मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...

[समापन क़िस्त]

बाद के वर्षों में पत्राचार और संवाद शिथिल होता गया। बच्चनजी अस्वस्थ रहने लगे थे और पढ़ना-लिखना उनके लिए कठिनतर होता गया था। दिन पर दिन बीतते रहे। ....

वह 6 नवम्बर 1995 की सुबह थी। पिताजी मृत्यु-शय्या पर थे--शरीर की नितांत अक्षमता की दशा में--हतचेत से! मैं पिताजी के कक्ष के बाहर ही बेसिन पर ब्रश कर रहा था, तभी उनकी पुकार सुनाई पड़ी--"मुन्ना! "मैं क्षिप्रता-से उनके पास पहुंचा। लेटे-लेटे उन्होंने आँखें उठाकर देखा--उनकी आँखों में गहरी पीड़ा की छाया थी। दीन स्वर में उन्होंने कहा था--"जानते हो, 'इलाहाबादवाली भाभी (पूज्या श्यामाजी) आयी थीं। विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ, मैं निद्राभिभूत नहीं था। ब्रह्ममुहूर्त में वह सचमुच आयी थीं।" अपने पायताने छत की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी--"सस्मित दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में थीं। केश खुले थे, श्वेत साड़ी  में थीं। सिर कमरे की छत से लगा हुआ और पाँव अधर में थे। मैंने उनसे कहा--"मैं इतनी तकलीफ में हूँ और तुम मुस्कुरा रही हो?" भाभी इलाहाबादी में बोलीं--"ई तकलीफों कौन रही! ... हम इधर से जात रही तो सोचा तोसें मिल लेई!" ....

पूज्य पिताजी से यह सुनकर मैं आश्वस्त हुआ था कि  अब उनकी तकलीफें दूर हो जायेंगी और वह पहले की तरह स्वस्थ-प्रकृतिस्थ हो जायेंगे। तब मोही मन यह सोच भी न सका था कि जब शरीर ही न रहेगा तो तकलीफें भी न रहेंगी। हुआ भी ऐसा ही। प्रायः 26 दिनों की यंत्रणा के बाद 2 दिसम्बर  1995 को पिताजी ने शरीर के साथ ही पीडाओं से भी मुक्ति पायी थी। ... लेकिन यह सोचकर मैं आज भी हैरान होता हूँ कि  60 वर्षों के लम्बे प्रसार में, पिताजी के हर गाढ़े  वक़्त में, उनकी 'इलाहाबादवाली भाभी' कैसे आ खड़ी  हुई थीं? परा-जगत से जीवन-जगत में आकर यह उनका चौथा हस्तक्षेप था। 'मरणोत्तर जीवन' नामक आलेख में पिताजी ने ऐसी तीन घटनाओं की विस्तार से चर्चा की है। इस अंतिम हस्तक्षेप के बारे में कुछ लिखने का मौक़ा उन्हें क्रूर काल ने नहीं दिया था। ...

पिताजी के निधन के आठ वर्ष बाद 2003 में बच्चनजी ने भी जीवन-जगत से छुट्टी पाई थी। उस दिन बच्चनजी के साथ एक युग का अवसान हुआ था। दूरदर्शन पर उनके पार्थिव शरीर को देखकर मैंने श्रद्धापूर्वक उन्हें नमन किया था और सारे दिन टीo वीo स्क्रीन से चिपका रहा था। अतीत की स्मृतियों में डूबने लगा था  मन! यह संयोग ही था कि दोनों मित्रों की जन्म-तिथि एक ही थी--27!  बच्चनजी  की जन्म-तिथि 27 नवम्बर है और पिताजी की 27 जनवरी। पिताजी को गुज़रे आज 17 वर्ष हो गए हैं। इन 17 वर्षों में कोई भी 27 नवम्बर ऐसा नहीं गुज़रा, जब इस दिन सुबह-सुबह पिताजी की आवाज़ मेरे श्रवण-रंध्रों में न गूँजी हो--"आज बच्चन (इतने...) वर्ष के हो गए, मैं 27 जनवरी को (इतने...) वर्ष का हो जाऊँगा।"..... मुझे लगता है, पिताजी की यह आवाज़ मैं आजीवन सुनता रहूँगा--अवसाद और प्रसन्नता के सम्मिलित भाव के साथ....!
[समाप्त]

