[भ्रमण-कथा]
मेरी उत्तर प्रदेश की भ्रमण-कथा में एक महत्वपूर्ण क्षेपक रह गया...! 'रह गया' का तात्पर्य यह नहीं कि वह छूट गया, बल्कि जान-बूझकर रोक रखा गया, ताकि कानपुर-प्रवास के उन क्षेपक प्रसंगों को ही मैं समापन-कथा बना सकूँ। कानपुर का प्रवास चार दिनों का था, गणना के हिसाब से सबसे अधिक दिनों का। पटना के सहपाठी मित्र मित्र विनोद कपूर के घर दो दिन, अभिन्न बंधु ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही के घर दो दिन और शेष चार दिन कानपुर के साढ़ूभाई सुनील तिवारी के घर। इस प्रवास के आठ दिन और दो दिन यात्रा में व्यतीत होने के--कुल मिलाकर दस दिन! साधनाजी का शीतकालीन अवकाश बस इतना ही तो था। उन्हें हर हाल में 2 जनवरी तक पुणे पहुँच जाना था। 3 जनवरी से उन्हें लगानी थी विद्यालय की दौड़। यात्रा-पथ बदल जाने से एक दिन का हमें अतिरिक्त लाभ मिला। जानता हूँ, इस रोजनामचे में आपकी रुचि भला क्या होगी, लिहाजा सीधे मूल कथ्य पर आता हूँ।
29 दिसम्बर को जब मैं बंधुवर ईश्वर से मिल आया तो मुझे उनके अनुज हरि की याद आयी। उनसे मिले हुए भी बहुत लंबा अरसा हो गया था। हरि की याद के साथ याद आये पुराने दिन--1976-77 के। स्वदेशी कॉटन मिल्स के दिन! कानपुर में स्थापित हो जाने के पाँच-एक महीने बाद ही ईश्वर अपने अनुगत अनुज हरि को गाँव से अपने साथ ले आये थे। तब तक ईश्वर-ध्रुवेन्द्र और मैं गम्भीर मैत्री-सूत्र में बँध चुके थे, हम साथ-साथ रहते, खाते-पीते, मौज-मस्ती करते। ऊपर कोई नाथ नहीं थे, किसी के हाथ में हमारा पगहा भी नहीं था, हम छुट्टे युवा थे और मनमौजी भी। हवा की तरंगों पर तरंगित होते रहते थे हम तीनों! मेरे परा-विलास के कौतुकों में ईश्वर बहुत रुचि लेते और ध्रुवेन्द्र मेरे इस कृत्य के कठोर आलोचक थे। ईश्वर के सहयोग से मेरी शक्ति बढ़ गयी थी। हम दिन-भर तो साथ रहते ही, कई-कई रातें भी परा-विलास-रत साथ बिताते।
ईश्वर के अनुज हरिश्चंद्र के आ जाने से इस साथ-संग और एकांत साधना में व्यवधान पड़ा। शाम होते ही ईश्वर कहने लगते--'अब मैं जाता हूँ, हरि अकेला है डेरे पर।' और, वह चले जाते, लेकिन परा-विलास का सुख ऐसा तीखा नशा है, जिसके सिर चढ़ जाय, आसानी से उतरता नहीं। शीघ्र ही ईश्वर के आमंत्रण पर हमारा नैश-सम्मेलन ईश्वरचंद्र दुबे के घर होने लगा।
हम वहीं ईश्वर के छोटे भाई हरिश्चंद्र दुबे से मिलने लगे।
वह बहुत ज़हीन, शिष्ट-शालीन, सभ्य-सुसंस्कृत और अनुगत किशोर थे। विनम्रता उनकी उत्कृष्ट विशेषता थी, बड़े-बुजुर्गों के सम्मुख नत रहना उनकी जन्मना वृत्ति थी, आज्ञाकारिता उनका आभूषण थी और सोने पर सुहागा यह कि अनूठा साहित्यानुराग उनके अंतर्मन में पलता था।
रात्रि-सम्मेलन में और परा-शक्तियों को आमंत्रित करने के सुकृत में हरि विस्मयाविभूत, कौतुहल-जड़ बालक की तरह बैठे पलकें झपकाते रहते, किंचित् अविश्वास के साथ। ईश्वर के अनुरोध पर एक रात मैंने उनकी दिवंगता बड़ी माँ का आवाहन किया। वह आयीं और जिन बातों का उन्होंने स्वयं उल्लेख किया, उससे हरि बहुत प्रभावित हुए; क्योंकि उनकी बतायी सारी बातें पूर्णतः सत्य थीं। ईश्वर और हरि--दोनों भाई चकित रह गये थे।...
