दिल्ली के पाँच वर्षों के प्रवास में एक ही मुहल्ले मे रहते हुए शमशेरजी से बार-बार मिलने, उनसे बातें करने, उनके घर जाने, उन्हें जानने-समझने का मुझे खूब मौका मिला। उनका रहन-सहन बहुत सामान्य था। वह भी पुस्तकों-पाण्डुलिपियों और फाइलों से घिरे मिले हर बार। ये मसिजीवी लोग आजीवन कितना श्रम करते हैं, यह मैं पिताजी को देखकर जानता ही था, ठीक वैसी ही दशा शमशेरजी की भी थी; जिसका अनुमान सामान्य जन नहीं कर सकते। मैं जब कभी उनके घर गया, वह मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये अक्षरों से आँखें फोड़ते मिले। जो आँखें अब ज्योतिहीन हो चली थीं। एक बार की मुलाक़ात में उनकी आँखों की दशा देखते हुए मैंने उनसे यह कहने का साहस किया कि 'जब आँखें साथ नहीं दे रहीं तो आप लिखने-पढ़ने का इतना काम क्यों करते हैं? आँखों को अब थोड़ा विश्राम क्यों नहीं देते?' उन्होंने अजीब नजरों से देखा था मुझे, लेकिन उस दृष्टि-प्रक्षेप में आर्त्त भाव बिल्कुल नहीं था, बल्कि आश्चर्य का आकुल आवेग था। उन्होंने कहा था--'यही तो है खुराक मेरी। खुराक न लूँगा तो कैसे चलेगा?' फिर जैसे उन्हें सहसा याद आया हो, बोले--'ठहरो, मैं तुम्हें एक पुरानी कविता सुनाता हूँ और स्मृति पर जोर डालते हुए उन्होंने वह कविता मुझे सुनायी--
"चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी ।
जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर ।
किंतु मैं हूँ मौन आज
कहाँ सजे मैंने साज
अभी ।
सरल से भी गूढ़, गूढ़तर
तत्त्व निकलेंगे
अमित विषमय
जब मथेगा प्रेम सागर
हृदय ।
निकटतम सबकी
अपर शौर्यों की
तुम
तब बनोगी एक
गहन मायामय
प्राप्त सुख
तुम बनोगी तब
प्राप्य जय !"
यह कविता बहुत पहले की लिखी है, संभवतः 1941 की। वह शब्दों में जीवन-सत्य रचनेवाले कवि थे। पूरी कविता सुनकर मेरे पास कहने को कुछ शेष नहीं था। हाँ, यह जरूर समझ सका था कि शब्द-साधक शमशेरजी कहीं रुककर विश्राम के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं।
किसी काम से पिताजी ने एक बार सुबह-सुबह मुझे उनके घर भेजा। मैं पहुँचा तो ज्ञात हुआ, वह सुबह की सैर पर गये हैं, अब आते ही होंगे। मैं घर के बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में शमशेरजी आते दिखे। थके हुए लगे। पास आये तो मैंने प्रणाम किया। यत्नपूर्वक वह मुस्कुराये और बगल की कुर्सी पर बैठ गए। मैंने बेवकूफ़ी भरा प्रश्न किया--'कैसे हैं आप?' जबकि सामने दीख रहा था, वह ठीक नहीं थे। लंबी चहलकदमी ने उन्हें क्लांत कर दिया था। एक विदीर्ण हँसी हँसकर बोले--'थोड़ा थक गया हूँ और कोई बात नहीं।' इतना कहकर वह दम साधने लगे। मैं चुपचाप बैठा उनकी मुखाकृति पर नज़रें टिकाये रहा। पाँच-छह मिनट बाद ही एक लंबे-चौड़े युवक चाय की दो प्यालियाँ ले आये। शमशेरजी के इशारे पर हम चाय की चुस्कियां लेने लगे। यौवन की उमंग गहराई में उतरने नहीं देती, वह अपनी ही तरंग में ऊपर-ऊपर मचलती रहती है, मैंने उसी तरंग में फिर एक बात दुहरायी--'जब अज़हद थकान हो जाती है तो आपको सुबह की इतनी लंबी पदयात्रा नहीं करनी चाहिये। बहुत इच्छा हो तो यहीं थोड़ा टहल लिया करें और फिर विश्राम...।'
उन्होंने अपने चश्मे के मोटे शीशे से आँख गड़ाकर मुझे यूँ देखा, जैसा अक्सर छोटे मुँह से बड़ी बात निकल जाने पर लोग देखा करते हैं। मैं संकुचित हुआ, लगा नाहक बोल बोल बैठा। लेकिन शमशेरजी ने जैसे मेरी मुख-मुद्रा और भाव-भंगिमा से मेरे मन में उठ रही बात पढ़ ली हो, वह दो क्षण ठहरकर बोले--"जानता हूँ, तुम मेरी हितचिंता में ही ऐसा कह रहे हो, लेकिन विधि ने मेरे भाग्य में विश्राम लिखा कहाँ है! बहुत पहले एक कविता में मैंने विधि को ललकारते हुए कहा था--'काल तुझसे होड़ मेरी'। उसका एक अंश सुनो--
'काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू--
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो--
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं--तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !'
