उस दिन की लम्बी मुलाकात के बाद हम घर लौट आए और मैं दुसरे दिन से ही दिनकरजी के पास प्रतिदिन जाने लगा। डेढ़ महीने की दीर्घ अवधि में उनके सान्निध्य में बैठकर काम करना अपूर्व सुखदायक था। पुरानी डायरियों को खोज निकलना, उनका सिलसिला बिठाना, डायरी के अंशों का चयन करना और पाण्डुलिपि तैयार करने का काम मैंने किया। दिनकरजी मेरे श्रम और मेरी कार्य-निष्ठां से बहुत प्रसन्न थे और आगंतुकों से मेरा परिचय देते हुए कहते थे--''मुक्तजी के पुत्र को तो ऐसा ही होना चाहिए था।'' मुझे बड़ा संकोच होता।
दिनकरजी के सान्निध्य के वे दिन मेरे जीवन के अविस्मरणीय दिन हैं। इस अवधि में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा, बहुतेरी बातें कीं और ढेरों कवितायें सुनीं। उनके सिरहाने कलमों का ढेर होता था। एक दिन मैंने पूछा--''आप इतनी सारी कलमें क्यों रखते हैं ?'' वह अपनी कलमों से मेरा परिचय करवाने लगे--''देखो, इस कलम से मैंने 'उर्वशी' लिखी थी और इससे 'परशुराम की प्रतीक्षा'। इससे.... ।'' अपनी कलमों से उनका प्रेम अद्भुत था। उनका सेवक रामदेव जब उनकी तेल मालिश करता, तो उनकी सुंदर काया का अंग-प्रत्यंग रक्ताभ हो उठता । पौरुषपूर्ण सौन्दर्य की वह साक्छात मूर्ति थे।
'दिनकर की डायरी' की प्रेस कॉपी तैयार हो गयी थी। मेरी छुट्टी होने को थी, लेकिन उस विराट पुरूष की कृपा-छाया से हटने को मेरा मन तैयार नहीं हो रहा था। दिनकर जी के शयन-कक्षा के कोने में लोहे का एक बॉक्स रखा था। मैंने जिज्ञासावश दिनकरजी से पूछा--''इसमें क्या रखा है ?'' उन्होंने एक वाक्य में उत्तर देकर शेर सुनाया--
चंद तस्वीरें बुतां, चंद हसीनों के खुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से ये सामन निकला॥'
मैंने कहा--'बॉक्स में बंद उन तस्वीरों और पत्रों को मैं देखना चाहूँगा, आप कहें तो पत्रों की सिलसिलेवार एक व्यवस्था भी बना दूँ।'' दिनकरजी मेरी बात से खुश हुए, बोले--''क्या तुम यह भी कर दोगे ? मैं तो पिछले कई वर्ष से इसके बारे में बस सोचता ही रहा हूँ ।'' मैंने हामी भरी और उनके सत्संग-सुख के दो अतिरिक्त दिनों की व्यवस्था कर ली । सचमुच, जब वह बॉक्स खुला, तो मैं उसे देखता ही रह गया। उसमे बहुमूल्य पत्रों का अम्बार था, तस्वीरें थीं, छोटे-बड़े पुर्जों पर विश्वविख्यात लोगों के हस्ताक्षर थे--लेकिन सब गडमड ! मैंने दिनकरजी से निवेदन किया ki वह दो दिनों के लिए अपने कमरे का परित्याग कर दे; क्योंकि पूरे कमरे में पत्रों को फैलाकर उन्हें क्रमवार व्यवस्थित करना पड़ेगा। उन्होंने मेरी बात मान ली, मैं बाहर से छोटे-छोटे धेले उठा लाया और एक-एक लेखक की चिट्ठियां तिथि के अनुसार सहेजने लगा। तस्वीरें एक किनारे रख दीं। पूरा कमरा चिट्ठियों से भर गया, लेकिन चिट्ठियां ख़त्म न हुईं, उसमें हिन्दी जगत के बड़े-से-बड़े महारथियों और दिग्गज राजनेताओं के पत्र थे--प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी, पन्त, बनारसीदास, मैथिलीशरण, हजारीप्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल, राजर्षि टंडन, इंदिराजी आदि-आदि के पत्र !
पत्रों के उस अद्भुत संग्रह में १९३६-३७ के पिताजी के कई पत्र देख कर मैं अभिभूत हुआ था। इसी कालावधि में पिताजी 'बिजली' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन और प्रकाशन करते थे। मेरी जिज्ञासा पर दिनकरजी ने मुझे बताया था की उनकी प्रारंभिक कई कवितायें सर्वप्रथम 'बिजली' में पिताजी ने ही पकाशित की थीं ...
(क्रमशः)
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