सुनकर विमलजी ने दीन भाव से मेरी ओर देखा और कहा--"आप ही इन्हें समझाइये, मेरे पास अवकाश कहाँ है ? फिर आयोजन पटना में नहीं, पटनासिटी में हैमुझे औषधियां लेनी होती हैं और भी सौ झमेले हैंमुझे क्षमा कीजिएगा, यह हो सकेगा।" मैंने विनम्रता से कहा--"गुरुदेव! जिनकी स्मृति में यह आयोजन है, वह मेरे मामाजी थेउनके सुपुत्र भी साथ आये हैं,' मैंने अपने ममेरे भाई श्रीअभयशंकर पराशर की ओर इशारा करते हुए बात जारी रखी, 'इनकी बड़ी इच्छा है कि आप कार्यक्रम में पधारें और उसकी अध्यक्षता करें।" विमलजी दुविधा में पड़े दिखे। अपनी दुविधा का निवारण उन्होंने कुछ इस प्रकार किया--"आनंदजी ! 'पौराणिक कोश' की मदद मैं हमेशा लेता हूँ. इस कृति के रचनाकार के स्मृति-तर्पण-समारोह में उपस्थित होकर मुझे भी प्रसन्नता होती, लेकिन सच मानिए, अनेक कठिनाइयां हैं। अभी मैं निश्चित रूप से कुछ कह नहीं सकता । आपलोगों का इतना आग्रह है, तो मैं समारोह में सम्मिलित होने की चेष्टा अवश्य करूंगा; लेकिन अभी इसका वादा नहीं कर सकता।" विमलजी के इस आदेश के बाद कहने को कुछ बचा नहीं था, लेकिन आशा की एक क्षीण किरण साथ लेकर हम सभी लौटे।
उस आयोजन के ठीक दो दिन पहले विमलजी ने फ़ोन पर आयोजकों को सूचित किया कि 'स्वास्थ्य कारणों से वह समारोह में आ न सकेंगे। समारोह के दिन अमुक समय पर आनंदजी को मेरे घर पर भेज दें। मैं अपनी श्रद्धांजलि एक शोक-पत्र के रूप में लिख रहा हूँ, उसे आनंदजी समारोह में पढ़कर सुना दें, तो ठीक रहेगा और इसी रूप में मेरी उपस्थिति भी दर्ज हो जायेगी।' गुरुदेव के आदेश का पालन तो करना ही था। मैं निश्चित समय पर उनके घर पहुंचा। उन्होंने शोक-सन्देश मुझे देकर कहा--"इसे एक बार मुझे पढ़कर सुना दीजिये।" मैंने आदेश का पालन किया। उसमें उन्होंने एक शब्द का प्रयोग किया था--'अनुसंधित्सा।' इस शब्द पर मेरी जिह्वा लड़खड़ाई। गुरुदेव ने उस शब्द का दो बार उच्चारण करके मुझसे कहा--"इसे समारोह में भी इसी तरह उच्चरित कीजिएगा।"
मैंने सभा-मंच से उनका शोक-सन्देश श्रद्धांजलि-स्वरूप पढ़कर सुनाया, लेकिन संभवतः अति सतर्कता के करण जब वह शब्द सम्मुख आया, जिह्वा ने फिर साथ न दिया। दूसरी आवृत्ति में मैं शब्द का वैसा ही उच्चारण कर सका, जैसा विमलजी ने बताया था।
विद्वत-समाज में विमलजी की व्यस्तता प्रसिद्धि पा चुकी थी। दबी ज़बान में लोग यह भी कहने लगे थे कि 'ऐसी भी क्या व्यस्तता ? उन्होंने तो व्यस्तता ओढ़ रखी है और एकांगी रहने के अभ्यासी हो गए हैं। उनकी दौड़ घर से दफ्तर और दफ्तर से घर के बीच सिमट गई है।'... लेकिन मुझे ठीक ऐसा नहीं लगता। उच्च पदों की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं और वैसी ही व्यस्तता भी। और लिखना-पढ़ना उनका कभी रुका नहीं । मेरा ख़याल है, ५०-५५ के आसपास तो उन्होंने पुस्तकें लिखी होंगी और उसके लिए कितना व्यापक अध्ययन किया होगा ! उनकी कृतियों पर अधिक कुछ कहने का मैं अपने को अधिकारी नहीं समझता, लेकिन इतना जानता हूँ कि 'छायावाद का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन', 'मूल्य और मीमांसा', 'अंगार' और 'सगरमाथ' आदि पुस्तकों ने पर्याप्त प्रसिद्धि पाई थी और विद्वद्जनों .के बीच समादृत हुई थी ।
फिर लंबा वक़्त बीता। विभिन्न पदों पर रहते हुए विमलजी शिखर की ओर बढ़ते गए--वह बिहार इंटरमिडिएट एजुकेशन काउन्सिल तथा बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन, नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति आदि अनेक उच्चाउच्च पदों पर रहे। इन्हीं पदों की व्यस्तता उन्हें बांधे रखती थी और वह चाहकर भी स्वतन्त्रता नहीं ले पाते थे। मुझे याद है, यह सिलसिला लंबा चला था और इस महाजाल से कालांतर में वह ऊबने लगे थे। लेकिन, अवकाश-प्राप्ति के पहले उससे छूटना असंभव था। वह बहुत कुछ और लिखना चाहते थे, जानता हूँ, लिखने-कहने की बातें उनके पास बहुत थीं, लेकिन ऐसा न कर पाने की पीड़ा वह मन के किसी एकांत में परत-दर-परत रखते जाते। एक मुलाक़ात में उन्होंने मुझसे कहा भी था--"आनंदजी, मैं जो लिखना चाहता हूँ, लिख सकता हूँ और जो सिर्फ मैं ही लिख सकता हूँ, उसके लिए मेरे पास अवकाश ही नहीं है। मित्र-बन्धु तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि मोटी-मोटी सरकारी फाइलों ने मेरी साहित्यिक ऊर्जा ही समाप्त कर दी है। उनकी यह पीड़ा अंत तक बनी रही । ...
[शेष अगले अंक में]

1 टिप्पणी:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

आप को पढ़ने का आनंद ही अलग है कई नए शब्द सीखने को मिलते हैं अत्यंत मन से लिखा गया ये संस्मरण ,अपने गुरु के प्रति आप की श्रद्धा की पुष्टि करता है
अगले अंक का इंतेज़ार है