मंगलवार, 28 जुलाई 2009

लाश इतनी क्यों गली है ?


अहमकों-सी अपनी तबीयत हो चली है,
सूखे पत्तों-से भर गई मेरी गली है !

वहशियाना हो रहा हवाओं का मिजाज,
इन धमनियों में महज़ सूखी नली है !

अगली सुबह शायद मेरी बेखौफ गुज़रे,
सुर्खियों में रात मेरी क्यों ढली है ?

सच, बहुत मुश्किल हुआ घर से निकलना,
इसी अहसास की शर्मिंदगी ज्यादा भली है !

राख के इस ढेर से खिलवाड़ क्यों करने लगे तुम ?
एक भींगी डाल उसमें अधजली है !

इस तंत्र ने जनतंत्र पर तेजाब डाली--
तुम पूछते हो, लाश इतनी क्यों गली है ??

6 टिप्‍पणियां:

ओम आर्य ने कहा…

bahut hi gahare bhaaw liye huye rachana .......aap bahut hi khubsoorati se bayan karate hai aapani bhaawanao ko ......laazbab

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

क्या बात है..दुष्यंत जी के तेवर याद आ गये..

अर्कजेश ने कहा…

इस तंत्र ने जनतंत्र पर तेजाब डाली--
तुम पूछते हो, लाश इतनी क्यों गली है ??

पंक्तियाँ बहुत पसंद आयीं |
यही असली कारण है हमारे पतन का |
बधाई |

के सी ने कहा…

व्यवस्थाजनित आक्रोश के सवर मुखर ही होते हैं .... फिर भला क्या ज़िन्दगी कि जद्दोजहद कम है

ज्योति सिंह ने कहा…

aanand ji .sundar rachana ,aap to taarife qabil hai hi .is sach se saamne karane se main bahut ghabraati hoon isliye is vishaye pe main llikhati bhi nahi aur padhne se man dukhi ho uthta hai .

गुंजन ने कहा…

आनन्दवर्धन जी,

जिन्दगी और आज के दौर की हक़ीकत को बयाँ करती हुई गज़ल, क्या खूब कहा है :-

सच, बहुत मुश्किल हुआ घर से निकलना,
इसी अहसास की शर्मिंदगी ज्यादा भली है !


पत्रिका-गुंजन

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