[27 नवम्बर को बच्चनजी की जयंती पर विशेष रूप से लिखा गया संस्मरण]
बात पुरानी है, शायद 1957-58 की. तब मैं बहुत छोटा था--चार-पाँच वर्ष का अबोध बालक! बहुत चंचल और बातूनी ! मेरे होशो-हवास में बच्चनजी पहली बार मेरे घर (पटना) आनेवाले थे. जाड़े के दिन थे. पिताजी सुबह-सुबह उन्हें लेने पटना रेलवे स्टेशन अपनी बेबी ऑस्टिन गाड़ी से गए थे. मेरा स्वेटर एक दिन पहले ही धो दिया गया था और अब तक वह सूखा न था. मेरी माताजी ने मेरे ममेरे भाई का नया स्वेटर मुझे पहना कर कहा था--"बच्चन जी आयें, तो उनसे यह मत कहना कि यह स्वेटर मन्नू (मेरे हमउम्र ममेरे भाई) का है." मैंने माताजी की हिदायत सुनी और समझ लिया कि ऐसा नहीं कहना है. जब घर के दरवाज़े पर पिताजी की गाड़ी आकर रुकी, मैं बच्चनजी को प्रणाम करने के लिए दौड़ पडा. बच्चनजी ने घर में प्रवेश किया, तो मैंने चरण-स्पर्श करने के बाद उनसे पहला वाक्य कहा--"यह स्वेटर मेरा है, मन्नू का नहीं है." मेरे इस अप्रत्याशित वाक्य का अर्थ-अभिप्राय जानकर बच्चनजी ने जोरदार ठहाका लगाया और देर तक हँसते रहे. उसी दिन मुझे बच्चनजी के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था.
लेकिन, शायद नहीं,... मैं कुछ गलत लिख गया. स्मृति पर बहुत जोर डालता हूँ, तब भी इस मुलाक़ात के पहले कभी बच्चनजी को देखा था, ऐसा याद तो नहीं आता, लेकिन जो चित्र बहुत धुंधला-सा मेरी स्मृति में उभरता है, वह उस नकली बन्दूक और एक बतख का है, जिसमें हवा भर दी जाती थी और वह प्लास्टिक का बतख बन जाता था. बतख से ज्यादा उस बन्दूक ने मुझे आकर्षित किया था, जिसे लम्बे -छरहरे एक तरुण ने अपने हाथो में ले रखा था और प्लास्टिक की बतख उन्हीं के अनुज के हाथो में थी. यह तब की बात है, जब मैंने पालने से बाहर आकर धमा-चौकड़ी मचानी शुरू की थी और अपनी ननिहाल में माता-पिता के साथ रहता था. मेरी ननिहाल का प्रांगण विशाल था और फूल-पौधों, वृक्षों से भरा हुआ था. मैं उन दोनों भाइयों के आगे-पीछे इस उम्मीद से दौड़ता फिरा कि एक बार वह बन्दूक मेरे हाथो में आ जाए, तो मैं उसे लेकर भाग खडा होऊं. इस घटना की स्मृति इतनी धुंधली है कि आगे-पीछे की और बातें स्मृति-पटल पर नहीं उभरतीं.
बाद में पूज्य पिताजी से यह जानकार मैं बड़ा प्रसन्न हुआ था कि वे दोनों भाई और कोई नहीं, आज के प्रसिद्ध सिने-अभिनेता आमिताभ बच्चन और उनके छोटे भाई अजिताभ बच्चन थे. तब बच्चनजी सपरिवार हमारे घर आये थे और एक दिन ठहरकर पिताजी के साथ जानकीवल्लभ शास्त्रीजी से मिलने मुजफ्फरपुर गए थे.
जब मैं होशगर हुआ और थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने लगा, तो मैंने पिताजी की लायब्रेरी में बच्चनजी की पुस्तकें देखीं, चिट्ठी-पत्री देखी. उनकी हर पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर गोल-सुडौल अक्षरों में कतिपय पंक्तियों के बाद 'बच्चन' लिखा होता, जिसे मैं जान-बूझकर 'गुड' (good) पढ़ता. उनकी ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी, जिसकी प्रति उन्होंने भेंट-स्वरूप पिताजी के पास न भेजी हो. कालान्तर में जब वह पढ़ने-लिखने में असमर्थ होने लगे, तो उनकी दी हुई सूची के हिसाब से प्रकाशक ही पुस्तक सीधे पिताजी के पास भेज देते थे. लेकिन यह तो बहुत बाद की बात है.
