शनिवार, 15 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[आठवीं क़िस्त]

एक और अनूठे प्रसंग की याद आ रही है। तब तक बच्चनजी मुंबई में अपना घर 'प्रतीक्षा' बनाकर वहाँ शिफ्ट हो गए थे और हम मॉडल टाउन, दिल्ली में ही थे। एक दिन दोपहर के वक़्त करीब तीन बजे घर की घंटी बजी। पिताजी दिवा-निद्रा से जागकर कुछ लिख-पढ़ रहे थे और मैं दूसरे कमरे में था। पिताजी ने ही द्वार खोला--सामने बच्चनजी को खडा देखकर चकित-विस्मित हुए और उच्च स्वर में उन्होंने मुझे आवाज़ दी--"मुन्ना, देखो कौन आये हैं!" मैं जैसा था, वैसा ही उठ खडा हुआ और क्षिप्रता-से पिताजी के कमरे में पहुंचा। मेरे साथ मेरे अनुज यशोवर्धन भी थे। तब तक बच्चनजी को लेकर पिताजी अपने कमरे में आ गए थे। मैंने और यशोवर्धनजी ने आगे बढ़कर बच्चनजी के चरण छुए। बच्चनजी ने हमें आशीर्वाद दिया। पिताजी ने उनसे बैठने को कहा तो बोले--"देखो, मेरे पास बैठने का जितना वक़्त था, उसे मैं टैक्सी में खर्च कर चुका हूँ। जाने कैसे मुझे भ्रम हो गया और मैंने टैक्सी ड्राइवर को 'टैगोर पार्क' की जगह 'टैगोर गार्डन' चलने का आदेश दे दिया। टैगोर गार्डन में जब तुम्हारा घर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मैं हैरान-परेशान हो गया, तो ड्राइवर ने ही कहा कि 'कहीं 'टैगोर पार्क तो नहीं जाना था', जैसे ही उसने 'टैगोर पार्क' का नाम लिया, मैं समझ गया कि मुझसे गफलत हो गई है। टैगोर गार्डन से मैं भागा-भागा आ रहा हूँ, लेकिन इसमें सारा वक़्त बर्बाद हो गया। मैंने टैक्सी रोक राखी है। बैठूंगा नहीं। शाम की फ्लाइट से अमित आनेवाले हैं। उन्हें हवाई अड्डे से लेकर मुझे होटल जाना है। फिर शाम को तैयार होकर राष्ट्रपति भवन।"
पिताजी ने पूछा--"राष्ट्रपति भवन, क्यों?"
बच्चनजी ने तब रहस्योदघाटन किया--"आज मुझे राष्ट्रपतिजी के हाथों अलंकरण मिलनेवाला है। मैंने सोचा, अलंकरण लेने के पहले मैं तुम्हारा आशीर्वाद ले लूँ। इसीलिए आया हूँ।"
पिताजी ने कहा--"आशीर्वाद की क्या बात है ? भला मैं तुम्हें आशीर्वाद कैसे दे सकता हूँ ? बड़े तुम हो।"
बच्चनजी बोले--"बड़ा तो मैं हूँ, लेकिन ब्राह्मण तो तुम हो; फिर मुझे अलंकरण मिल रहा है, इस बात की ख़ुशी की जो चमक मुझे तुम्हारी आँखों में दिखेगी, वह और कहाँ मयस्सर होगी ?" फिर किंचित विराम के बाद बोले--"लेकिन... ब्राह्मण तो दक्षिणा लिए बिना कुछ देता नहीं, तो लो, तुम्हारे लिए मिठाई ले आया हूँ. मिठाई खाओ और मुझे आशीर्वाद दो।"
यह कहकर बच्चनजी ने मिठाई का एक बड़ा-सा डिब्बा पिताजी को दिया और हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने देखा कि बच्चनजी सचमुच पिताजी के पाँवों की ओर झुके। पिताजी ने त्वरित गति से मिठाई का डिब्बा मुझे पकड़ाया और बच्चनजी को कन्धों से पकड़कर 'यह क्या करते हो?' कहते हुए ऊपर उठाया और गले से लगा लिया। दोनों मित्रों की आखों की नमी में मैं बहुत कुछ पढ़ रहा था, पढ़ने की चेष्टा कर रहा था।

उसके बाद बच्चनजी रुके नहीं, हमारे प्रणाम पर आशीर्वाद देते हुए शीघ्रता से टैक्सी में जा बैठे। देखते-देखते टैक्सी आँखों से ओझल हो गई और पिताजी देर तक भाव-विह्वल रहे। वह आजीवन यह प्रसंग याद करते रहे और गदगद भाव से यह रेखांकित करते रहे कि "एक अनन्य मित्र का यह भरोसा कि उसे अलंकरण मिलने की ख़ुशी की चमक मेरी ही आँखों में दिखेगी अन्यत्र नहीं, यह मेरी बहुत बड़ी उपलब्धि है।" बच्चनजी में पुरातन और अधुनातन--दोनों के प्रति स्वीकृति का भाव था--दोनों में जो वरण करने योग्य था, उसे उन्होंने स्वीकार किया था। वह मानस-पाठी थे। रामनवमी में मानस का नवाह पाठ वह नियमित रूप से आजीवन करते रहे।
[क्रमशः]

5 टिप्‍पणियां:

ashish ने कहा…

अतुल्य आनंद प्राप्ति हो रही है ,

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

आशीषजी,
आपका आभारी हूँ !

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आभारी तो हम आपके हैं आनंद जी जो आप इन दुर्लभ संस्मरणों को हम सब से साझा कर रहे हैं। व्यस्तता या नादानी कहिए कुछ छूट गया है, जिसे पकड़ने का प्रयास करता हूँ।

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

देवेन्द्रजी,
लगता है, ब्लॉग के पुराने साथियों ने मैदान बदल लिया है. वैसे पठनीयता भी बहुत घट गई है और ब्लॉग से मेरी दीर्घकालिक अनुपस्थिति ने भी लोगों को मुझसे दूर कर दिया है शायद...
ऐसे में आप जैसे चुनिन्दा लोगों का यह विस्तृत संस्मरण पढ़ना और अपने मंतव्य देना, मेरे लिए आभारी होने का पुष्ट कारण तो बनता ही है !
साभार--आ.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

पढ रही हूं लगातार...