[गतांक से आगे]
आपातकाल लागू हो चुका था। दिल्ली में मॉडल टाऊन के साथ लगी एक कालोनी है--टैगोर पार्क! इसी कालोनी के ३८ संख्यक मकान में हम किरायेदार के रूप में रह रहे थे। १३८ नम्बर मकान से कुछ युवा रचनाकार पिताजी से मिलने प्रायः आया करते--जींस का पैंट और खादी का रंगीन कुरता धारण किए तथा कंधे से बुद्धिजीवी झोला लटकाए ! कई मुलाकातों के बाद उनसे मेरी घनिष्ठता हो गई। उनमे प्रखर वक्ता और शोधपूर्ण आलेख लिखनेवाले सुधीश पचौरी थे, उनके उदीयमान चित्रकार अनुज (नाम अब स्मरण में नहीं रहा) थे, चुटीली और व्यंग-प्रधान कवितायें लिखनेवाले अशोक चक्रधर थे और युवा पत्रकार अरुणवर्धन थे। इन मित्रों के साथ उन्हीं के घर में जा बैठना, बातें करना और कवितायें सुनना-सूनानाहोने लगा। आपातकाल की समाप्ति के बाद एक दिन इन्हीं मित्रों ने बताया कि बाबा नागार्जुन आए हुए हैं और उन्हीं के पास ठहरे हैं। मैं तत्काल वहां जा पहुँचा। नागा बाबा से बहुत दिनों बाद मिलना हुआ था--ढेरों बातें हुईं। बाबा ने कारावास के दिनों की कथाएँ सुनाईं। पचौरी और चक्रधर ने मिलकर खिचडी बनाई और हम सबों ने मिल-बैठकर भोजन किया।
उन दिनों बाबा ने एक नवीन प्रयोग शुरू किया था। वह प्रत्येक व्यक्ति के नाम के हर शब्द का प्रथम अक्षर लेकर पुकारा करते थे। जैसे वह मुझे आ.व.ओ (जिसका बिहारी अंदाज़ में अर्थ होता है--'ऐ आओ।') कहकर पुकारा करते। कुमार दिनेश उनके लिए कु.दि थे और अशोक चक्रधर अ.च। हम सबों ने उनके इस प्रयोग को अपना लिया था। बाबा अपने पत्रों में भी ऐसा ही संबोधन लिखा करते।
कालांतर में बाबा ने भीं टैगोर पार्क में ही अलग किराये का मकान लिया और अपने कनिष्ठ पुत्र श्रीकांत को बिहार से दिल्ली ले आए। उन दिनों मैं राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत था। श्रीकांत को भी राजपाल एंड संस में नौकरी मिल गई। हम दोनों एक साथ बस पकड़ते। श्रीकांत कश्मीरी गेट उतर जाते और मैं दरियागंज चला जाता। कई बार लौटने में भी श्रीकांत का साथ हो जाता। श्रीकांत के साथ जब कभी लौटना होता, तो मैं नागा बाबा से मिलता हुआ अपने घर जाता। ऐसी मुलाकातों में बाबा अनन्य प्रीति के साथ शाम की चाय स्वयं बनाकर हमें पिलाते। हमारी 'हाय-तौबा' सुनकर कहते--'मैंने समय पर निगाह रखी थी, जनता था श्रीकांत अब आनेवाले होंगे, इसलिए धीमी आंच पर चाय का पानी मैंने पहले ही चढा दिया था।' उनकी इस सरलता-सज्जनता और प्रीति देख मैं निहाल हुआ जाता था।
मॉडल टाऊन में ही त्रिलोचन शास्त्री और शमशेर बहादुर सिंह का भी आवास था। नागार्जुनजी के साथ ये दोनों साहित्यकार भी दो-तीन दिनों के अन्तर से पिताजी मिलने आया करते। नागार्जुनजी, शमशेरजी, त्रिलोचनजी और पिताजी के बीच घंटो साहित्यिक चर्चाएँ होतीं। मैं इन चर्चाओं का श्रोता बना रहता। एक दिन बाबा ने तंत्र-मंत्र वाली अंपनी एक कविता विशिष्ट अंदाज़ में सुनायी। पिताजी मंत्रमुग्ध हुए। उन्होंने कविता की प्रशंसा करते हुए कहा--''ऐसी अनूठी कविता की रचना आप ही कर सकते थे। मेरा विश्वास है, हिन्दी में इस कविता की द्वितीयता नहीं है।'' पिताजी की प्रशंसा से उस दिन बाबा पुलकित दिखे थे।