जब मैं पांचवीं-छठी कक्षा का छात्र था और पटना के श्रीकृष्ण नगर वाले मकान में रहता था, वहाँ भी बच्चनजी पधारे थे. पिताजी उन्हें पटना हवाईअड्डे से ले आये थे. मेरी माता ने पूरे घर को सुरुचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित किया था. बच्चनजी ने दिन का भोजन हमारे साथ ही किया था और मेरी माताजी ने उनकी भोजन की थाली को जिस कलात्मकता से सजाकर उनके सामने रखा था, उससे बच्चनजी बहुत प्रभावित तथा प्रसन्न हुए थे. यह पहला मौक़ा था, जब मैंने बच्चनजी को बहुत निकट से देखा-जाना था--घुंघराले केश, मोटा चश्मा, खड़ी नासिका, मंझोला कद, गेहुआँ रंग और परिधान--पैंट-कोट और गले से लिपटा मफलर! माधुर्य से भरी दानेदार आवाज़! उस पहली मुलाक़ात में बच्चनजी मुझे शक्ल-सूरत से, बोली-बानी से और अन्तश्चेतना से भी बहुत कुछ पिताजी की तरह ही लगे थे. उस दिन वह दिन भर हमारे साथ रहे और शाम की चाय पीकर पिताजी के साथ किसी समारोह में सम्मिलित होने गए थे. समारोह से लौटे तो देर हो चुकी थी और वह थक भी गए थे, लेकिन पिताजी के इसरार पर उन्होंने एक-दो गीत और मधुशाला के कुछ छंद भी सुनाये थे. वह लयदारी से बहुत मीठा गाते थे और उनके स्वर में बला की तासीर थी, माधुर्य था. बच्चनजी जब भी पटना आये, पिताजी के पास ही ठहरे, उन अवसरों को छोड़कर जब उनके रहने-ठहरने की व्यवस्था आयोजकों ने की हो.
पिताजी से बच्चनजी की मित्रता पुरानी थी--प्रायः पूरी शती की; इलाहाबाद के युवावस्था के दिनों की--बहुत आत्मीय और पारिवारिक! मैंने बाल्यकाल से ही इस आत्मीय सम्बन्ध की अनेक अवसरों पर, अनेक प्रसंगों में, अनेक कोणों से चर्चाएँ सुनी हैं. इतनी बातें कि उनसे आज तक मैं आकंठ भरा हुआ हूँ. आज उन बातों, स्थितियों, घटनाओं का सिलसिला बिठाने को कलम उठाई है, तो संकट में पडा महसूस कर रहा हूँ. फिर भी, लिखने की बातें तो मेरे पास हैं और उन्हें लिखना भी चाहता हूँ. लिहाजा इस संकट से उबरने की चेष्टा भी मुझे ही करनी है; लेकिन विस्तार में जाऊँगा तो यह संस्मरण-लेखन एक छोटी-मोटी पुस्तक की शक्ल अख्तियार कर लेगा. अतः दो-तीन प्रसंगों का ही यहाँ उल्लेख करना चाहूंगा.
जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था, मैंने पहला पत्र बच्चनजी को लिखा था. लौटती डाक से उनका उत्तर आया था, जिसमे उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था. फिर तो यह सिलसिला चल निकला. मैट्रिक तक आते-आते मैं कविताएँ लिखने लगा था. मैंने उन्हें अपनी दो-तीन कविताएँ भेजीं तो उन्होंने मुझे सावधान किया था और लिखा था क़ि--"कविताई का मार्ग दुर्गम है, कंटकाकीर्ण है और बहुत आत्मानुशासन की मांग करता है. सोच-समझकर ही इस मार्ग पर पाँव बढ़ाना चाहिए." लेकिन किशोरावस्था की उस सपनीली उम्र में कविता तो रगों में बहती थी, मन में रह-रहकर उपजती थी और कागज़ पर उतरने की जिद करती थी; चाहे वह बचकानी ही क्यों न हो. बच्चनजी की चेतावनी का असर यह हुआ कि मैं मन की देहरी पर खड़ी कविता को बलात रोके रखता, लेकिन जब कुछ दिनों बाद भी कविता का दस्तक देना न रुकता, तो लिखने को विवश हो जाता. पिताजी बतलाते थे कि युवावस्था में बच्चनजी के साथ दिन में 16 -18 घंटों तक साथ रहते हुए भी वह कभी जान न सके थे कि बच्चनजी कविताएँ भी लिखते हैं और वह भी इतनी श्रेष्ठ कविताएँ! पिताजी इसे 'साहित्य का ब्रह्मचर्य' कहते थे. अपनी इस बात को पिताजी ने विस्तार से 'शती के साथी : बच्चन' नामक संस्मरण में लिखा भी है.
[क्रमशः]
5 टिप्पणियां:
सर मै विस्मित विमुग्ध होकर पढता गया . इंतजार रहेगा अगली कड़ी का . आभार .
आनंद भैया सच क्या लिखते हैं आप
पाठक कहीं विराम ही नहीं लगा पाता और क्रमश: देख कर बेचैनी से अगली कड़ी की प्रतीक्षा करने लगता है
हम चाहते हैं, कि आप विस्तार में जायें, और ये संस्मरण छोटी-मोटी पुस्तक का रूप अख्तियार करें.. इतनी रोचक शैली है आपकी कि पाठक विमुग्ध ही होता है, आशीष ठीक कह रहे हैं.
वंदना जी, आशीषजी,
सच क्या ? मैं तो अपने आपको नितांत अकिंचन और सामान्य मसिजीवी मानता रहा हूँ. पूज्य बाबूजी के पुण्य-प्रताप से यदि कुछ लिखना-पढ़ना आ गया है तो यह भी उन्हीं का आशीर्वाद है मुझे!
उमेशजी को कहिये वह भी पढ़ें इसे.
--आनंद.
रोचक शैली में लिखा दुर्लभ संस्मरण..आभार आपका।
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