लगता है, नियति को मेरी यह ललकार अच्छी नहीं लगी। वह जीवन-भर मेरी परीक्षा लेती रही और मैं उसकी। न उसने अपनी टेक छोड़ी और न मैंने अपनी आन तोड़ी। अब विश्राम नहीं करना है, बस चलना है/ पथ पर चलना है।"
मुझे प्रतीत हुआ कि वह अपनी पुरानी कविता का अंश सुनाकर फिर कविता करने लगे हैं।...उनके यहाँ से लौटते हुए काव्य-पंक्तियाँ बढ़ते हुए हर क़दम पर मन में घूर्णित हो रही थीं--'चुका भी हूँ मैं नहीं'!.... उनका जीवट मुझे चकित कर रहा था।...
सन् 1978 में मेरे विवाह के बाद वधू-स्वागत समारोह में शमशेरजी भी पधारे थे। इस अवसर पर उन्होंने कैफ़ी आज़मी की एक काव्य-पुस्तक भेंटस्वरूप मुझे दी थी--'आवारा सज़्दे' और उसके पहले पृष्ठ पर उन्होंने सप्रीत लिखा था--"आनन्द-साधना की जोड़ी जुग-जुग जिये।--हार्दिक आशीर्वाद और अमित शुभकामनाओं-सहित--" पुस्तक आज भी पटना के संग्रह में सुरक्षित होगी कहीं, लेकिन कितनी जर्जर हो चुकी होगी, कहना कठिन है।
सन् 1979 के अंत में हम दिल्ली छोड़ आये थे। शमशेरजी से मुलाक़ातें अलभ्य हो गयी थीं। कभी-कभार उनकी चिट्ठी पिताजी के पास आ जाती थी, लेकिन क्रमशः उसकी गति भी शिथिल होती गयी। अब मास-वर्ष तो याद नहीं रहा, लेकिन शायद वह 1988-89 का साल रहा होगा, जब शमशेरजी पटना पधारे थे, किसी जनवादी विमर्श की कार्यशाला की सदारत करने के लिए। मुझे पता चला, तो मैं उनके दर्शन के लिए उस चिंतन-शिविर में जा पहुँचा। कार्यशाला में बहुत भीड़ तो नहीं थी, लेकिन वामपंथी कामरेडों की खासी हलचल थी। शमशेरजी कृशकायी तो थे ही, इस बार कुछ अधिक दुर्बल दीख रहे थे। मैं घण्टा-भर वहीं पिछली पंक्ति में ख़ामोश बैठा रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि कार्यशाला समाप्त हो तथा दो क्षण के लिए शमशेरजी इस भीड़-भाड़ से छूटकर एकांत में मिल जायें। लेकिन लंबे इंतज़ार के बाद भी ऐसा अवसर मुझे मिलता दिखाई न पड़ा। मैं निराश होने लगा और अंततः गोष्ठी से शमशेरजी को देखता हुआ बाहर निकल आया। आज भी उस दिन शमशेरजी से न मिल पाने की याद आती है तो मन में एक टीस-सी उभरती है। काश, दो पल के लिये उनसे मिलना हो पाता; क्योंकि वही उनका अंतिम और दूर का दर्शन सिद्ध हुआ।
'काल तुझसे होड़ मेरी' और 'चुका भी हूँ मैं नहीं' जैसी सबल उद्घोषणा से नियति को चुनौती देनेवाले शमशेरजी को भी अंततः सन् 1993 में चुक जाना पड़ा। मरणधर्मा शरीर को तो चुकना ही होता है। यही जगत् नियम है, लेकिन शमशेरजी के अचानक चल देने पर पिताजी ने दुखी होकर कहा था--'मुझे हमेशा आगे करके चलनेवाले शमशेर इस मोड़ पर अग्रगामी कैसे हो गये। उनसे पहले मुझे जाना चाहिए था।'
मेरा विश्वास है, शमशेरजी-जैसे लोग कभी चुकते नहीं। अपने व्यापक श्रम और साहित्य की विपुल संपदा में वह सदा जीवित रहते हैं, रहेंगे।...