रात्रिकालीन भोजन और हमारी समस्त सुविधाओं का ख़याल हरि रखते। वह गाँव से लाये गये पाकशास्त्री सेवक को निर्देश देते, व्यस्त रहते। उनकी जिज्ञासाओं का अंत नहीं था। वह मुझसे प्रश्न पूछते जाते और मैं उनकी जिज्ञासा शांत करने की चेष्टा करता रहता। अंततः हरि के 'ध्रुव भैया' चिढ़ जाते और तुनककर कहते--'अब यहाँ खाली भूते-प्रेत बतिआओगे का तुमलोग?' और, यह कहकर ध्रुवेन्द्र बाहर निकल जाते कुहराकशी (धूमपान) के लिए। यह देख हरि संकुचित हो जाते। वह हम तीनों भाइयों में से किसी की नाराज़गी मोल नहीं ले सकते थे। मैं उनसे कहता--'फिक्र मत करो, बीड़ी फूंककर अभी लौट आयेगा नामाकूल!'... ईश्वर सब सुनते और शांत रहते, अपनी मंद-मंद मुस्कान के साथ। उमंग-भरे अजब नशीले दिन थे वे भी, कभी न भुलाये जानेवाले।...
अपने दो-दो ऐंठे हुए अभिन्न (एक तो राजा ठाकुर ध्रुवेन्द्र और दूसरे खड़ी मूंछों और चढ़ी आँखोंवाले जमींदार ईश्वर), किंतु असाहित्यिक मित्रों के बीच हरि का आगमन मुझे तप्त भूमि में शीतल बयार-सा लगा; क्योंकि वह छोटी-छोटी पर्चियों पर मोती-जैसे अक्षरों में कविताएं लिख लाते और मुझसे ससंकोच कहते--'ओझा भइया, जरा देख लीजिएगा इसे?' मैं उनकी छोटी-बड़ी कविताएँ देखता और चकित होता। हरि भी तो उसी बड़े जमींदार परिवार के कुल-दीपक हैं, उनमें इतनी साहित्यिक समझ और साहित्यानुराग कैसे भला?... सच्ची बात तो यह है कि गहरा अनुराग प्रगति की पहली शर्त होता है। यह अनुराग हरि में प्रचुर मात्रा में था। सच्चे अर्थों में वह मेरे भी अनुज बन गये। अब कानपुर में हरि के एक नहीं, तीन-तीन अग्रज थे। वह हम सबका बड़ा ख़याल रखते, आदर देते और हम उन्हें अपनी आन्तरिक प्रीति देते। कानपुर-प्रवास में हमारे बीच हरि की उपस्थिति मुझे अपने छोटे भाई यशोवर्धन ओझा की और ध्रुवेन्द्र को राकेश प्रताप शाही की कमी का अहसास न होने देती। वह हमारे इतने अपने हो गये थे, इतने अंतरंग अनुज! दफ़्तर का व्यवधान न होता तो हम सभी दिन-रात साथ होते।...
सन् 1977 में जब अचानक मुझे स्थानान्तरण का आदेश मिला तो इस सूचना से मित्रों के अलावा जो सबसे ज्यादा संतप्त हुए, वह अनुज हरि ही थे। मुझे याद है, कानपुर स्टेशन पर मुझे विदा करने वह भी आये थे और ठीक विदा के वक्त रुआँसे हो गये थे। वह यात्रा मुझे उनसे दूर ले गयी थी, लेकिन वह मेरे मन से कभी दूर नहीं हुए। यही कारण है कि जब 1978 में मेरा विवाह हुआ तो वधू-स्वागत के अवसर पर ईश्वर ने उन्हें ध्रुवेन्द्र भाई के साथ दिल्ली भेजा था। स्वागत-समारोह में सम्मिलित होकर और दिल्ली के बड़े-बड़े साहित्यकारों के दर्शन कर हरि खिल उठे थे--अतिशय प्रसन्न!
कालान्तर में मुझ अकिंचन को ईश्वर-हरि के पूज्य माता-पिता की सहज प्रीति भी मिली थी। मैं उनका स्नेहभाजन बना था, जबकि दिल्ली-वासी बन जाने के कारण उनसे मेरी मुलाक़ातें न्यूनतम थीं। स्वास्थ्य कारणों से बाद में वे दोनों कानपुर आ गये थे और हरि के पास ही रहने लगे थे। वहाँ भी उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। हरि कानपुर में ही जे.के. सिन्थेटिक्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में नौकरी से लग गये थे। हरि के पिता बड़े प्रज्ञावान नैष्ठिक ब्राह्मण थे और माता अत्यन्त विदुषी महिला थीं। हरि के पिताजी का अपने क्षेत्र में बड़ा मान-सम्मान और प्रभाव था। लेकिन दैव-दुर्विपाकवश सन् 1996 में मस्तिष्क के आघात के कारण वह जीवन-जगत् से मुक्त हो गये। हरि की पूजनीया माताजी ने दीर्घ जीवन पाया था और अंतिम वर्षों में दीर्घायुष्य की यातनाएं सही थीं।...
