[ग्रहण से मुक्ति पाकर प्रकट हुए दिवाकर को सप्रणाम निवेदित]
चंचल, शोख, मदमस्त हवा ने
अपने विस्तृत बाहु-वलय में
स्वप्न बहुत-से सजा लिए थे,
अपनी प्रज्ञा से अनुभूत सत्य भी
मन-दर्पण में बसा लिए थे !
देश-देश वह चली घूमती
मरु-प्रदेश की धानी चूनर
ओढ़ झूमती--
आशाओं के खुले व्योम में
स्निग्ध-रुपहली प्रथम किरण-सी;
रंग बहुत-से उससे होते थे प्रतिभासित,
फिर भी वह थर-थर काँप रही थी,
शांत-सौम्य देवी-प्रतिमा-सी
भू-तल पर घर-घर झाँक रही थी,
शीत-प्रकम्पित इस धरती पर
सारे घर के द्वार बंद थे !
मेरे आँगन की बगिया में
जब वह आयी-- ओस बन गई !
घनीभूत कुहरे से उसकी
खूब ठन गई !
जाने कब-क्यूँ , औचक , कैसे
रवि-रश्मि भटककर इस घर आयी
आलोकित कर कण-कण उसने--
चंचल, शोख, मदमस्त हवा को
स्नेहाभूषण पहना डाले,
सहज प्रीत के रेशमवाले
रंग-रंगीले डोरे डाले !
उस दिन देखा सर्वप्रथम ही
शोख हवा को --
संकुचित और लज्जाकुल होते !
रवि की सतरंगी किरणों में
भीग सहज ही व्याकुल होते !
किन्तु, इसी अकुलाहट में भी
रवि ने अपनी विकट प्रभा से--
बाँध लिया था वायु-वेग को !
दोनों ने मिलकर बढ़ा लिया था
प्रीति-परस्पर के प्रवेग को !!
अब दोनों संग-संग विचरण करते
विस्तृत भू से नील गगन में,
मुदित हुई सारी वसुधा ही
आभार उपजता सबके मन में !
रवि की किरणें ले आयीं अब--
नूतन प्रकाश !
फूले शत-शत मधुमय जीवन का--
अमलताश !!
24 टिप्पणियां:
बहुत दिनों बाद ऐसी प्रकृति बेस्ड कविता पढ़ी.. बहुत सुन्दर... आने वाली बसंत की याद दिला दी आपने वो भी पटना की !!!
आशाओं के खुले व्योम में
स्निग्ध-रुपहली प्रथम किरण-सी;
रंग बहुत-से उससे होते थे प्रतिभासित,
फिर भी वह थर-थर काँप रही थी,
शांत-सौम्य देवी-प्रतिमा-सी
भू-तल पर घर-घर झाँक रही थी,
शीत-प्रकम्पित इस धरती पर
सारे घर के द्वार बंद थे !
परिदृश्यों का सुन्दर चित्रण!
बेहतरीन रचना प्रस्तुति ..बधाई हो
prakritak chhata bikher di hai aapne kavita mein..........adbhut.
anand bhaiya ,adab ,
manzar kashi ka ye aakash !sach ye vidha to koi ap se seekhe ,aankhon ke samne aik tasveer si khinch gayi thoda samay lag gaya prakriti ke saundarya men khoye hue man ko bahar nikalne men .badhai ho
कैसा अद्भुत चित्र खींच दिया है इस बेमिसाल कविता के बहाने..जैसे लगता है कि प्रकृति सज-धज कर स्वयं चुप-चाप आ कर बैठ गयी हो..इस ब्लॉग रूपी पालकी में..शरमाती-सकुचाती सी..
कई बार पढ़ चुका हूँ..और डूबता सा जाता हूँ
हाँ..कहना चाहता हूँ कि गुमशुदा चीजों पर आपकी उस मार्मिक टिप्पणी को देख कर भावुक हुए बिना नही रह सका..बस शुक्रिया कह सकता हूँ!!
उस दिन देखा सर्वप्रथम ही
शोख हवा को --
संकुचित और लज्जाकुल होते !
रवि की सतरंगी किरणों में
भीग सहज ही व्याकुल होते !
किन्तु, इसी अकुलाहट में भी
रवि ने अपनी विकट प्रभा से--
बाँध लिया था वायु-वेग को !
