[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--2.]
त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी के मार्ग में राजा अनिझम थिरुनल मार्तण्डवर्मा का किला था। मुख्य मार्ग से एक वक्र मोड़ लेकर हम वहाँ पहुँचे। राजा के किले के मुख्यद्वार पर पहुँचे तो लगा ही नहीं कि किसी उल्लेखनीय राजद्वार पर आ गये हैं। वह तो हमें किसी समृद्ध गाँव के मुखिया का उन्नत दोमंज़िला मकान-सा प्रतीत हुआ--चौड़े लाल पत्थरों के खपरैलवाला भवन ! हम सभी आश्चर्यचकित थे--आखिरकार यह कैसा राजप्रासाद?
लेकिन मुख्यद्वार से प्रविष्ट होने के बाद पतली-सँकरी सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए हम फिर चकित हुए बिना न रह सके। पत्थर के स्तम्भों पर लकड़ी के मोटे बर्गों और शहतीरों से कई-कई खण्डों में निर्मित था वह राजप्रासाद! प्रत्येक खण्ड की अलग विशेषता थी। उसे भवन न कहकर भवन-समूह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। उसका परिसर विशाल है, यह प्रवेश के बाद ही जाना जा सकता है। काष्ठ-कला अद्भुत नमूना है यह!
प्रथम खण्ड में महाराजाधिराज का कोर्ट-रूम था, जहाँ अपने सभासदों के साथ सर्वोच्च आसन पर विराजमान होकर राजा मार्तण्डवर्मा अधिकारियों के साथ विमर्श करके न्याय करते थे। उस कक्ष की महराबें और काष्ठ पर उत्कीर्ण नक्काशियाँ अद्भुत और प्राचीनकाल की हैं, यह देखकर ही समझा जा सकता है। काष्ठ निर्मित सँकरी सीढ़ियाँ प्रथम तल से दूसरे और दूसरे से तीसरे माले पर ले जाती हैं। निर्माण में प्रयुक्त लकड़ियाँ आज भी यथावत् हैं अपनी पूरी चमक और आन-बान-शान के साथ।
तीन शताब्दी पहले दक्षिण के एक सर्वसमर्थ, शासन की धुरी, विस्तृत भू-भाग के एकछत्र स्वामी महाराजाधिराज क्या ऐसे भवन में निवास करते थे? यह सोचकर भी आश्चर्य होता है। 300 वर्ष पूर्व महाराज मार्तण्डवर्मा ने ही अपने प्रयत्नों से पद्मनाभस्वामी मंदिर का कायाकल्प किया था। तीन सौ वर्ष--उंगलियों पर गिनी जानेवाली तीन शताब्दियां, लेकिन इन तीन शताब्दियों में न जाने कितनी पीढ़ियाँ आयी-गयीं, जाने कितना-कुछ बदल गया भारत के इस भूमि-खण्ड पर!
मैने उत्तर भारत के अनेक राजप्रासादों को देखा है, मुगल-काल के अनेक बादशाहों के किले देखे हैं, किन्तु सुदूर दक्षिण के पद्मनाभपुरम् के मार्तण्डवर्मा के महल की सादगी और सुरुचि मुझे प्रभावित करती है और मुझे विस्मित भी करती है। धर्म में गहरी आस्था रखनेवाले और युगानुरूप आसन्न संकटों-अवरोधों से जूझनेवाले राजा मार्तण्डवर्मा ने अपने जीवनकाल में अद्भुत शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था। मात्र 53 वर्ष की जीवन-यात्रा में उन्होंने त्रावणकोर की बिखरी हुई रियासतों को एकीकृत किया, पद्मनाभस्वामी मंदिर के वैभव का विस्तार किया, डच सैन्य शक्ति का डटकर सामना किया और अनेक समुद्री युद्धों में उन्हें परास्त कर उनकी विस्तारवादी नीतियों पर विराम लगाया। दो प्रमुख सेना-नायकों और ग्यारह हज़ार डच सैनिकों को उन्होंने युद्धबंदी बनाया तथा उदयगिरि के बंदीगृह में डाल दिया। कालान्तर में राजा मार्तण्ड वर्मा ने दया दिखाते हुए युद्धबंदियों को इस शर्त पर रिहा कर दिया कि वे फिर कभी भारत-भूमि पर दिखाई न दें और उन्हें अपने सैन्य संरक्षण में कोलंबो तक भेजा, लेकिन दोनों सेना-नायकों को बंदीगृह में ही रहने दिया। बाद में थोड़ी नर्मी दिखाते हुए उन्होंने अपनी सेना को प्रशिक्षित करने का काम उन्हें सौंपा, जिसे वे दोनों आजीवन करते रहे।...
सोचता हूँ, दक्षिण भारत के ऐसे धर्मरक्षक, वीर सपूत, पद्मनाभस्वामी के चरण-सेवक मात्र 53 वर्षों के अपने छोटे-से जीवनकाल में इतने सारे महत्व के काम कैसे कर सके और वह भी अपने इस छोटे-से राजप्रासाद से? कैसे...? खेद की बात है कि धर्म की धुरी माने जानेवाले, देश की अस्मिता और गौरव के रक्षक, अखण्ड भारत की संप्रभुता के ध्वजवाहक राजा मार्तण्ड वर्मा की प्रेरक जीवन-कथा को एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में कहीं स्थान न मिला।
मैं तो देख आया दर्शनार्थियों की भीड़ से भरा हुआ राजन् का राजमहल, जहाँ का वैभव विलुप्त हो चुका है, लेकिन समय ठिठका-सहमा-दुबका खड़ा है महल के हर कक्ष में, गलियारों में, सँकरी सीढ़ियों के नीचे, पूजा-गृह में, माता के कमरे में, राजा की शय्या के नीचे, अतिथि-भवन 'इन्द्र विलास' में, परकोटों पर--और छोटे-छोटे गवाक्षों से झाँकते हुए...! क्या आप इसे देखना न चाहेंगे...?
--आनन्द.
01-10-2017.
चित्र-परिचय : 1) राज-प्रासाद का प्रवेश-द्वार, 2) महाराजाधिराज मार्तण्ड वर्मा 3) राजन की न्यायशाला,
4) प्रासाद के गलियारे में सपत्नीक, जब एक बाँकी किरण गृह-लक्ष्मी की हथेलियों पर आकर ठहर गयी।
4) प्रासाद के गलियारे में सपत्नीक, जब एक बाँकी किरण गृह-लक्ष्मी की हथेलियों पर आकर ठहर गयी।
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-10-2017) को
"थूकना अच्छा नहीं" चर्चामंच 2753
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कहाँ है ब्लॉग का पाठक वर्ग??
Badhiya post
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