सन् 1979 के अंत में मैंने दिल्ली छोड़ी और कई शहरों की खाक छानता हुआ अंततः पटना पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर जीवन स्थिर हो गया था--पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझा हुआ। ऐसे में मित्रों-आत्मीयों के लिए अवकाश ही कहाँ था? बरसों-बरस के दिन अपनी उलझी सुलझाने में ही बीत गए।... लेकिन मैं जहाँ भी रहा, हरि का पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र मुझ तक पहुँचता रहा, जबतक पत्रों के आवागमन का जीवन शेष रहा। इसी बीच सन् 1994 में कानपुर से संबंधों के नये तार जुड़े। हर्षनगर-निवासी सुनील तिवारी मेरे साढ़ूभाई बने। साल-दो साल पर उनके पास आना-जाना होने लगा। इसी क्रम में 2007 की गर्मियों में जब मैं कानपुर में था, मुझे हरि की याद आयी तो मैंने उन्हें फ़ोन किया। मेरा स्वर सुनकर आनन्दातिरेक में वह बोले--'मैं आपसे मिलने अभी आता हूँ भइया!' और, दफ़्तर छोड़कर आधे घण्टे में आ पहुँचे हरि! वर्षों बाद मिले थे वह--हुलसित और उत्फुल्ल! हमारी लंबी वार्ताएं हुईं। हमने आपस में दुःख-सुख बाँटे। हरि प्रगति की सीढियां चढ़ते उच्च पद पर आ पहुँचे थे और एक पुत्र और एक पुत्री के पिता बनकर संतुष्ट-प्रसन्न और व्यवस्थित हो चुके थे तथा कमला नगर में कंपनी की काॅलोनी में रहने लगे थे।
हरि ने बताया कि "अम्मा कष्ट में हैं। कूल्हे के दो-दो फ्रैक्चर की पीड़ा झेल चुकी हैं, वाॅकर के सहारे चल पाती हैं और आपको याद करती हैं। पूछा करती हैं--'ओझा बहुत दिनों से कानपुर नहीं आया, हमें तो भूल ही गया शायद।"... हरि से यह सुनकर मैं सिहर उठा। जिन श्रद्धेया के जीवन के परिदृश्य से मैं वर्षों पहले हट गया था, उनकी स्मृतियों के किसी एकांत में मैं आज भी रहता हूँ? आश्चर्य! लेकिन आश्चर्य भी कैसा? उस युग के लोग ऐसे ही स्नेही थे। अम्मा भी वैसी ही थीं--स्नेह लुटानेवाली। मैंने वस्त्र बदले और उनके दर्शन के लिए हरि के साथ तत्काल चल पड़ा।
कई बरस बाद अम्मा के दर्शन कर मन दुखी हो गया। वह वाॅकर से चलते हुए सम्मुख आयीं। अत्यन्त कृश हो गयी थीं। वह बैठ गयीं तो मैंने चरण छुये और बातें शुरू कीं। मेरा ख़याल है, वह अस्सी वर्षों से अधिक का दुःख-सुख देख आयी थीं। रुग्ण थीं, वार्धक्य की अशक्तता ने शरीर तोड़ दिया था, लेकिन अदम्य जिजीविषा थी उनमें, वाणी की टंकार वही थी पहलेवाली। उन्होंने मुझे उलाहने दिये, मेरा हाल पूछा, पुरानी यादें ताज़ा कीं और इतना स्नेह दिया कि मैं आकंठ भर पाया। दो घण्टे बाद उनका आशीर्वाद लेकर जब मैं हरि के घर से लौटा तो मन-प्राण भीगा-भीगा था। उनसे हुई वही मुलाक़ात अंतिम सिद्ध हुई। तीन वर्ष बाद रीढ़ की हड्डी में एक और सांघातिक आघात लेकर वह भी दुनिया से चली गयीं और हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन गयीं।...
वक़्त का एक लंबा टुकड़ा फिर हाथों से फिसल गया।... तात्कालिक कानपुर-प्रवास में, जब अंतिम और एक अतिरिक्त दिन का लाभ मुझे मिला तो अभिन्न अनुज हरि से मिलकर लौटना ही सुनिश्चित हुआ। लखनऊ में ध्रुवेन्द्र ने ताकीद भी की थी कि 'हरि से जरूर मिल लेना, वह तुम्हें बहुत याद करता है।' मैंने हरि से फोन पर संपर्क किया तो वह बज़िद हो गये कि दिन का भोजन आप मेरे घर, मेरे साथ ही करेंगे। मैंने इस झंझट से मुक्ति चाही, क्योंकि पुणे के पथरीले पानी ने पाचन-तंत्र ध्वस्त कर रखा था। लखनऊ में गोमती के और कानपुर में गंगा के मीठे-शीतल और तृप्तिकर जल से पाचन-तंत्र की क्लीनिंग का कार्य प्रगति पर था। पिछले सप्ताह में पच्छिम का सुस्वादु भोजन भी हमने कम तो नहीं किया था न! लेकिन हरि किसी तरह मानने को तैयार नहीं थे। मुझे हामी भरनी पड़ी।
इस वार्ता के दूसरे दिन मैं साधनाजी के साथ हरि के घर गया, जो सुनील भाई के घर से नातिदूर था। हम हरि के घर के छोटे-से आँगन में, धूप में, बैठे। वहाँ सबकुछ था--भरा-पूरा घर, मधुर-मनोहर स्मृतियों का सैलाब, बड़े हो गये दोनों बच्चे--मुकुल-मनु, सुघड़-सुदर्शना हरि की पत्नी सुशीला, मीठे रस-भरे स्वस्थ रसगुल्ले, चाय-काॅफ़ी और भोजन की तमाम व्यवस्था, लेकिन नहीं थीं तो अम्माजी। वह माला धारण कर एक कमरे की दीवार पर ईश्वर-हरि के पिताजी की अनुगामिनी बनी विराज रही थीं। उन दोनों की तस्वीर देखकर मन द्रवित हुआ।...
