[भ्रमण-कथा-2]
अब तो ठीक-ठीक याद भी नहीं आता कि कितने वर्षों बाद मिला मैं अभिन्न बंधु, आत्मीय स्वजन, कानपुर-प्रवास की मित्रता के हमारे त्रय (ध्रुवेन्द्र-ईश्वर-मैं) की मजबूत कड़ी और मेरी ही राह के सहयात्री ईश्वरचंद्र दुबे से।...योग-वियोग का गणित बिठाऊँ तो लगता है, 32-35 वर्षों का लंबा अरसा तो अपनी-अपनी जीवन-धारा में बहते हुए व्यतीत हो ही गया है और तब मिलना हुआ है मित्रवर ईश्वर से।
28 दिसम्बर की सुबह मित्रवर ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही सपत्नीक चारबाग (लखनऊ) बस स्टैंड तक अपने बेटे की कार से आये, कार सुपुत्र ही चला ले आये और वे मुझे उ.प्र. राज्य परिवहन की एक वातानुकूलित बस में बिठा गये। दो-ढाई घंटे की यात्रा करके मैं कानपुर पहुँच गया। योजनानुसार बिछड़े हुए मित्र से मिलना सुनिश्चित कर चुका था मैं। थोड़ी खोज-बीन से मुझे उनका अपूर्ण पता मिला और 29-12-2017 की सुबह उत्साह से भरा मैं चल पड़ा ईश्वर की तलाश में।...
ईश्वरानुसंधान में सन्नद्ध बृहत्तर समाज जानता है कि ईश्वर आसानी से नहीं मिलते। मुझे भी नहीं मिले ईश्वर सहजता से। उन्हें पाने के लिए लंबी कैब और पद-यात्रा मुझे भी करनी पड़ी। और जब मैं उनके सिद्धासन तक जा पहुँचा तो विस्मित हुआ। विस्मित और हतप्रभ होने के पुष्ट कारण सम्मुख थे।
मेरे जिन मित्रों ने 'मेरी परलोक चर्चा' की कड़ियाँ मनोयोग से पढ़ी हैं, वे सभी ईश्वर से परिचित होंगे। वे यह भी जानते होंगे कि सन् 1977 में स्थानान्तरण लेकर मैं कानपुर से दिल्ली चला गया था। कानपुर-त्याग से यहाँ के सभी मित्रों का साथ-संग तो छूट गया, लेकिन संबंध अविच्छिन्न बने रहे। कई वर्षों के बाद एक बार जब कानपुर आया तो ईश्वर के विवाह की बातें चल रही थीं। मेरी अचानक उपस्थिति का लाभ उठाकर ईश्वर ने मुझे, ध्रुवेन्द्र और अनुज हरिश्चंद्र को ही अगुआ बना दिया। हम सभी कन्या-निरीक्षण कर आये, लेकिन मेरे 'वीटो पावर' से कालान्तर में उसी कन्या से ईश्वर का विवाह हुआ, जो आज मेरी स्नेहमयी 'लक्ष्मी भाभी' हैं।... खेद इसी बात का है कि पारिवारिक कारणों से मैं उनके विवाह में शामिल न हो सका।...
उस ज़माने में, परलोक चर्चा की जो धूनी मैंने रमाई थी, ईश्वर उससे उपजी ऊर्जा का सर्वाधिक आनन्द लेते रहे और मेरे पराविलास के उत्सुक-अधीर सहयोगी बने। खानाबदोशी की ज़िन्दगी में कितने तीखे मोड़ लेता हुआ मैं उस पथ से अंततः विलग हो गया, जिसे पूज्य पिताजी और अन्य बुजुर्गों ने 'अंधकार की दुनिया' कहा था। लेकिन, ईश्वर उसी 'अंधकार की दुनिया' से अलौकिक प्रकाश और अनूठी ज्योति ले आने में सफल हुए। इसकी मुझे प्रसन्नता है। आज वह माँ काली के अनन्य उपासक और सिद्धपीठ के अधिष्ठाता भी हैं। वह लोकोपकार का दायित्व निभाने में लगे रहते हैं।
ईश्वर के पास जाने के पहले मैंने उन्हें अपने संवाद में एक शेर लिख भेजा था--
'गुलाब, ख्वाब, दवा, जहर, जाम क्या-क्या है,
मैं आ गया हूँ, बता इंतजाम क्या-क्या है?'