दोनों ने मिलकर बढ़ा लिया था
प्रीति-परस्पर के प्रवेग को !!
bahut achchhi abhivayakti
Ravi ki kirne le aayin thi.......
bahut bahut achchi lagi aapki ye rachna
वाह क्या कमाल प्रकृति वर्णन है. मन खुश हो गया.
rachnaa apne aap hi
qudrat ke qareeb liye ja rahi hai
aapki qalam ko dheroN salaam !!
"बहुत सुंदर है - यह रविमय गीत!"
--
मिलत, खिलत, लजियात ... ... ., कोहरे में भोर हुई!
लगी झूमने फिर खेतों में, ओंठों पर मुस्कान खिलाती!
--
संपादक : सरस पायस
सूर्य की प्रथम किरण और हवा का संयोग ओस बन कर बिखरा ...प्रकृति की मधुरिम छटा पर सुन्दर कविता ...
http://ramyantar.blogspot.com/2010/01/blog-post_15.html...प्रकृति की छटा यहाँ भी देखें ...
कविता पढ़ के सागर का कमेन्ट पढ़ा तो लगा कि मेरे ही मन कि बात है. बहुत सुंदर.
aisee hindi padne ko kum hee miltee hai bahut accha laga.bahut hee sunder hai aapkee ye rachana.
यह स्निग्धता दुर्लभ है इस ब्लॉगजगत की कविताई में । यहाँ आप हैं, आश्वस्त हैं हम ।
कुछ कहने की सामर्थ्य नहीं ।
बहुत समय बाद आया हूँ और क्षमा तो चाहूँगा ही.
बहुत दिनों के बाद इतनी सुंदर रचना देखने को मिली. जी खुश हो गया. कविता जिन भावों के साथ प्रवाहित हुई है, उन्हें पढ़ कर आँखें नम हो गईं. जाने कब ऐसा वक्त आएगा जब धरती पर ऐसाहोगा.
हम ने तो प्रकृति विरोधी 'विकास कार्यों-कार्यक्रमों' से न सिर्फ धरती बल्कि पर्यावरण और आकाश तक तक को बेध डाला है. इस अमर कृति के लिए बधाई.
अब दोनों संग-संग विचरण करते
विस्तृत भू से नील गगन में,
मुदित हुई सारी वसुधा ही
आभार उपजता सबके मन में !
रवि की किरणें ले आयीं अब--
नूतन प्रकाश !
फूले शत-शत मधुमय जीवन का--
अमलताश !!
वाह ......बहुत पहले शुरूआती दौर में मैंने भी कुछ ऐसी पंक्तियाँ लिखी थी .....
दिनकर छिप जाता है
संध्या के आगोश में
ओढा देती है रजनी
झिलमिल तारों का आँचल
सुनहरी शय्या पर
होता मिलन
कुछ पल के लिए
खो जाये दोनों
एक दुसरे में रत
भोर की लालिमा पड़ती
मुख मंडल पर
होते जुदा फिर
इक नया संसार बसाने
जन्म होता इक नए इतिहास का
है प्रकृति का यही नियम
पाना खोना और फिर इक
नया जन्म .....!!
हीर जी,
कहते हैं, लोटा मांजने से ही चमकता है ! आपने शुरूआती दिनों की जिन पंक्तियों को टिपण्णी में लिख भेजा है; उन्हें पढ़ कर याकीन होता है कि आपकी कविताई का कलश आज ऐसा क्यों चमक रहा है-- अपनी संपूर्ण आभा से दैदीयमान होता हुआ !
साभिवादन--आ.
आप सभी टिप्पणीकारों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ !
साभिवादन--आ.
बसंतागमन पर समस्त शुभकामनायें गुरुवर। विलंब से आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं....कविता सचमुच बसंत के सारे रंग लिये आयी है। और इन सुंदर सहज शब्दों को यूं लय-ताल-प्रवाह में इतनी बखूबी सजे देख हैरानी होती है कि कैसे कोई इतनी खूबसूरती से कविता लिख लेता है।
बहुत खूब उम्दा रचना
बहुत बहुत आभार ..............
जी आनंद जी ...यूँ तो खुदा सुनता नहीं सोचा ....शायद यूँ ही सुन ले .....!!
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.......
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें.
एक टिप्पणी भेजें