जाड़े की नर्म धूप में बैठकर हमारी बातें शुरू हुईं तो उनका अंत नहीं था कहीं। कितना कुछ एकत्रित हो गया था हमारे पास साझा करने को...! मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि हरि ने अपने दोनों बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं, उन्हें अपनी ही तरह विनयी, शालीन और सुयोग्य बनाया है। ज्येष्ठ सुपुत्र मुकुल (अविजित दुबे) शांत, गम्भीर, सुशील और विनयी युवक हैं और उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ के दफ़्तर में आयोजक-संयोजक का दायित्व सँभाल रहे हैं तथा सुपुत्री मनु (प्रत्यांशा) अध्यनशील मेधावी कन्या है और अत्यन्त मधुर गायन की योग्यता रखती है। उसने अपने गाये एक-दो गीतों की वीडियो क्लिप मोबाइल फोन पर दिखा-सुनाकर हमें चकित-प्रसन्न कर दिया था।
बहू सुशीला ने मनुहार करके मुझे अल्प भोजन करने को विवश कर दिया, जबकि कल की यात्रा के लिए मैं उग्र उदर को आराम देना चाहता था। भोजनोपरान्त पिताजी को संबोधित अपनी एक कविता मैंने हरि को सुनायी तो उन्होंने भी अपनी एक कविता मुझे सुनायी, जिसे उन्होंने मेरे लिए तब लिखा था, जब 2007 में मैं अम्मा से मिलने उनके घर गया था। कविता में उनके दिल की धड़कनें साफ सुनाई देती हैं। वह कविता क्या है, हरि के उदात्त मनोभावों की पराकाष्ठा है मेरे प्रति। उनकी कविता ( उन्हीं की हस्तलिपि में पूरी कविता की फोटो क्लिप संलग्न है) की अंतिम चार पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा--
'यह पूर्वजन्म का रिश्ता अपना
अमर रहेगा जनम-जनम,
इस जीवन में हम यहाँ मिले,
उस जीवन में हो कहाँ मिलन?'
जब आँगन से धूप निकल भागी, तब हम ड्राइंग रूम में जा बैठे। थोड़ी अंतरंग चर्चाओं के बाद हम सभी प्रस्थान की भाव-भंगिमा के साथ उठ खड़े हुए। घर के अहाते में हम सब एकत्रित हुए और हमने सम्मिलित तस्वीरें उतरवायीं और विदा हुए।
मनुष्य की संरचना में जो गुण-तत्व प्रारंभिक काल में समाहित होते जाते हैं और लंबे समय तक स्थिर भाव में रहते हैं, वे ही उसकी वृत्ति का हिस्सा बन जाते हैं, वे संस्कार का आधार होते हैं। लौटती सड़कें नापते हुए मन के आकाश में भावनाओं का विचित्र आलोड़न था। हरि ने जीवन में बहुत संघर्ष किया, बुजुर्गों की सेवा की, कष्ट सहे, लेकिन कभी धर्म, कर्तव्य और दायित्व से विमुख नहीं हुए, विचलित नहीं हुए। चालीस वर्षों के दीर्घकालिक प्रसार में हरि जितनी आत्मीयता से मेरे अंतरंग अनुज बने रहे हैं, अभिन्न और पूर्णतः समर्पित भ्रातृ-भाव से मेरे अनुगत रहे हैं, वह ऐसे ही बने रहेंगे--इसका पूरा विश्वास है मुझे। मेरे 65 वर्षों के जीवन में हरि-जैसे सुपात्र की द्वितीयता नहीं है और जानता हूँ, अब होगी भी नहीं।...
(--आनन्द. 5-1-2018.)
