[चौथी किस्त]
फिर तो बिहार क्या, दिल्ली में भी तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था. दिनकरजी की प्रसिद्ध पंक्ति 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' और नागार्जुन जी की काव्य-पंक्ति 'इंदुजी-इंदुजी क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?' पूरे बिहार में गूंजने लगी थी. पटना के गाँधी मैदान के दक्षिणी गोलंबर पर (जहां आज जयप्रकाशजी की आदमकद मूर्ति स्थापित है) जब जयप्रकाशजी के सिर पर लाठी का प्रहार हुआ, तो पूरा देश खौल उठा था. तब नागार्जुंजी ने एक लम्बी कविता लिखी थी, जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ देखते-देखते लोगों की ज़बान पर थीं--
पोल खुल गई शासक दल के महामंत्र की,
जयप्रकाशजी पर पड़ी लाठियां लोकतंत्र की !
नागार्जुनजी की कई क्षणिकाएं भी आन्दोअलन की आग को हवा देने में सूत्र-वाक्य की तरह प्रयुक्त की जा रही थीं--
माई ! तुम तो काले धन की बैसाखी पर टिकी हुई हो !!
और--
गुर्राती बैठी है वह टीले पर बाघिन !
चबा चुकी है ताज़ा नर-शिशुओं को गिन-गिन,
गुर्राती बैठी है वह टीले पर बाघिन !
उस दौर में समाज के हर तबके के लोग अपनी-अपनी विद्या-बुद्धि, विवेक और सामर्थ्य के साथ आन्दोलन से आ जुड़े थे और उसे शक्ति प्रदान कर रहे थे. साहित्यकारों, कवियों-लेखकों का दल अपने लेखन और विचारों से उसे मजबूती प्रदान कर रहा था. धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता 'मुनादी' उन्हीं दिनों बहुत लोकप्रिय हुई थी और दुष्यंत कुमार की हिंदी ग़ज़ल की पंक्तियाँ तो हर शख्स की ज़बान पर थीं--
एक बूढा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो,
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है !
गांधीवादी युग के उत्तरकाल की अकेली और निष्कंप दीपशिखा थे--'जयप्रकाश नारायण' ! वह तिल-तिल कर जलते और रौशनी बाँटते रहे. दुष्यंत ने ठीक ही कहा था, अन्धकार से भरे उस युग में वह देश को रौशन करनेवाले अकेले रौशनदान की तरह थे.
हमारी टोली भी नागार्जुन और रेणुजी के साथ घूम-घूमकर अलख जागाती थी, जिसमे कभी कवि सत्यनारायण तो कभी गोपीवल्लभ सहाय और अन्य कई-कई लेखक-कवि अपनी रचनाओं के साथ आ जुड़ते थे. मेरी मुक्त छंद की एक कविता भी उन दिनों चर्चा में आयी थी और गोष्ठियों में श्रोता मुझसे वही कविता सुनाने की फ़रमाईश करते थे--
तल्खियों से भरा एक जुलूसचल पडा है !काले झंडे,विरोध के कुछ साईनबोर्डनारेबाजी में झुलसता माहौल;लेकिन एक और सच्चाईयहाँ पर छूट रही हैहर आदमी के हाथ मेंउसी का चेहराकोलतार भरे गुब्बारे-साफैलता जा रहा है,यह एक और मृत्यु की शुरुआत है...