(समाप्त)
"चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी ।
जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर ।
किंतु मैं हूँ मौन आज
कहाँ सजे मैंने साज
अभी ।
सरल से भी गूढ़, गूढ़तर
तत्त्व निकलेंगे
अमित विषमय
जब मथेगा प्रेम सागर
हृदय ।
निकटतम सबकी
अपर शौर्यों की
तुम
तब बनोगी एक
गहन मायामय
प्राप्त सुख
तुम बनोगी तब
प्राप्य जय !"
यह कविता बहुत पहले की लिखी है, संभवतः 1941 की। वह शब्दों में जीवन-सत्य रचनेवाले कवि थे। पूरी कविता सुनकर मेरे पास कहने को कुछ शेष नहीं था। हाँ, यह जरूर समझ सका था कि शब्द-साधक शमशेरजी कहीं रुककर विश्राम के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं।
किसी काम से पिताजी ने एक बार सुबह-सुबह मुझे उनके घर भेजा। मैं पहुँचा तो ज्ञात हुआ, वह सुबह की सैर पर गये हैं, अब आते ही होंगे। मैं घर के बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में शमशेरजी आते दिखे। थके हुए लगे। पास आये तो मैंने प्रणाम किया। यत्नपूर्वक वह मुस्कुराये और बगल की कुर्सी पर बैठ गए। मैंने बेवकूफ़ी भरा प्रश्न किया--'कैसे हैं आप?' जबकि सामने दीख रहा था, वह ठीक नहीं थे। लंबी चहलकदमी ने उन्हें क्लांत कर दिया था। एक विदीर्ण हँसी हँसकर बोले--'थोड़ा थक गया हूँ और कोई बात नहीं।' इतना कहकर वह दम साधने लगे। मैं चुपचाप बैठा उनकी मुखाकृति पर नज़रें टिकाये रहा। पाँच-छह मिनट बाद ही एक लंबे-चौड़े युवक चाय की दो प्यालियाँ ले आये। शमशेरजी के इशारे पर हम चाय की चुस्कियां लेने लगे। यौवन की उमंग गहराई में उतरने नहीं देती, वह अपनी ही तरंग में ऊपर-ऊपर मचलती रहती है, मैंने उसी तरंग में फिर एक बात दुहरायी--'जब अज़हद थकान हो जाती है तो आपको सुबह की इतनी लंबी पदयात्रा नहीं करनी चाहिये। बहुत इच्छा हो तो यहीं थोड़ा टहल लिया करें और फिर विश्राम...।'
उन्होंने अपने चश्मे के मोटे शीशे से आँख गड़ाकर मुझे यूँ देखा, जैसा अक्सर छोटे मुँह से बड़ी बात निकल जाने पर लोग देखा करते हैं। मैं संकुचित हुआ, लगा नाहक बोल बोल बैठा। लेकिन शमशेरजी ने जैसे मेरी मुख-मुद्रा और भाव-भंगिमा से मेरे मन में उठ रही बात पढ़ ली हो, वह दो क्षण ठहरकर बोले--"जानता हूँ, तुम मेरी हितचिंता में ही ऐसा कह रहे हो, लेकिन विधि ने मेरे भाग्य में विश्राम लिखा कहाँ है! बहुत पहले एक कविता में मैंने विधि को ललकारते हुए कहा था--'काल तुझसे होड़ मेरी'। उसका एक अंश सुनो--
'काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू--
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो--
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं--तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !'