सन १९७८ में मेरा विवाह हुआ था। वधू-स्वागत-समारोह में अनेक वरिष्ठ साहित्यकार पधारे थे, जिनमे नागार्जुनजी भी थे। राजकमल के मोहन गुप्त ने वियोगी हरि, अज्ञेयजी और नागार्जुनजी को वहां एक साथ देखकर मुझसे कहा था--''तीन अलग-अलग धाराओं के वरिष्ठ साहित्यकार यहाँ उपस्थित हैं, ये आपके पिताजी का ही सौजन्य है। आप किसी तरह इन त्रिदेवों का एक सम्मिलित चित्र अवश्य खिंचवा लें--वह चित्र अपूर्व होगा। संयोगवश ऐसा हो न सका; लेकिन इसी अवसर पर इन त्रिदेवों का अलग-अलग लिया गया चित्र मेरे संग्रह में सुरक्षित है। नागा बाबा ने मेरी नवोढा पत्नी को उस दिन जयदेव विरचित 'गीत-गोविन्द' के पद्यानुवाद की एक प्रति उपहारस्वरूप दी थी।
नागार्जुन मस्तमौला फकीर थे, उन्हें कोई बंधन बाँध न पता था। आज यहाँ तो कल वहां--दिल्ली, जयपुर, भोपाल, कलकत्ता, पटना की यात्राएं वह करते ही रहते थे। दिल्ली की बसों में मेरे साथ यात्रा करते हुए उन्होंने बात-की-बात में क्षणिकाओं की रचना की थी, व्यंग-चित्र बनाये थे। चुहल करना, चुटकियाँ लेना उन्हें प्रिया भी था और उनके सहज स्वभाव का हिस्सा भी। विलक्षण मेधा और असामान्य प्रतिभा के धनी नागार्जुनजी का प्रत्युत्पन्नमतित्व सदा जाग्रत रहता था। अपने युग-सत्य को अभिव्यक्ति प्रदान करनेवाले जन-पक्षधर रचनाकार महाकवि नागार्जुन आजीवन प्रचलित आभिजात्य को विखण्डित और अस्वीकार करते रहे। ...
{शेषांश अगली किस्त में}
6 टिप्पणियां:
जब मैं पहली बार बाबा से मिली थी,(निस्संदेह आपके आवास पर) तो एक मिनट के लिये अचकचा गई थी. मुझे इस औघड-रूप की तो उम्मीद ही नहीं थी. सचमुच बनावट तो उन्हें छू भी नहीं पाई थी. बहुत सिलसिलेवार और रोचक तरीके से हम तक अपने संस्मरण पहुंचा रहे हैं आप. साधुवाद.
बहुत-बहुत धन्यवाद ! सन्स्मरणों का खास तौर से इन्तजार रहत है ।
यह चर्चा भी बहुत अच्छी लगी.....अगली किस्त का इन्तजार रहेगा.बाबा नागार्जुन के बारे में जानने की वर्षो से इच्छा थी...अब पूरी हो रही है. आभार.
वंदनाजी,
आभारी हूँ. तीसरी और अंतिम कड़ी भी पढें, फिर लिखें ! ज्योतिजी कहाँ हैं ?
अर्कजेशजी, चंदनजी,
अब संस्मरण आपके सामने है, इसे पूरा पढने का श्रम करें और आलेख के 'टोटल इम्पैक्ट' पर अपनी राय देने की कृपा करें, आभारी होऊंगा. आ.
बेहतरीन संस्मरण है इसको पढ़ते हुए आपकी सादगी को भी परखने में लगी है मेरी बुद्धि.
जिन चित्रकार को आप याद कर रहे हैं वे शायद राजेंद्र कुमार तो नहीं? आपने जीवन को जाया नहीं किया है मैं सोचता हूँ कि आपका शतांश मुझे मिल जाये तो जीवन को सम्पूर्ण जानूं.
किशोरजी,
सुधीश के अनुज राजेंद्र कुमार तो नहीं थे ! दुखद यह है की तीन साल पहले जामिया मिलिया वि.वि., न. दिल्ली के अहाते से फ़ोन karne पर अशोक चक्रधर ने मुझे बताया था कि सुधीश के उदीयमान चित्रकार अनुज असमय ही दिवंगत हो गए थे. विधि का विधान समझ में नहीं आता !
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