[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--(१)]
शेषनाग की शय्या पर गहन निद्रा में मग्न भगवान् विष्णु के आठ एकड़ में बने पाँच हजार वर्ष पुराने मन्दिर में विजयादशमी की सुबह 7.40 पर अपने दल के साथ पहुँचा। साथ थीं श्रीमतीजी, बेटी-दामाद और हम सबके प्यारे ऋतज! कोची से ही सहयात्री बने दामाद साहब के एक मित्र भी सपरिवार हमारे साथ थे। त्रिवेंद्रम के एक मित्र भी सपरिवार हमारे दल में आ मिले। दरअसल, दुर्लभ दर्शन को सरल-सहज बनाने की सारी व्यवस्था उन्होंने ही की थी। मन्दिर में हमारा प्रवेश सहज हो गया। एक विशेष पुजारीजी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए हमारी जिज्ञासाओं का निराकरण करते रहे। ऋतज मुझे पण्डितजी के अंग्रेजी वक्तव्यों का हिन्दी-अनुवाद बता-बताकर बार-बार पूछते रहे--'नान् जी, आप समझ गए न?' उन्होंने मान लिया है कि मैं हिंदीदाँ हूँ और अंग्रेजी का ज्ञान मुझे बिल्कुल नहीं है।...
अति प्राचीन इस धर्म क्षेत्र को पृथ्वी पर साक्षात् वर्तमान प्रभु श्रीविष्णु के स्थान की मान्यता प्राप्त है। प्रस्तर के 365 विशालकाय स्तम्भों के चौरस गलियारों के मध्य भव्य मन्दिर है, शेषनाग की कोमल शय्या पर निद्रा-निमग्न हैं प्रभु। उनके नाभि-कमल के पुष्प-दल पर विराजमान हैं ब्रह्मा, बायें हस्त में कमल का फूल है और दायीं हथेली के नीचे स्वयं समक्ष हैं देवाधिदेव महादेव! गोपुरम् का शिल्प और उसकी भव्यता दर्शनीय है, मोहित करती है।
विजयादशमी के कारण आज पद्मनाभम् स्वामी के मन्दिर-परिसर में बहुत भीड़ थी। दर्शनार्थियों की कतार का न ओर दिखता था, न छोर। वस्त्राचार का नियम-बंधन भी बहुत है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है। प्रत्येक महिला के लिए साड़ी पहनना अनिवार्य है और प्रत्येक पुरुष के लिए मुण्डु (दक्षिण भारत का धोती-लुंगीनुमां परिधान) और तन पर मात्र अंगवस्त्रम्। दामाद साहब के मित्र की कृपा से जन-समुद्र से बचते हुए हम बड़ी आसानी से श्रीहरि के दिव्य दर्शन कर आये। हमने मूल मन्दिर की परिक्रमा की, फिर ध्यान कक्ष में जा बैठे।
ध्यान का मेरा अभ्यास पुराना है, लेकिन वह अभ्यास परा-विलास के ज़माने का था, जिसके किस्से आपने पहले ही पढ़े हैं और जिसे छोड़े हुए भी एक युग बीत गया है। उस युग के ध्यान के अनुभव किसी को न बताने की खास हिदायत थी। अमूमन उन अनुभवों को मैं किसी के साथ साझा करता भी नहीं था। लेकिन अब न कोई वर्जना है, न कोई अंकुश।...
आज पद्मनाभ मन्दिर के ध्यान प्रकोष्ठ में बैठा तो सिहरन-भरी विचित्र अनुभूति हुई। मन करता है कि यह अनुभव-अद्वितीय आप सबों के साथ बाँट लूँ। 15-20 मिनट ही एकाग्रचित्त होकर बैठा था कि मानस-पटल के मध्य हरे रंग की कोमल कली प्रकट होती प्रतीत हुई। किसी चलचित्र की तरह उस कली का विकास हुआ और धीरे-धीरे उसके खुलते दल रंग बदलने लगे। पाँच मिनट के निमिष काल में वह सुन्दर गुलाबी कमल पुष्प में परिणत हो गया। उसके आसपास अलौकिक आभा बिखरी हुई थी।... और हठात् ध्यान भंग हुआ। ध्यान की अवस्था में मिले इस अलौकिक अमूर्त दर्शन का अर्थ-अभिप्राय समझने के लिए फिर मैं ध्यान-मग्न होने की चेष्टा ही करता रह गया, ध्यान लगा नहीं।
मन्दिर से निकलकर हम होटल आये। कपड़े बदले। सुबह से उपवास था। हमने अल्पाहार लिया और बच्चों की ज़िद पर चिड़ियाघर-अजायबघर गये। फिर केले के हरे पात पर सद्याभोजन ग्रहण करने एक होटल में गये। यह केरल का विशिष्ट आयुर्वेदिक आहार है--जितना चाहिए, उतना मिलेगा। हमने छककर उदरपूर्ति की। उसके बाद बीस-एक किलोमीटर की यात्रा करके पहुँचे कोवलम् के समुद्र-तट पर। अरब सागर का अन्तरराष्ट्रीय व्यपार-मार्ग हमने पुलकित भाव से देखा। 'बीच' पर बच्चों ने जल-क्रीड़ा की, फिर हम लौट चले। रात नौ बजे के आसपास हम अपने रैनबसेरे में पहुँच गये।
ऐसी अलौकिक, उल्लासमयी विजयादशमी जीवन में कभी व्यतीत नहीं हुई थी..!
--आनन्द. /30-09-2017
6 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सूचना जनहित मे जारी ... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर।
रोचक विवरण
बहुत बढ़िया रोचक जानकारी पूर्ण लेख
aabhaar aap mitra-bandhuon ka...
जब वास्तविक ध्यान लगता है, तब या तो मस्तिष्क के मध्य, दीपक की लौ प्रज्ज्वलित और विकसित होते दिखती है, या फिर जो हमारे मन-मस्तिष्क में हो उस वक़्त, वही विकसित होते दिखता है. आप पद्मनाभ मन्दिर में थे, ऐसे में कमल की कल्पना रही ही होगी अवचेतन में. ध्यान गहराते ही वही कमल कली दिखाई दी. विष्नु का आशीष है ये, जो इतना गहन ध्यान आप लगा पाते हैं. शानदार यात्रा वृतांत.
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