[चित्र : 1) ईश्वर-हरि के पूज्य पिताजी, 2) पूजनीया अम्माजी, 3) अनुज हरि और मैं, 4) हरि सपरिवार और मैं,
5) वर के वेश में बंधु ध्रुवेन्द्र, 5) साढ़ूभाई सुनील तिवारी के साथ]
मेरी उत्तर प्रदेश की भ्रमण-कथा में एक महत्वपूर्ण क्षेपक रह गया...! 'रह गया' का तात्पर्य यह नहीं कि वह छूट गया, बल्कि जान-बूझकर रोक रखा गया, ताकि कानपुर-प्रवास के उन क्षेपक प्रसंगों को ही मैं समापन-कथा बना सकूँ। कानपुर का प्रवास चार दिनों का था, गणना के हिसाब से सबसे अधिक दिनों का। पटना के सहपाठी मित्र मित्र विनोद कपूर के घर दो दिन, अभिन्न बंधु ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही के घर दो दिन और शेष चार दिन कानपुर के साढ़ूभाई सुनील तिवारी के घर। इस प्रवास के आठ दिन और दो दिन यात्रा में व्यतीत होने के--कुल मिलाकर दस दिन! साधनाजी का शीतकालीन अवकाश बस इतना ही तो था। उन्हें हर हाल में 2 जनवरी तक पुणे पहुँच जाना था। 3 जनवरी से उन्हें लगानी थी विद्यालय की दौड़। यात्रा-पथ बदल जाने से एक दिन का हमें अतिरिक्त लाभ मिला। जानता हूँ, इस रोजनामचे में आपकी रुचि भला क्या होगी, लिहाजा सीधे मूल कथ्य पर आता हूँ।
29 दिसम्बर को जब मैं बंधुवर ईश्वर से मिल आया तो मुझे उनके अनुज हरि की याद आयी। उनसे मिले हुए भी बहुत लंबा अरसा हो गया था। हरि की याद के साथ याद आये पुराने दिन--1976-77 के। स्वदेशी कॉटन मिल्स के दिन! कानपुर में स्थापित हो जाने के पाँच-एक महीने बाद ही ईश्वर अपने अनुगत अनुज हरि को गाँव से अपने साथ ले आये थे। तब तक ईश्वर-ध्रुवेन्द्र और मैं गम्भीर मैत्री-सूत्र में बँध चुके थे, हम साथ-साथ रहते, खाते-पीते, मौज-मस्ती करते। ऊपर कोई नाथ नहीं थे, किसी के हाथ में हमारा पगहा भी नहीं था, हम छुट्टे युवा थे और मनमौजी भी। हवा की तरंगों पर तरंगित होते रहते थे हम तीनों! मेरे परा-विलास के कौतुकों में ईश्वर बहुत रुचि लेते और ध्रुवेन्द्र मेरे इस कृत्य के कठोर आलोचक थे। ईश्वर के सहयोग से मेरी शक्ति बढ़ गयी थी। हम दिन-भर तो साथ रहते ही, कई-कई रातें भी परा-विलास-रत साथ बिताते।
ईश्वर के अनुज हरिश्चंद्र के आ जाने से इस साथ-संग और एकांत साधना में व्यवधान पड़ा। शाम होते ही ईश्वर कहने लगते--'अब मैं जाता हूँ, हरि अकेला है डेरे पर।' और, वह चले जाते, लेकिन परा-विलास का सुख ऐसा तीखा नशा है, जिसके सिर चढ़ जाय, आसानी से उतरता नहीं। शीघ्र ही ईश्वर के आमंत्रण पर हमारा नैश-सम्मेलन ईश्वरचंद्र दुबे के घर होने लगा।
हम वहीं ईश्वर के छोटे भाई हरिश्चंद्र दुबे से मिलने लगे।
वह बहुत ज़हीन, शिष्ट-शालीन, सभ्य-सुसंस्कृत और अनुगत किशोर थे। विनम्रता उनकी उत्कृष्ट विशेषता थी, बड़े-बुजुर्गों के सम्मुख नत रहना उनकी जन्मना वृत्ति थी, आज्ञाकारिता उनका आभूषण थी और सोने पर सुहागा यह कि अनूठा साहित्यानुराग उनके अंतर्मन में पलता था।
रात्रि-सम्मेलन में और परा-शक्तियों को आमंत्रित करने के सुकृत में हरि विस्मयाविभूत, कौतुहल-जड़ बालक की तरह बैठे पलकें झपकाते रहते, किंचित् अविश्वास के साथ। ईश्वर के अनुरोध पर एक रात मैंने उनकी दिवंगता बड़ी माँ का आवाहन किया। वह आयीं और जिन बातों का उन्होंने स्वयं उल्लेख किया, उससे हरि बहुत प्रभावित हुए; क्योंकि उनकी बतायी सारी बातें पूर्णतः सत्य थीं। ईश्वर और हरि--दोनों भाई चकित रह गये थे।...