बहरहाल, आन्दोलन का दायरा बढ़ता ही जा रहा था और जब जयप्रकाशजी ने 'दिल्ली चलो' का नारा दिया तथा दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल जनसभा की, उससे पहले ही मैं स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर पिताजी के पास दिल्ली चला आया था. आन्दोलन से मेरा सीधा संपर्क छूट गया था, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों और मित्रों की चिट्ठियों से आन्दोलन की गतिविधियों के समाचार मिलते रहते थे. उसके बाद तो घटनाक्रम जिस तेजी से बदला और आपातकाल लागू हुआ, उससे सारा देश परिचित है. आपातकाल की सख्तियों को देखते हुए इस बात की पूरी संभावना थी कि पिताजी को भी गिरफ्तार कर लिया जाएगा, लेकिन उन्हें गिरफ्तारी की कोई फिक्र नहीं थी. वह महज़ इसलिए चिंतित थे कि उन्हें जेल में पान-तम्बाकू कैसे मिलेगा ! खैर, पिताजी की उज्वल साहित्यिक छवि के कारण और राजनीति से असम्बद्ध रहनेवाले व्यक्ति के रूप में चिन्हित कर उन्हें छोड़ दिया गया. जीवन में पहली और अंतिम बार वह जेल जाने से बच गए और ताम्बूल-सेवन पर कोई संकट न आया. लेकिन उल्लेखनीय यह है कि दिल्ली के गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से रात दो बजे जब जयप्रकाशजी को हिरासत में लिया गया, उस कठिन और आपाधापी से भरे क्षण में भी जे.पी. को पिताजी का स्मरण रहा. उन्होंने श्रीरामनाथ गोयनका से कहा था--"मुक्तजी का ख़याल रखियेगा. वह परदेस में संकट में न पड़ जाएँ !" यह उनकी सदाशयता थी, उनका बड़प्पन था, उनका औदार्य था. वैसे पिताजी को कई महीने बाद निकट मित्र गंगाशरण सिंहजी से इस बात का पता चला था, जो जे.पी. की गिरफ्तारी के वक़्त उनके पास थे. जब पिताजी ने यह बात घर में बतायी थी, तो मैं आश्चर्य से अवाक रह गया था. जिस व्यक्ति पर इतने बड़े आन्दोलन का दायित्व था, जो सर्वशक्तिमान सत्ता को चुनौती दे रहा था, उसके हथकंडों से जूझ रहा था और जिस पर सारे देश की नज़र थी, वह अपने एक समर्पित सम्पादक के कुशल-क्षेम के लिए, ऐसे कठिन समय में भी, चिंता कैसे व्यक्त कर सकता था ! मैं आज भी यह सोचकर चकित-विस्मित होता हूँ. लेकिन सच है, उदात्त भावनाओं से भरे लोकनायक जयप्रकाशजी ऐसे ही महामानव थे.
फिर वक़्त बदला, आपातकाल का अंत हुआ, सत्ता बदली. अपनी रुग्णावस्था के कारण ही जयप्रकाशजी को जेल से मुक्त किया गया. बाहर आकर जो कुछ उन्हें देखना-सहना पड़ा, उससे वह क्षुब्ध ही हुए. उनका जरा-जर्जर शरीर आघात सहता-सहता क्लांत हो चुका था. अंततः उन्हें मुंबई के जसलोक अस्पताल में भर्ती किया गया, जहां वह डाईलिसिस की यंत्रणाएं झेलते-सहते रहे.
[क्रमशः] अँधेरी कोठारी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'
3 टिप्पणियां:
चारों किश्त पढ़ने का आज सैभाग्य मिला। दुर्लभ संस्मरण तैयार हो रहा है। अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी।..आभार।
आपके इस आलेख को पढ़कर अपनी यादें भी ताजा हो गईं। आपात काल के समय हम बच्चे थे। कक्षा आठ में पढ़ रहे थे शायद। गलियों में जब जेपी आंदोलन का जुलूस निकलता तो इन्कलाब जिंदाबाद को तीन क्लास जिंदाबाद चीखते, जुलूस में शरीक हो जाते। समग्र क्रांति अब नारा है, हिंदोंस्तान हमारा है..जैसे कई नारे लगाते। भले से उसका अर्थ नहीं जानते लेकिन एक अजीब सा उन्मादी माहौल था यहाँ बनारस की गलियों में भी उन दिनो।
शास्त्रीजी,
संस्मरण आप पढ़ रहे हैं, मेरे लिए तो यही संतोष का विषय है, यह आपको अच्छा भी लग रहा है, यह अतिरिक्त प्रसन्नता देता है.
सदर--अ. व. ओझा.
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