इतने वर्षों बाद उनसे और उनके पूरे परिवार से मिलकर मैं विस्मित हुए बिना न रह सका, क्योंकि मिलने की जो तड़प, व्यग्रता, उत्सुकता और अधीरता इधर थी, वही ईश्वर के घर के जर्रे-जर्रे में व्याप्त थी। मेरी अगवानी में सेवक नियुक्त किये जा चुके थे। वे मुझे ईश्वर के भव्य ड्राइंग रूम में सादर बिठा गये और बस, थोड़ी देर में प्रकट हुए ईश्वर! उन्हें देखकर मैं अपने युग के ईश्वर के अक्स थोड़ी देर तक तलाशता रहा। उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में व्यापक परिवर्तन हुआ है। पहचानना कठिन था, लेकिन दो क्षण उनके चेहरे पर दृष्टि गड़ाने पर मुझे मेरे ईश्वर दृष्टिगोचर हुए। हम हुलसकर गले मिले और सुख-सागर में डूब गये। भाभी आयीं और दोनों सुपुत्र भी, बड़ी बहू भी। भाभी कहती न अघायीं कि मैं वही हूँ, जो ईश्वर के जीवन में उन्हें ले आया। ईश्वर ने विनोद में कहा--'तुम्हीं ने मेरे गले में संसार का पट्टा बाँधा और गायब हो गये।'
उन्हें भी सबकुछ याद रहा और हम स्मृतियों में गोते लगाते रहे। हमारी बातों का अंत नहीं था और पूरे परिवार ने आग्रहपूर्वक मुझे इतना खिलाया, जितना ग्रहण करने की मेरी स्थिति नहीं थी। मित्र के आतिथ्य और प्रेम के आधिक्य से मैं आकंठ तृप्त हुआ जब लौट रहा था तो मन की दशा विचित्र थी... कितना कुछ उमड़-घुमड़ रहा था हृदयाकाश में।...
अपने इन पुराने और बिछड़े हुए मित्रों से हुई मुलाक़ातों को मैं वर्ष 2017 की बड़ी उपलब्धि मानता हूँ, जो अब अतीत का ग्रास होनेवाला है। मैं वापसी की राह पर हूँ, और अभिन्न बंधुओं को कहना चाहता हूँ--'कलेजे में नयी ऊर्जा और ताजा हवाएँ भरने के लिए नये साल में फिर मिलूँगा दोस्तों!'...
'यह पथ भी बंधु है मेरा!
पथ, तू ले चल मुझे
जिस ओर चला तू,
चलता हूँ साथ,
बंधु हूँ तेरा!
यह पथ बंधु है मेरा!...
पर, सुन ले स्पष्ट तू, साफ-साफ--
लौटा लायेगा न इसी द्वार
आश्वस्त कर मुझको,
यहाँ छूट रहा है बंधु मेरा!
यह पथ बंधु है मेरा!...'
(--आनन्द)
'अलविदा वर्ष 2017,
--नववर्षाभिनन्दन'!
[चित्र : 1) मेरे मित्र ईश्वर 2) जगत्-मित्र ईश्वर और 3) लक्ष्मी भाभी-ईश्वर के साथ मैं.]
अब तो ठीक-ठीक याद भी नहीं आता कि कितने वर्षों बाद मिला मैं अभिन्न बंधु, आत्मीय स्वजन, कानपुर-प्रवास की मित्रता के हमारे त्रय (ध्रुवेन्द्र-ईश्वर-मैं) की मजबूत कड़ी और मेरी ही राह के सहयात्री ईश्वरचंद्र दुबे से।...योग-वियोग का गणित बिठाऊँ तो लगता है, 32-35 वर्षों का लंबा अरसा तो अपनी-अपनी जीवन-धारा में बहते हुए व्यतीत हो ही गया है और तब मिलना हुआ है मित्रवर ईश्वर से।
28 दिसम्बर की सुबह मित्रवर ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही सपत्नीक चारबाग (लखनऊ) बस स्टैंड तक अपने बेटे की कार से आये, कार सुपुत्र ही चला ले आये और वे मुझे उ.प्र. राज्य परिवहन की एक वातानुकूलित बस में बिठा गये। दो-ढाई घंटे की यात्रा करके मैं कानपुर पहुँच गया। योजनानुसार बिछड़े हुए मित्र से मिलना सुनिश्चित कर चुका था मैं। थोड़ी खोज-बीन से मुझे उनका अपूर्ण पता मिला और 29-12-2017 की सुबह उत्साह से भरा मैं चल पड़ा ईश्वर की तलाश में।...
ईश्वरानुसंधान में सन्नद्ध बृहत्तर समाज जानता है कि ईश्वर आसानी से नहीं मिलते। मुझे भी नहीं मिले ईश्वर सहजता से। उन्हें पाने के लिए लंबी कैब और पद-यात्रा मुझे भी करनी पड़ी। और जब मैं उनके सिद्धासन तक जा पहुँचा तो विस्मित हुआ। विस्मित और हतप्रभ होने के पुष्ट कारण सम्मुख थे।
मेरे जिन मित्रों ने 'मेरी परलोक चर्चा' की कड़ियाँ मनोयोग से पढ़ी हैं, वे सभी ईश्वर से परिचित होंगे। वे यह भी जानते होंगे कि सन् 1977 में स्थानान्तरण लेकर मैं कानपुर से दिल्ली चला गया था। कानपुर-त्याग से यहाँ के सभी मित्रों का साथ-संग तो छूट गया, लेकिन संबंध अविच्छिन्न बने रहे। कई वर्षों के बाद एक बार जब कानपुर आया तो ईश्वर के विवाह की बातें चल रही थीं। मेरी अचानक उपस्थिति का लाभ उठाकर ईश्वर ने मुझे, ध्रुवेन्द्र और अनुज हरिश्चंद्र को ही अगुआ बना दिया। हम सभी कन्या-निरीक्षण कर आये, लेकिन मेरे 'वीटो पावर' से कालान्तर में उसी कन्या से ईश्वर का विवाह हुआ, जो आज मेरी स्नेहमयी 'लक्ष्मी भाभी' हैं।... खेद इसी बात का है कि पारिवारिक कारणों से मैं उनके विवाह में शामिल न हो सका।...