रात्रिकालीन भोजन और हमारी समस्त सुविधाओं का ख़याल हरि रखते। वह गाँव से लाये गये पाकशास्त्री सेवक को निर्देश देते, व्यस्त रहते। उनकी जिज्ञासाओं का अंत नहीं था। वह मुझसे प्रश्न पूछते जाते और मैं उनकी जिज्ञासा शांत करने की चेष्टा करता रहता। अंततः हरि के 'ध्रुव भैया' चिढ़ जाते और तुनककर कहते--'अब यहाँ खाली भूते-प्रेत बतिआओगे का तुमलोग?' और, यह कहकर ध्रुवेन्द्र बाहर निकल जाते कुहराकशी (धूमपान) के लिए। यह देख हरि संकुचित हो जाते। वह हम तीनों भाइयों में से किसी की नाराज़गी मोल नहीं ले सकते थे। मैं उनसे कहता--'फिक्र मत करो, बीड़ी फूंककर अभी लौट आयेगा नामाकूल!'... ईश्वर सब सुनते और शांत रहते, अपनी मंद-मंद मुस्कान के साथ। उमंग-भरे अजब नशीले दिन थे वे भी, कभी न भुलाये जानेवाले।...
अपने दो-दो ऐंठे हुए अभिन्न (एक तो राजा ठाकुर ध्रुवेन्द्र और दूसरे खड़ी मूंछों और चढ़ी आँखोंवाले जमींदार ईश्वर), किंतु असाहित्यिक मित्रों के बीच हरि का आगमन मुझे तप्त भूमि में शीतल बयार-सा लगा; क्योंकि वह छोटी-छोटी पर्चियों पर मोती-जैसे अक्षरों में कविताएं लिख लाते और मुझसे ससंकोच कहते--'ओझा भइया, जरा देख लीजिएगा इसे?' मैं उनकी छोटी-बड़ी कविताएँ देखता और चकित होता। हरि भी तो उसी बड़े जमींदार परिवार के कुल-दीपक हैं, उनमें इतनी साहित्यिक समझ और साहित्यानुराग कैसे भला?... सच्ची बात तो यह है कि गहरा अनुराग प्रगति की पहली शर्त होता है। यह अनुराग हरि में प्रचुर मात्रा में था। सच्चे अर्थों में वह मेरे भी अनुज बन गये। अब कानपुर में हरि के एक नहीं, तीन-तीन अग्रज थे। वह हम सबका बड़ा ख़याल रखते, आदर देते और हम उन्हें अपनी आन्तरिक प्रीति देते। कानपुर-प्रवास में हमारे बीच हरि की उपस्थिति मुझे अपने छोटे भाई यशोवर्धन ओझा की और ध्रुवेन्द्र को राकेश प्रताप शाही की कमी का अहसास न होने देती। वह हमारे इतने अपने हो गये थे, इतने अंतरंग अनुज! दफ़्तर का व्यवधान न होता तो हम सभी दिन-रात साथ होते।...
सन् 1977 में जब अचानक मुझे स्थानान्तरण का आदेश मिला तो इस सूचना से मित्रों के अलावा जो सबसे ज्यादा संतप्त हुए, वह अनुज हरि ही थे। मुझे याद है, कानपुर स्टेशन पर मुझे विदा करने वह भी आये थे और ठीक विदा के वक्त रुआँसे हो गये थे। वह यात्रा मुझे उनसे दूर ले गयी थी, लेकिन वह मेरे मन से कभी दूर नहीं हुए। यही कारण है कि जब 1978 में मेरा विवाह हुआ तो वधू-स्वागत के अवसर पर ईश्वर ने उन्हें ध्रुवेन्द्र भाई के साथ दिल्ली भेजा था। स्वागत-समारोह में सम्मिलित होकर और दिल्ली के बड़े-बड़े साहित्यकारों के दर्शन कर हरि खिल उठे थे--अतिशय प्रसन्न!
कालान्तर में मुझ अकिंचन को ईश्वर-हरि के पूज्य माता-पिता की सहज प्रीति भी मिली थी। मैं उनका स्नेहभाजन बना था, जबकि दिल्ली-वासी बन जाने के कारण उनसे मेरी मुलाक़ातें न्यूनतम थीं। स्वास्थ्य कारणों से बाद में वे दोनों कानपुर आ गये थे और हरि के पास ही रहने लगे थे। वहाँ भी उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। हरि कानपुर में ही जे.के. सिन्थेटिक्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में नौकरी से लग गये थे। हरि के पिता बड़े प्रज्ञावान नैष्ठिक ब्राह्मण थे और माता अत्यन्त विदुषी महिला थीं। हरि के पिताजी का अपने क्षेत्र में बड़ा मान-सम्मान और प्रभाव था। लेकिन दैव-दुर्विपाकवश सन् 1996 में मस्तिष्क के आघात के कारण वह जीवन-जगत् से मुक्त हो गये। हरि की पूजनीया माताजी ने दीर्घ जीवन पाया था और अंतिम वर्षों में दीर्घायुष्य की यातनाएं सही थीं।...
