रविवार, 20 अक्तूबर 2013

जियोगे तुम...

[दिवंगत पूज्य पिता के नाम एक काव्य-पत्र]

जानता था--.
'मुक्त' होते ही
तुम छोड़ दोगे
मेरी उँगलियाँ
और मेरी समस्त चेतना पर
छा जाओगे,
तुम मेरी सांसों में बहोगे,
मेरी ही आँखों से
मुझे घूरोगे
और मेरी धडकनों में
धड़कोगे तुम.…!

तुम मेरे घर के आँगन में
दूब बनकर उपजोगे --
जिस घर की दीवारों पर
चलेंगे हथौड़े--
नई दीवारों के लिए… !

तुम उन दीवारों के
झरते-गिरते ईंट-गारे में
दबोगे, पिसोगे फिर से;
लेकिन,
मेरी जिजीविषा में जियोगे,
उँगलियाँ मेरी छोड़कर भी
तुम 'मुक्त' नहीं होगे कवि !
अपनी अनन्त निद्रा में भी
मेरे साथ-साथ जागोगे,
तुम जियोगे कवि …!!

2 टिप्‍पणियां:

ज्योति सिंह ने कहा…

तुम उन दीवारों के
झरते-गिरते ईंट-गारे में
दबोगे, पिसोगे फिर से;
लेकिन,
मेरी जिजीविषा में जियोगे,
उँगलियाँ मेरी छोड़कर भी
तुम 'मुक्त' नहीं होगे कवि !
अपनी अनन्त निद्रा में भी
मेरे साथ-साथ जागोगे,
तुम जियोगे कवि …!!
ati sundar

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

ज्योतिजी, आपने टिपण्णी न की होती तो यह कविता टिपण्णी-विहीन रह जाती.. आभार...!