[चौथी क़िस्त]
मार्तंडजी के पूज्य और ज्येष्ठ भ्राता स्वनामधन्य हरिभाऊ उपाध्याय के अस्वस्थ होने के कारण यह प्रस्ताव लंबित रहा और वक़्त गुज़रता रहा। लेकिन अंततः मार्तंड बाबूजी ने उनकी स्वीकृति भी प्राप्त कर ली और एक दिन अचानक ही पटना आ पहुंचे तथा कन्या-निरीक्षण करके लौट गए। थोड़े समय बाद पिताजी बड़ी दीदी के साथ दिल्ली गए थे, जहां वर-पक्ष के कई लोगों ने दीदी से बातें की थीं और सगाई की रस्म संपन्न हुई थी। पिताजी पत्र द्वारा एक-एक बात की सूचना बच्चनजी को देते रहे।
विवाह की तिथि तय हो, इसके पहले ही पूज्य हरिभाऊ उपाध्यायजी (दा साहब) के निधन का दुस्सह संवाद मिला। पूरा उपाध्याय-परिवार शोक-संतप्त हो उठा। समय बीतता रहा। लेकिन विवाह को लम्बे समय तक टालना उचित न मानकर मार्तंड बाबूजी ने पिताजी को फरवरी 73 में विवाह की तिथि सुनिश्चित करने को कहा। स्थितियां बदल गई थीं, अतः शोकाकुल परिवार अब विवाह सादगी से करना चाहता था और वह भी दिल्ली से। पिताजी ने जब यह संवाद बच्चनजी को दिया तो तत्काल उनका उत्तर आया, उन्होंने लिखा था--"विवाह दिल्ली से होता तो मैं तेजी के साथ अवश्य आता और कन्यादान भी करता; लेकिन मेरा दिल्ली आना असंभव जानो।" पिताजी ने पत्युत्तर में उन्हें लिखा--"तुमने 'असंभव' लिख दिया है तो मैं मान लेता हूँ कि तुम विवाह में नहीं आ सकोगे;लेकिन तुम विश्वास करो, इस अवसर पर तुम्हारी अनुपस्थिति से मेरे मन का कोई कोना सूना रहेगा। विवाह जैसे आयोजनों में लड़केवालों का आग्रह मानना पड़ता है, मैं विवश हूँ!"
8 फरवरी 1973--शाम का वक़्त। सी-18, राजौरी गार्डन--छोटे चाचाजी (भालचन्द्र ओझा) का आवास। विवाह समारोह की पूरी तैयारी--हलचल, कनात, शामियाना और शहनाई! उस दिन सुबह से ही आकाश पर काले बादलों का डेरा था। दोपहर में तेज आंधी-बारिश भी हुई; लेकिन शाम होते-होते आसमान कुछ साफ़ हो गया। बरात 6 बजे आनेवाली थी। आगंतुक पधार चुके थे। आहाते में भीड़-भाड थी। मैं पिताजी के पास खड़ा था और कुछ आवश्यक निर्देश ले रहा था, तभी कानों में धीमा-सा स्वर पड़ा--'बच्चनजी !' और अचानक पिताजी के कन्धों पर किसी ने पीछे-से हाथ रखा, पिताजी पलटे--सामने बच्चनजी खड़े थे। पिताजी चकित-विस्मित हुए और हुलसकर बच्चनजी से लिपट गए; फिर संयत होकर बोले--"अरे! तुम कैसे आ पहुंचे ? जीवन में पहली बार तुम्हारी बात झूठी सिद्ध हुई। कैसे ?" बच्चनजी ने शांत-भाव से कहा--"मुझे ख़ुशी है कि मेरी बात झूठी साबित हुई और मैं तुम्हारे पास पहुँच सका।" इस वाक्य के पीछे जो मर्म था, उसका ज्ञान हमें बरात विदा होने के तीसरे दिन हुआ।
फिर बरात आ पहुंची। हलचल बढ़ गई। पाणिग्रहण संस्कार के पूर्व पिताजी ने बच्चनजी से कहा--"तुम आ गए हो तो कन्यादान तुम ही करो। मैंने सुबह से पान ही खाया है और सिर्फ चाय पी है। अब यह दायित्व तुम उठाओ और मुझे विरत करो।" बच्चनजी ने गंभीरता से कहा--"कार्यक्रम जैसा चल रहा है, उसे वैसा ही चलने दो। कन्यादान तुम ही करो। मन से और अब शरीर से भी मैं तुम्हारे पास हूँ, साथ हूँ। "
विवाहोपरांत स्वास्थ्य कारणों से बच्चनजी ने सिर्फ एक बर्फी खाई और एक कप दूध पिया तथा देर रात होटल लौट गए; जहाँ उन्होंने अपना सामान रख छोड़ा था। दूसरे दिन बरात की विदाई के पहले बच्चनजी सुबह-सबेरे आ पहुंचे। विदाई के वक़्त सब की आँखें नम थीं। उस दिन पहली बार मैंने पिताजी और बच्चनजी की आँखों में भी नमी देखी थी। विवाह की भीड़-भाड़ में पिताजी बच्चनजी से अचानक, औचक दिल्ली आ जाने का कारण भी न पूछ सके थे, इसका अवसर ही उन्हें न मिल सका था।