लगता है, नियति को मेरी यह ललकार अच्छी नहीं लगी। वह जीवन-भर मेरी परीक्षा लेती रही और मैं उसकी। न उसने अपनी टेक छोड़ी और न मैंने अपनी आन तोड़ी। अब विश्राम नहीं करना है, बस चलना है/ पथ पर चलना है।"
मुझे प्रतीत हुआ कि वह अपनी पुरानी कविता का अंश सुनाकर फिर कविता करने लगे हैं।...उनके यहाँ से लौटते हुए काव्य-पंक्तियाँ बढ़ते हुए हर क़दम पर मन में घूर्णित हो रही थीं--'चुका भी हूँ मैं नहीं'!.... उनका जीवट मुझे चकित कर रहा था।...
सन् 1978 में मेरे विवाह के बाद वधू-स्वागत समारोह में शमशेरजी भी पधारे थे। इस अवसर पर उन्होंने कैफ़ी आज़मी की एक काव्य-पुस्तक भेंटस्वरूप मुझे दी थी--'आवारा सज़्दे' और उसके पहले पृष्ठ पर उन्होंने सप्रीत लिखा था--"आनन्द-साधना की जोड़ी जुग-जुग जिये।--हार्दिक आशीर्वाद और अमित शुभकामनाओं-सहित--" पुस्तक आज भी पटना के संग्रह में सुरक्षित होगी कहीं, लेकिन कितनी जर्जर हो चुकी होगी, कहना कठिन है।
सन् 1979 के अंत में हम दिल्ली छोड़ आये थे। शमशेरजी से मुलाक़ातें अलभ्य हो गयी थीं। कभी-कभार उनकी चिट्ठी पिताजी के पास आ जाती थी, लेकिन क्रमशः उसकी गति भी शिथिल होती गयी। अब मास-वर्ष तो याद नहीं रहा, लेकिन शायद वह 1988-89 का साल रहा होगा, जब शमशेरजी पटना पधारे थे, किसी जनवादी विमर्श की कार्यशाला की सदारत करने के लिए। मुझे पता चला, तो मैं उनके दर्शन के लिए उस चिंतन-शिविर में जा पहुँचा। कार्यशाला में बहुत भीड़ तो नहीं थी, लेकिन वामपंथी कामरेडों की खासी हलचल थी। शमशेरजी कृशकायी तो थे ही, इस बार कुछ अधिक दुर्बल दीख रहे थे। मैं घण्टा-भर वहीं पिछली पंक्ति में ख़ामोश बैठा रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि कार्यशाला समाप्त हो तथा दो क्षण के लिए शमशेरजी इस भीड़-भाड़ से छूटकर एकांत में मिल जायें। लेकिन लंबे इंतज़ार के बाद भी ऐसा अवसर मुझे मिलता दिखाई न पड़ा। मैं निराश होने लगा और अंततः गोष्ठी से शमशेरजी को देखता हुआ बाहर निकल आया। आज भी उस दिन शमशेरजी से न मिल पाने की याद आती है तो मन में एक टीस-सी उभरती है। काश, दो पल के लिये उनसे मिलना हो पाता; क्योंकि वही उनका अंतिम और दूर का दर्शन सिद्ध हुआ।
'काल तुझसे होड़ मेरी' और 'चुका भी हूँ मैं नहीं' जैसी सबल उद्घोषणा से नियति को चुनौती देनेवाले शमशेरजी को भी अंततः सन् 1993 में चुक जाना पड़ा। मरणधर्मा शरीर को तो चुकना ही होता है। यही जगत् नियम है, लेकिन शमशेरजी के अचानक चल देने पर पिताजी ने दुखी होकर कहा था--'मुझे हमेशा आगे करके चलनेवाले शमशेर इस मोड़ पर अग्रगामी कैसे हो गये। उनसे पहले मुझे जाना चाहिए था।'
मेरा विश्वास है, शमशेरजी-जैसे लोग कभी चुकते नहीं। अपने व्यापक श्रम और साहित्य की विपुल संपदा में वह सदा जीवित रहते हैं, रहेंगे।...
(समाप्त)
3 टिप्पणियां:
हृदयस्पर्शी संस्मरण ।
आभारी हूँ मीना शर्माजी...!
Thank you sir
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