11 टिप्‍पणियां:

monali ने कहा…

नियमित रूप से पढ रहे थे ये बांधे रखने वाला संस्मरण... कहीं आह्लादित तो कहीं भावुक कर देता.. लगा जैसे बहुत दूर हो कर भी इस सबसे जुड गये हों... गुरुजनों का आशीर्वाद होने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता.. बस आपके मेरे.. हम सबके साथ ये बना रहे इसी कामना और इतने रोचक प्रसंग लिखने के लिये धन्यवाद के साथ;
मोनाली ः)

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

मोनालीजी,
आपकी शुभेच्छा के लिए आभारी हूँ! संस्मरण के ये सारे प्रसंग वर्षों से मन के निभृत एकांत में दबे पड़े थे और कभी चुभते थे, कभी गुदगुदाते थे तथा कभी-कभी उद्विग्न कर देते थे! लेकिन उन्हें लिखने का साहस नहीं जुटा पाता था. आज वह सारा कुछ पेन डाउन कर के भार-मुक्त और उऋण हुआ महसूस कर रहा हूँ. आपने ये विस्तृत वृत्तान्त मनोयोगपूर्वक पढने का अवकाश निकाला, इसके लिए आपका आभार मानता हूँ!
साभिवादन--आ.

Himanshu Pandey ने कहा…

अद्भुत संस्मरण! पूरे मनोयोग से पढ़ा इसे और संबंधों की सहजता से भींगा भी। यह संस्मरण साझा करने के लिए हार्दिक आभार।

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

हिमांशुजी,
आभारी हूँ. आपकी पिछली टिपण्णी में पूछे गए प्रश्न का उत्तर मैंने जी.मेल पर और ब्लॉग पर भेज दिया था, मिला होगा. इस लम्बे और विस्तृत संस्मरणात्मक आलेख को आपने पढ़ा, यह जानकार संतोष हुआ. जानना चाहूँगा, क्या यह कहीं-कहीं किसी प्रसंग में उबाऊ या नीरस तो नहीं लग रहा? आपका मंतव्य पाकर इसे 'cut short' भी कर सकता हूँ. क्या आप थोड़ा खुलकर और निर्भीकता से मेरे इस प्रश्न पर कुछ कहने की कृपा करेंगे? संभव हो तो मुझे जी.मेल पर ही पत्र द्वारा सूचित करें.
सप्रीत-आ.

Himanshu Pandey ने कहा…

आदरणीय,
आत्मीय संस्मरणों की इन प्रविष्टियों में ऊबाऊ या नीरस जैसा कुछ कैसे हो सकता है। हम तो मुग्ध भाव से आपके सभी संस्मरण व व्यक्तित्व-स्मरण की प्रविष्टियाँ पढ़ते जाते हैं।
मुझसे मेरी सामर्थ्य से बड़ा काम कह दिया है आपने। फिर भी इस बहाने पुनः इन्हें प्रिंट कर इकट्ठा पढूँगा। यदि कुछ कह सका तो ज़रूर विनीत भाव से कहना चाहूँगा।
स्नेहाकांक्षी-हिमांशु

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

अरे ख़त्म हो गया ??
मुझे तो लग रहा था बस आप लिखते रहें और हम लोग पढ़ कर हर बार कुछ न कुछ नया सीखते रहें
बेहतरीन संस्मरण !!संस्मरण की परिभाषा समझ में आ गई भैया
धन्यवाद !!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

लगभग उसांस सी लेकर हम भी उठे, संस्मरण खत्म करके....उसांस इसलिये, कि अब किसीनये संस्मरण के लिये पता नहीं कितना इन्तज़ार करना पड़े? उम्मीद है, जल्दी ही नयी श्रृंखला शुरु करेंगे. आभार.

बेनामी ने कहा…

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लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…


आपके लिखे हुए श्रद्धेय ताऊजी बच्चनजी व आपके आदरणीय पिताजी पर
आज एकसाथ पढ़े और मन पुरानी यादों में डूब गया।
मैं पंडित नरेंद्र शर्मा जी की पुत्री लावण्या हूँ।
आपके लेखन के लिए ' धन्यवाद ' कहना अपर्याप्त रहेगा।
फ़िर भी पूरी निष्ठा सहित कह रही हूँ। आभार -
- लावण्या