विवाह के तीसरे दिन बच्चनजी को मुंबई लौटना था। पिताजी, छोटे चाचाजी, बड़ी दीदी और मृदुल जीजाजी उन्हें छोड़ने हवाई अड्डे तक गए थे। वायुयान में सवार होने में एक-डेढ़ घंटे का विलम्ब था। पिताजी बच्चनजी को एक किनारे खींच ले गए और पूछा--"तुमने लिखा था कि मेरा आना असंभव जानो। मुश्किल से ही सही, मैंने भी अपने मन को इसके लिए तैयार कर लिया था; क्योंकि जीवनव्यापी अनुभव से मैं यह जानता हूँ कि जो तुम कहते हो, वही करते हो; फिर अपनी बात से पलटकर अचानक तुम दिल्ली कैसे आ पहुंचे?" पिताजी का प्रश्न सुनकर बच्चनजी किंचित दुविधा में पड़े दिखे। फिर पिताजी के इसरार पर बच्चनजी ने जो-कुछ कहा, वह हतप्रभ करनेवाला था। उन्होंने कहा था--"जिस दिन मैंने बम्बई से दिल्ली के लिए प्रस्थान किया, उसके पहलेवाली रात मैं सोने के लिए बिस्तर पर गया, तो देर तक नीद नहीं आई। मैं करवटें बदलता रहा। यह असामान्य स्थिति थी। बहुत देर बाद झपकी-सी आयी। मैं कह नहीं सकता कि मैं जाग रहा था, सो रहा था या अर्धतंद्रा में; लेकिन मैंने स्पष्ट देखा कि श्यामा (बच्चनजी की पूर्व पत्नी स्वर्गीया श्यामा देवी) मेरे सिरहाने बैठी हैं। उन्होंने अपना हाथ मेरे सर पर रखा है और मुझसे कह रही हैं--'कल मुक्त के बिटिया के बियाह है और तुम इहाँ पड़े हो? तुमका मुक्त के पास होय का चाही।' मैं घबराकर उठ बैठा। घडी देखी तो बारह से कुछ ज्यादा ही वक़्त हो गया था। मैंने श्यामा के जाने के बाद कभी उन्हें स्वप्न में भी नहीं देखा था। चाहता कि कभी उन्हें स्वप्न में ही देख सकूँ; लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। इतने वर्षों बाद उस दिन देर रात उनका स्वप्न में आना और ऐसा कहना, मुझे विचलित कर गया। मैंने तत्क्षण निर्णय लिया कि कल दिल्ली जाना है। मैंने यंत्रवत चलकर अमिताभ के कमरे पर दस्तक दी। द्वार खुलते ही मैंने उनसे कहा--'कल मुझे दिल्ली जाना है। मेरे लिए फ्लाईट में एक सीट बुक करवा दो।' वह थोड़े असमंजस में दिखे और उन्होंने कहा--'कल दिल्ली जाना था तो आपने दिन में ही क्यों नहीं कहा?' मैंने उत्तर दिया--'जाने का निर्णय अभी किया है तो पहले कैसे कहता?' वह कुछ और कहते, इसके पहले मैं वहाँ से अपने कमरे में चला आया। सुबह की फ्लाइट में मुझे बिठा तो दिया गया, लेकिन मौसम बहुत खराब था। फ्लाइट दो बार अहमदाबाद जाकर लौट आयी। अत्यधिक कुहासे से वहाँ यान का उतरना संभव न हो सका। मैं भी दृढ़प्रतिज्ञ होकर आसन जमाये रहा। यह तो न कहा जा सकेगा कि मैंने तुम्हारे पास पहुँचने की भरपूर चेष्टा नहीं की या श्यामा के आदेश की अनदेखी की।जिस फ्लाइट को सुबह 9 बजे दिल्ली पहुँचना था, वह 2 बजे के बाद ही पालम पहुंची। मैं सीधे होटल गया, वहाँ सामान रखकर मैंने स्नान-ध्यान किया, फिर तुम्हारे पास आ पहुंचा।"
बच्चनजी से यह विस्तृत विवरण सुनकर पिताजी रोमांचित और विह्वल हो उठे थे। उन्होंने अपनी पुस्तक 'प्रथम स्पर्श' के 'मरणोत्तर जीवन' नामक आलेख में यह कथा विस्तार से लिखी है। क्या जीवन के निकट और आत्मीय संबंधों का तंतु इतना दृढ़ हो सकता है कि जीवन्मुक्त होकर भी जीव हितकामी बना रहे और क्या हितचिंता से वह वर्षों बाद भी हस्तक्षेप कर सकता है? मैं सोचता हूँ, किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाता।
कालान्तर के पूजनीया श्यामाजी ने एक बार और हस्तक्षेप किया था, जब पिताजी मृत्युशय्या पर थे; लेकिन उसकी चर्चा बाद में करूंगा।
[क्रमशः]
3 टिप्पणियां:
तीसरी और चौथी कड़ी एक साथ पढ़ डाली लेखनी के बारे में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखने जैसा होगा . बस पढ़े जा रहे है .
Saans bandhe padh rahe hain ye rochak sansmaraN.. aage ki kadiyo ka intzar rahega
:)
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