उस ज़माने में, परलोक चर्चा की जो धूनी मैंने रमाई थी, ईश्वर उससे उपजी ऊर्जा का सर्वाधिक आनन्द लेते रहे और मेरे पराविलास के उत्सुक-अधीर सहयोगी बने। खानाबदोशी की ज़िन्दगी में कितने तीखे मोड़ लेता हुआ मैं उस पथ से अंततः विलग हो गया, जिसे पूज्य पिताजी और अन्य बुजुर्गों ने 'अंधकार की दुनिया' कहा था। लेकिन, ईश्वर उसी 'अंधकार की दुनिया' से अलौकिक प्रकाश और अनूठी ज्योति ले आने में सफल हुए। इसकी मुझे प्रसन्नता है। आज वह माँ काली के अनन्य उपासक और सिद्धपीठ के अधिष्ठाता भी हैं। वह लोकोपकार का दायित्व निभाने में लगे रहते हैं।
ईश्वर के पास जाने के पहले मैंने उन्हें अपने संवाद में एक शेर लिख भेजा था--
'गुलाब, ख्वाब, दवा, जहर, जाम क्या-क्या है,
मैं आ गया हूँ, बता इंतजाम क्या-क्या है?'
इतने वर्षों बाद उनसे और उनके पूरे परिवार से मिलकर मैं विस्मित हुए बिना न रह सका, क्योंकि मिलने की जो तड़प, व्यग्रता, उत्सुकता और अधीरता इधर थी, वही ईश्वर के घर के जर्रे-जर्रे में व्याप्त थी। मेरी अगवानी में सेवक नियुक्त किये जा चुके थे। वे मुझे ईश्वर के भव्य ड्राइंग रूम में सादर बिठा गये और बस, थोड़ी देर में प्रकट हुए ईश्वर! उन्हें देखकर मैं अपने युग के ईश्वर के अक्स थोड़ी देर तक तलाशता रहा। उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में व्यापक परिवर्तन हुआ है। पहचानना कठिन था, लेकिन दो क्षण उनके चेहरे पर दृष्टि गड़ाने पर मुझे मेरे ईश्वर दृष्टिगोचर हुए। हम हुलसकर गले मिले और सुख-सागर में डूब गये। भाभी आयीं और दोनों सुपुत्र भी, बड़ी बहू भी। भाभी कहती न अघायीं कि मैं वही हूँ, जो ईश्वर के जीवन में उन्हें ले आया। ईश्वर ने विनोद में कहा--'तुम्हीं ने मेरे गले में संसार का पट्टा बाँधा और गायब हो गये।'
उन्हें भी सबकुछ याद रहा और हम स्मृतियों में गोते लगाते रहे। हमारी बातों का अंत नहीं था और पूरे परिवार ने आग्रहपूर्वक मुझे इतना खिलाया, जितना ग्रहण करने की मेरी स्थिति नहीं थी। मित्र के आतिथ्य और प्रेम के आधिक्य से मैं आकंठ तृप्त हुआ जब लौट रहा था तो मन की दशा विचित्र थी... कितना कुछ उमड़-घुमड़ रहा था हृदयाकाश में।...
अपने इन पुराने और बिछड़े हुए मित्रों से हुई मुलाक़ातों को मैं वर्ष 2017 की बड़ी उपलब्धि मानता हूँ, जो अब अतीत का ग्रास होनेवाला है। मैं वापसी की राह पर हूँ, और अभिन्न बंधुओं को कहना चाहता हूँ--'कलेजे में नयी ऊर्जा और ताजा हवाएँ भरने के लिए नये साल में फिर मिलूँगा दोस्तों!'...
'यह पथ भी बंधु है मेरा!
पथ, तू ले चल मुझे
जिस ओर चला तू,
चलता हूँ साथ,
बंधु हूँ तेरा!
यह पथ बंधु है मेरा!...
पर, सुन ले स्पष्ट तू, साफ-साफ--
लौटा लायेगा न इसी द्वार
आश्वस्त कर मुझको,
यहाँ छूट रहा है बंधु मेरा!
यह पथ बंधु है मेरा!...'
(--आनन्द)
'अलविदा वर्ष 2017,
--नववर्षाभिनन्दन'!
[चित्र : 1) मेरे मित्र ईश्वर 2) जगत्-मित्र ईश्वर और 3) लक्ष्मी भाभी-ईश्वर के साथ मैं.]
1 टिप्पणी:
वाह बहुत सुन्दर ।
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