सन् 1979 के अंत में मैंने दिल्ली छोड़ी और कई शहरों की खाक छानता हुआ अंततः पटना पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर जीवन स्थिर हो गया था--पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझा हुआ। ऐसे में मित्रों-आत्मीयों के लिए अवकाश ही कहाँ था? बरसों-बरस के दिन अपनी उलझी सुलझाने में ही बीत गए।... लेकिन मैं जहाँ भी रहा, हरि का पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र मुझ तक पहुँचता रहा, जबतक पत्रों के आवागमन का जीवन शेष रहा। इसी बीच सन् 1994 में कानपुर से संबंधों के नये तार जुड़े। हर्षनगर-निवासी सुनील तिवारी मेरे साढ़ूभाई बने। साल-दो साल पर उनके पास आना-जाना होने लगा। इसी क्रम में 2007 की गर्मियों में जब मैं कानपुर में था, मुझे हरि की याद आयी तो मैंने उन्हें फ़ोन किया। मेरा स्वर सुनकर आनन्दातिरेक में वह बोले--'मैं आपसे मिलने अभी आता हूँ भइया!' और, दफ़्तर छोड़कर आधे घण्टे में आ पहुँचे हरि! वर्षों बाद मिले थे वह--हुलसित और उत्फुल्ल! हमारी लंबी वार्ताएं हुईं। हमने आपस में दुःख-सुख बाँटे। हरि प्रगति की सीढियां चढ़ते उच्च पद पर आ पहुँचे थे और एक पुत्र और एक पुत्री के पिता बनकर संतुष्ट-प्रसन्न और व्यवस्थित हो चुके थे तथा कमला नगर में कंपनी की काॅलोनी में रहने लगे थे।
हरि ने बताया कि "अम्मा कष्ट में हैं। कूल्हे के दो-दो फ्रैक्चर की पीड़ा झेल चुकी हैं, वाॅकर के सहारे चल पाती हैं और आपको याद करती हैं। पूछा करती हैं--'ओझा बहुत दिनों से कानपुर नहीं आया, हमें तो भूल ही गया शायद।"... हरि से यह सुनकर मैं सिहर उठा। जिन श्रद्धेया के जीवन के परिदृश्य से मैं वर्षों पहले हट गया था, उनकी स्मृतियों के किसी एकांत में मैं आज भी रहता हूँ? आश्चर्य! लेकिन आश्चर्य भी कैसा? उस युग के लोग ऐसे ही स्नेही थे। अम्मा भी वैसी ही थीं--स्नेह लुटानेवाली। मैंने वस्त्र बदले और उनके दर्शन के लिए हरि के साथ तत्काल चल पड़ा।
कई बरस बाद अम्मा के दर्शन कर मन दुखी हो गया। वह वाॅकर से चलते हुए सम्मुख आयीं। अत्यन्त कृश हो गयी थीं। वह बैठ गयीं तो मैंने चरण छुये और बातें शुरू कीं। मेरा ख़याल है, वह अस्सी वर्षों से अधिक का दुःख-सुख देख आयी थीं। रुग्ण थीं, वार्धक्य की अशक्तता ने शरीर तोड़ दिया था, लेकिन अदम्य जिजीविषा थी उनमें, वाणी की टंकार वही थी पहलेवाली। उन्होंने मुझे उलाहने दिये, मेरा हाल पूछा, पुरानी यादें ताज़ा कीं और इतना स्नेह दिया कि मैं आकंठ भर पाया। दो घण्टे बाद उनका आशीर्वाद लेकर जब मैं हरि के घर से लौटा तो मन-प्राण भीगा-भीगा था। उनसे हुई वही मुलाक़ात अंतिम सिद्ध हुई। तीन वर्ष बाद रीढ़ की हड्डी में एक और सांघातिक आघात लेकर वह भी दुनिया से चली गयीं और हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन गयीं।...
वक़्त का एक लंबा टुकड़ा फिर हाथों से फिसल गया।... तात्कालिक कानपुर-प्रवास में, जब अंतिम और एक अतिरिक्त दिन का लाभ मुझे मिला तो अभिन्न अनुज हरि से मिलकर लौटना ही सुनिश्चित हुआ। लखनऊ में ध्रुवेन्द्र ने ताकीद भी की थी कि 'हरि से जरूर मिल लेना, वह तुम्हें बहुत याद करता है।' मैंने हरि से फोन पर संपर्क किया तो वह बज़िद हो गये कि दिन का भोजन आप मेरे घर, मेरे साथ ही करेंगे। मैंने इस झंझट से मुक्ति चाही, क्योंकि पुणे के पथरीले पानी ने पाचन-तंत्र ध्वस्त कर रखा था। लखनऊ में गोमती के और कानपुर में गंगा के मीठे-शीतल और तृप्तिकर जल से पाचन-तंत्र की क्लीनिंग का कार्य प्रगति पर था। पिछले सप्ताह में पच्छिम का सुस्वादु भोजन भी हमने कम तो नहीं किया था न! लेकिन हरि किसी तरह मानने को तैयार नहीं थे। मुझे हामी भरनी पड़ी।
इस वार्ता के दूसरे दिन मैं साधनाजी के साथ हरि के घर गया, जो सुनील भाई के घर से नातिदूर था। हम हरि के घर के छोटे-से आँगन में, धूप में, बैठे। वहाँ सबकुछ था--भरा-पूरा घर, मधुर-मनोहर स्मृतियों का सैलाब, बड़े हो गये दोनों बच्चे--मुकुल-मनु, सुघड़-सुदर्शना हरि की पत्नी सुशीला, मीठे रस-भरे स्वस्थ रसगुल्ले, चाय-काॅफ़ी और भोजन की तमाम व्यवस्था, लेकिन नहीं थीं तो अम्माजी। वह माला धारण कर एक कमरे की दीवार पर ईश्वर-हरि के पिताजी की अनुगामिनी बनी विराज रही थीं। उन दोनों की तस्वीर देखकर मन द्रवित हुआ।...
