[आत्म-परिचय]
तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
मैं तो ख़ुद अपना ठिकाना ढूंढ़ता हूँ--
भई ! मुक्ताकाश हूँ,
बादलों के शीश पर
चढ़कर टहलता हूँ;
मैं ज़मीं की नर्म-कोमल दूब पर
जी-भर मचलता हूँ;
ओस-कण हूँ
सुबह की धूप में--
सोने-सा चमकता हूँ !
और फिर वातास में घुल,
उल्लास में भरकर
भारहीन पैरों से थिरकता हूँ !
तुम पूछते क्यों हो--
मुझसे पता मेरा ?
क्या करोगे जानकर मेरा ठिकाना ?
मैं करता हूँ सवारी
धूलि-कण की,
उत्तप्त गहरी वेदना से भर जला करता
और रक्तिम कण बना
ऊपर उठा करता,
...और ऊपर... और ऊपर...
मोद में भरकर
मत्त हो गाता चला जाता--
अनंत आकाश के पथ पर
विचरता हूँ;
फिर बादलों के शीश से
तुहिन-कण बना
हीरे-सा बरसता हूँ !
प्यास धरती की बुझाने को
तरसता हूँ !
तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
उत्तुंग शिखरों पर जमी
जो बर्फ की परतें
उन्हें छूता हूँ, सिहरता हूँ,
फिर लौट आता
कुसुमगंधी वाटिका में !
सुरभि अपनी लुटाने को
खिले जो फूल रंगीले,
चपलता से पहुंचता हूँ वहां,
चूम लेता हूँ उन्हें;
सुगंधि उनकी चुराता हूँ,
फिर गन्धवाही बन
सहज ही मुस्कुराता हूँ !
तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
मैं नील अम्बर से उतरता,
झुककर चला आता
नद-नदी और सागर-वक्ष पर
अठखेलियाँ करता--
मैं उनकी विस्तृत छाती पर
लहरें बनता हूँ;
अवसाद उनका इस तरह
हंसकर मिटाता हूँ !
कभी-कभी अपने पंख की
सुकोमल थपकियों से
हंस-कौवे और श्वेत कपोत के जोड़े
मुझसे खेलते हैं,
और छ़प-छ़प के उल्लासमय
आघात करते
उड़ते चले जाते--
मुझे चुनौतियाँ देते हुए...
मैं मुस्कुराता हूँ !
वाष्प के गुब्बार को
अपने कन्धों पर लिए
मैं भी उड़ता चला जाता...
नील अम्बर में पहुंचकर
पिघल जाता--
स्वयं मुक्ताकाश हो जाता !
स्नेह से स्पर्श कर देखो कभी
मैं प्राण में एक गंध बनकर
समा जाऊँगा !
तुम्हें अकेला छोड़कर
भला मैं कहाँ जाऊँगा ?
तुम बार-बार मुझसे
पूछते क्यों हो--
पता मेरा ?
विश्वास करो--
जो कुछ कहा मैंने,
वह बहाना हो नहीं सकता;
इस बे-ठिकाने का
ठिकाना हो नहीं सकता !!
12 टिप्पणियां:
वाह..आत्मा के शाश्वत्य का उद्घोष करती, जीवन की जल तरंग सी गतिमयता का आधार बनती और स्रष्टि के हर कण मे समाहित होने के प्रमुदित भाव से भरी यही तो है जीवनी-शक्ति..आत्मकथ्य होने लायक...बड़ा विश्वास सा उपजता है इस सकारात्मक ऊर्जा से भरी कविता को पढ़ कर..आभार !!
स्नेह से स्पर्श कर देखो कभी
मैं प्राण में एक गंध बनकर
समा जाऊँगा !
"स्नेह से स्पर्श कर देखो कभी
मैं प्राण में एक गंध बनकर
समा जाऊँगा !
तुम्हें अकेला छोड़कर
भला मैं कहाँ जाऊँगा ?"
शत शत नमन आपको !
आभार !!
मुक्ताकाश में भारहीन पैरों की थिरकन ...बादलों के शीश से
तुहिन-कण बना हीरे-सा बरसना ...फिर लौटना कुसुमगंधी वाटिका में ...अद्भुत शब्दावली ...!!
कई बार पढा है, और भी पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाउँगा. एक सृजनधर्मी लेखक का वक्तव्य इससे बेहतर भला क्या होगा अपने बारे में ...
नमन !
आपकी लेखनी को नमन गुरूवर!
स्व को रचना हमसब की हसरत, लेकिन शब्दों का सानिध्य जो आपको मिला है वो कहाँ से जुटावें हम?
shashwat satya ko ujagar karti rachna.........adbhut lekhan.
फिर बादलों के शीश से
तुहिन-कण बना
हीरे-सा बरसता हूँ !
प्यास धरती की बुझाने को
तरसता हूँ !
ati sundar bhav ,shabd snyojan vimugdh hoo is aatm prichay par .
abhar
आदरणीय आनन्दवर्धन जी,
आपको जानने के लिये तो शायद उस पूरे काल को ही जीना पड़ेगा, कोई भी अभिव्यक्ती फिर वो चाहे प्रस्तुत आत्म परिचय ही क्यों ना हो शायद कहीं ना कहीं वह भी न्याय नही कर पायेगी।
आप से जितनी देर भी बात हुई है, आपके विचारों को मैंने महसूस किया है अपने अंदर प्रवाहित होते। मैं यह मानता हूँ कि आप की ऊर्जा अपार है और विचारों की स्निग्धा तो क्या कुछ कह सकता हूँ?
इन पंक्तियों ने जैसे अव्यक्त व्यक्त कर दिया :-
मैं उनकी विस्तृत छाती पर
लहरें बनता हूँ;
अवसाद उनका इस तरह
हंसकर मिटाता हूँ !
और अबस यही वह बात है जो हमें जोड़े हुये है (आपका कृपापात्र बन अभिभूत हूँ) ;-
स्नेह से स्पर्श कर देखो कभी
मैं प्राण में एक गंध बनकर
समा जाऊँगा !
तुम्हें अकेला छोड़कर
भला मैं कहाँ जाऊँगा ?
यह आशिर्वाद बना रहे,
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
जितनी बार पढती हूं उतनी बार अलग-अलग मायने सामने होते हैं..नहीं टिप्पणी करने की हिमाकत नहीं की जा सकती.
आनन्द जी
आप जिस तरह की रचनाये आप कर सकते हो वैसे सोच के धनी बहुत ही विरले ही मिलते है,आपकी रचना यह बताती है आप हमारे धरोहर कवि हो,आपकी कविता आत्मा को छू गयी,एक गंगा की पानी सा रवानी दे गयी,आपको शत शत नमन!
ओम आर्य
वाह!सुन्दर प्रस्तुति....बहुत ही अच्छी लगी ये रचना.....
जिन ब्लोगेर मित्रों को मेरे आत्म-परिचय से आत्म-तोष हुआ है, उन सबों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ !
सदर, सप्रीत--
आनंद.
एक टिप्पणी भेजें