[पुराने पन्नों से]
यही सूरते-हाल मैंने शामो-सहर देखा,मैंने हर शख्स में जलता हुआ शहर देखा !
कहीं तो होगा एक आफताब का टुकड़ा,
अंधेरों ने मेरी आँख में क्यों डर देखा !
मिलो बहार से तो महज़ इतना कहना,
क्यों खिजां ने प्यार से मेरा ही घर देखा !
अपनी ज़मीन पर खड़े होने का हक है तुमको,
रिश्तों ने मेरे रंग में कौन-सा कहर देखा !
एक तुम्हारे हाल पर रोने की है फुर्सत किसको,
मैंने हर शाख पर तूफ़ान का असर देखा !
सुकून खोजते क्यों हो आज की दुनिया में दोस्त,
कहाँ-कहाँ नहीं वहशत-भरा मंज़र देखा !
बेसबब क्यों उखाड़ते हो तुम गड़े मुर्दे--
फिर हया की कब्र में क्यों तुमने झाँककर देखा !!
12 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा ।
बधाई स्वीकारें ।
कहीं तो होगा एक आफताब का टुकड़ा,
अंधेरों ने मेरी आँख में क्यों डर देखा ...
लाजवाब ग़ज़ल है ........ उम्दा शेर हैं ........ कमाल के तेवर नज़र आते हैं हर शेर में .........
[पुराने पन्नों से]यही सूरतऐ-हाल मैंने शामो-सहर देखा,
मैंने हर शख्स में जलता हुआ शहर देखा !
कहीं तो होगा एक आफताब का टुकड़ा,
अंधेरों ने मेरी आँख में क्यों डर देखा !
मिलो बाहर से तो महज़ इतना कहना,
क्यों खिजां ने प्यार से मेरा ही घर देखा !
अपनी ज़मीन पर खड़े होने का हक है तुमको,
रिश्तों ने मेरे रंग में कौन-सा कहर देखा !
एक तुम्हारे हाल पर रोने की है फुर्सत किसको,
मैंने हर शाख पर तूफ़ान का असर देखा !
सुकून खोजते क्यों हो आज की दुनिया में दोस्त,
कहाँ-कहाँ नहीं वहशत-भरा मंज़र देखा !
बेसबब क्यों उखाड़ते हो तुम गड़े मुर्दे--
फिर हया की कब्र में क्यों तुमने झाँककर देखा !!
poori gazal zabardast rahi ,aanand ji aapki rachna bemisaal hoti hai .shabd nahi taarif ke liye
Gazal padhkar yahi kahne ka man kar raha hai...
Lajawaab !
एक तुम्हारे हाल पर रोने की है फुर्सत किसको,
मैंने हर शाख पर तूफ़ान का असर देखा !
सुकून खोजते क्यों हो आज की दुनिया में दोस्त,
कहाँ-कहाँ नहीं वहशत-भरा मंज़र देखा !
वाह लाजवाब पूरी गज़ल काबिले तारीफ है बधाई
आनन्द जी,
बहुत ही भावपूर्ण रचना है
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
आपकी हर रचना का भावपक्ष इतना सशक्त होता है कि तमाम नये और अजनबी खयालों का स्रोत भी बनता है..हर बार..
मअतला ही बेहद ताकतवर है..आज की तारीख भी वही दर्ज करेगी जो आपने इस शे’र मे देखा है.. गुलज़ार साहब की एक गज़ल की याद भी दिलाता..सीने मे नमी आँखों मे तूफ़ाँ सा क्यो है’
मगर दूसरा शे’र बहुत आश्वस्त करता है..
कहीं तो होगा एक आफताब का टुकड़ा,
अंधेरों ने मेरी आँख में क्यों डर देखा !
उम्मीद का यही टुकड़ा हर अँधेरे से लड़ने की प्रेरणा देता है..
हाँ यह वाला थोड़ा मुश्किल रहा मेरे लिये
अपनी ज़मीन पर खड़े होने का हक है तुमको,
रिश्तों ने मेरे रंग में कौन-सा कहर देखा !
और आखिरी वाला तो हमारे राजनीतिक परिदृश्य को बहुत सलीके से सामने..रखता है सवाल करता हुआ सा..
वैसे हथौड़े सी बजती इस ग़ज़ल से मुझे अगर सबसे पसंदीदा लाइन चुनने की मजबूरी हो तो मै यह चुनूँगा..
मैंने हर शख्स में जलता हुआ शहर देखा !
बहुत आगे तक जाती है यह गज़ल..अभी तो दोबारा से पढ़ना पड़ेगा.
कुछ लाजवाब मिस्रों से सजी रचना...यूं कुछ टिप्पणिकारों से इसे ग़ज़ल की संज्ञा दी है जो कि अनुचित होगा, मेरी अदनी समझ के मुताबिक।
"मिलो बाहर से तो महज़ इतना कहना,क्यों खिजां ने प्यार से मेरा ही घर देखा" इन दोनों पंक्तियों का अंदाज बेमिसाल है। ...और फिर "मैंने हर शाख पे तूफ़ान का असर देखा" की मार कहीं दूर तक जाती देख रहा हूँ।
ऊपर अपूर्व की टिप्पणी में "सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यों है" की याद मुझे भी आयी, लेकिन मेरे ख्याल से ये शहरयार साब का शेर है।
सुकून खोजते क्यों हो आज की दुनिया में दोस्त,
कहाँ-कहाँ नहीं वहशत-भरा मंज़र देखा !
कमाल की रचना. हर शे’र अलग मिज़ाज़ का. पहले गज़ल लिखने वाली थी, फिर गौतम जी की टिप्पणी याद आ गई.
गौतम जी, सही पहचाना, वो शहर्यार साब की ही गज़ल है.
मिलो बाहर से तो महज़ इतना कहना,
क्यों खिजां ने प्यार से मेरा ही घर देखा !
वाह....वाह......!!
आनंद जी गज़ब का शे'र ...... यहाँ 'बहार' ही लिखना चाहते थे न....?
अपनी ज़मीन पर खड़े होने का हक है तुमको,
रिश्तों ने मेरे रंग में कौन-सा कहर देखा !
बस ये रिश्ते यूँ ही कहर ढाते रहते हैं हमपर ......!!
बेसबब क्यों उखाड़ते हो तुम गड़े मुर्दे--
फिर हया की कब्र में क्यों तुमने झाँककर देखा !!
ओये होए ....ये तो कमाल का है .....!!
विवेक सिंहजी, नसवाजी, अनिलकान्तजी, निर्मला कपिलाजी, शाहिदजी, वंदना दुबेजी, ज्योतिजी,
आप सभी बंधुओं का आभार ! मेरे दिमाग के गोशे-गोशे में उबलते ख़यालों को आपने स्नेह दिया, थोड़ी ठंढक पड़ी है !
अपूर्वजी, जिसकी ओर आपका इशारा है, वह अशार थोडा निजी-पीड़ा से जुड़ा है, उसकी बात फिर कभी... अभी तो मेरी बंदगी लें !
राजऋषिजी, आपकी प्रतिक्रिया मुतासिर करती है... मशकूर हूँ !
हीरजी, दिन-रात काले अक्षरों से आँखें फोड़ते-फोड़ते चुंधिया गई हैं बेचारी... तभी तो शुद्धियाँ पढ़ते-पढ़ते अशुद्धि छोड़ गया मैं... विलाशक, वह 'बहार' ही है... ध्यान दिलाने का शुक्रिया !
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