जाड़े की नर्म धूप में बैठकर हमारी बातें शुरू हुईं तो उनका अंत नहीं था कहीं। कितना कुछ एकत्रित हो गया था हमारे पास साझा करने को...! मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि हरि ने अपने दोनों बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं, उन्हें अपनी ही तरह विनयी, शालीन और सुयोग्य बनाया है। ज्येष्ठ सुपुत्र मुकुल (अविजित दुबे) शांत, गम्भीर, सुशील और विनयी युवक हैं और उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ के दफ़्तर में आयोजक-संयोजक का दायित्व सँभाल रहे हैं तथा सुपुत्री मनु (प्रत्यांशा) अध्यनशील मेधावी कन्या है और अत्यन्त मधुर गायन की योग्यता रखती है। उसने अपने गाये एक-दो गीतों की वीडियो क्लिप मोबाइल फोन पर दिखा-सुनाकर हमें चकित-प्रसन्न कर दिया था।
बहू सुशीला ने मनुहार करके मुझे अल्प भोजन करने को विवश कर दिया, जबकि कल की यात्रा के लिए मैं उग्र उदर को आराम देना चाहता था। भोजनोपरान्त पिताजी को संबोधित अपनी एक कविता मैंने हरि को सुनायी तो उन्होंने भी अपनी एक कविता मुझे सुनायी, जिसे उन्होंने मेरे लिए तब लिखा था, जब 2007 में मैं अम्मा से मिलने उनके घर गया था। कविता में उनके दिल की धड़कनें साफ सुनाई देती हैं। वह कविता क्या है, हरि के उदात्त मनोभावों की पराकाष्ठा है मेरे प्रति। उनकी कविता ( उन्हीं की हस्तलिपि में पूरी कविता की फोटो क्लिप संलग्न है) की अंतिम चार पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा--
'यह पूर्वजन्म का रिश्ता अपना
अमर रहेगा जनम-जनम,
इस जीवन में हम यहाँ मिले,
उस जीवन में हो कहाँ मिलन?'
जब आँगन से धूप निकल भागी, तब हम ड्राइंग रूम में जा बैठे। थोड़ी अंतरंग चर्चाओं के बाद हम सभी प्रस्थान की भाव-भंगिमा के साथ उठ खड़े हुए। घर के अहाते में हम सब एकत्रित हुए और हमने सम्मिलित तस्वीरें उतरवायीं और विदा हुए।
मनुष्य की संरचना में जो गुण-तत्व प्रारंभिक काल में समाहित होते जाते हैं और लंबे समय तक स्थिर भाव में रहते हैं, वे ही उसकी वृत्ति का हिस्सा बन जाते हैं, वे संस्कार का आधार होते हैं। लौटती सड़कें नापते हुए मन के आकाश में भावनाओं का विचित्र आलोड़न था। हरि ने जीवन में बहुत संघर्ष किया, बुजुर्गों की सेवा की, कष्ट सहे, लेकिन कभी धर्म, कर्तव्य और दायित्व से विमुख नहीं हुए, विचलित नहीं हुए। चालीस वर्षों के दीर्घकालिक प्रसार में हरि जितनी आत्मीयता से मेरे अंतरंग अनुज बने रहे हैं, अभिन्न और पूर्णतः समर्पित भ्रातृ-भाव से मेरे अनुगत रहे हैं, वह ऐसे ही बने रहेंगे--इसका पूरा विश्वास है मुझे। मेरे 65 वर्षों के जीवन में हरि-जैसे सुपात्र की द्वितीयता नहीं है और जानता हूँ, अब होगी भी नहीं।...
(--आनन्द. 5-1-2018.)
[चित्र : 1) ईश्वर-हरि के पूज्य पिताजी, 2) पूजनीया अम्माजी, 3) अनुज हरि और मैं, 4) हरि सपरिवार और मैं,
5) वर के वेश में बंधु ध्रुवेन्द्र, 5) साढ़ूभाई सुनील तिवारी के साथ]
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-01-2018) को "महके है दिन रैन" (चर्चा अंक-2858) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ये भी आज ही पढ़ा। बहुत सुंदर संस्मरण। सादर।
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