रविवार, 5 जुलाई 2009

पुण्य-स्मरण : संस्मरण

'मैं मुक्त पंछी बनकर उड़ जाऊंगा....'
यशःकाय दिनकर अपूर्व थे, अद्वितीय थे। बहुत छोटी उम्र से उनके पास बैठने, उन्हें देखने और उनकी बातें सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त रहा है। १९७१-७२ में, जब मैं स्नातक द्वितीय वर्ष का छात्र था, एक दिन अपने पूज्य पिताजी (स्व. पंडित प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') के साथ उनके राजेंद्र नगर स्थित आवास पर गया। दिनकरजी और मेरे पिताजी की मित्रता प्रगाढ़ थी। दोनों जब भी मिलते, ढेरों बातें होतीं, उस दिन भी बातों का सिलसिला चल निकला। दिनकरजी कम ऊंचाईवाले तख्त पर विराजमान थे। पिताजी वहीँ उनके पास बैठ गए और मैं पिताजी के पीछे बैठा उनकी बातें सुनने लगा। बातचीत में पिताजी ने पूछा--''मित्र, तुम्हारी डायरी के प्रकाशन का क्या हुआ ?'' दिनकरजी ने क्षोभ के साथ कहा--''आजकल के ग्रेजुएट लड़कों को शुद्ध लिखना-पढ़ना भी नहीं आता। विश्विद्यालय से कई लड़के बुलाये, टंकक रखे, लेकिन उनसे यह आशा करना व्यर्थ है कि वे लिखे हुए पाठ की भी शुद्ध नक़ल कर सकेंगे। अब तक न प्रेस कॉपी बनी है, न उसके प्रकाशन की कोई सूरत दीखती है। सोचता हूँ, मेरे बाद इन कागज़-पत्रों में दिनकर को कौन दूँदेगा ?'' पिताजी मेरी ओर इशारा करते हुए बोले--''तुम चाहो तो इनका लाभ ले सकते हो। ये हैं तो वाणिज्य के विद्यार्थी, लेकिन हिन्दी शुद्ध लिखते-पढ़ते हैं और सुनता हूँ, अब कवितायें भी करने लगे हैं। दिनकरजी की आंखों में प्रसन्नता की चमक दिखी, वह बोले--''क्या सचमुच आनंद यह सब कर सकेंगे ?'' पिताजी ने कहा--''तुम इनकी परीक्षा ले लो।''
हिन्दी साहित्य के सूर्य दिनकरजी ने मेरी अनूठी परीक्षा ली । उन्होंने अपने क्लिपबोर्ड पर एक फुलस्केप कागज़ लगाकर उसे कलम के साथ मेरी ओर बढाया और कहा--''देवनागरी का पहला अक्षर 'क' लिखो ।'' बच्चनजी की हस्तलिपि से प्रभावित मेरे-जैसे तरुण कवि ने त्वरा में लहरदार 'क' लिख दिया। दिनकरजी ने हाथ बढ़ाकर क्लिपबोर्ड लिया और उसे देखने के बाद बोले--तुम्हें तो देवनागरी का पहला अक्षर 'क' भी लिखना नहीं आता ।'' उनके इस वाक्य से मैं संकुचित हो गया, लेकिन सफाई देने का साहस भी कहाँ था ! उन्होंने क्लिपबोर्ड पर कागज़ को उलटकर लगाया और एक बड़ा-सा 'क' लिख कर मेरी ओर बढ़ा दिया और कहा--''इस पर हाथ फिरावो ।'' फिर दोनों बुजुर्ग आपसी चर्चा में मशगूल हो गए और मैं दिनकर जी के लिखे सुडौल 'क' पर हाथ फिराने लगा।
(क्रमशः)

3 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

संस्मरण लिख कर आपने एक अच्छी शुरुआत की है. आपके पास तो दिग्गज साहित्यकारों के साथ बिताये समय के अनमोल संस्मरणों का खज़ाना है.उम्मीद है, इस संस्मरण का अगला भाग जल्द ही प्रकाशित करेंगे.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदना जी,
'मैं मुक्त पंछी ...' संस्मरण पूरा हो चुका, ब्लॉग पर पढ़ लें. फिर अपनी सम्मति दें. आपकी टिपण्णी का मेरे लिए अलग महत्व है; आप यह अवश्य समझती होंगी. आभार...

डॉ० आनन्‍द बिहारी ने कहा…

आनन्‍द वर्द्धन जी मैं मगध महिला कॉलेज में हिंदी का एक तर्द्थ व्‍याख्‍याता हूँ। मेरा एक अनुज - प्रफुल्‍लचंद्र ओझा मुक्‍त : जीवन प्रसंग और रचनाएँ - विषय पर एम ए कक्षा के लिए परियोजना कार्य कर रहा है। आपके ब्‍लॉग से इस कार्य में काफी मदद मिली है। अगर आप ओझा जी पर कुछ और विशेष सूचनाएँ उपलब्‍ध करा पाते तो बड़ी कृपा होती। ये सूचनाएँ आपके ब्‍लॉग पर ही हो तो अन्‍य पाठकों को भी लाभ हो।
- आनन्‍द बिहारी