[सन बहत्तर की डायरी से तिहत्तर की कविता]
तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है ।
काले झंडे,
विरोध व्यक्त करता जनाक्रोश,
प्रचार-प्रपत्र,
नारेबाजी में झुलसता माहौल;
लेकिन एक और सच्चाई
यहाँ छूट रही है--
हर आदमी के हाथ में
उसी का चेहरा
कोलतार भरे गुब्बारे-सा
फैलता जा रहा है--
यह एक और मृत्यु की शुरुआत है,
सचमुच...
सचमुच अहसास ही मर गया है !
मेरे जवान बेटे की
एक्सीडेंट में टूटी टाँगें,
खून और मांस के लोथडे
सबकुछ एकदम नंगा
देख लेने के बाद भी
पूरी निश्चिन्तता से मेरा
यह कह उठाना--
'अस्पताल कितनी दूर है ?'
इस बात का सुबूत है कि
अहसास मर गया है
और जब अहसास मर जाता है
तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता ।
हाँ, तल्खियों से भरा एक जुलूस
फिर भी गतिशील रहता है !
मैं उस बदनसीब कि ज़िन्दगी से
ये कविता शुरू करना चाहता था;
क्योकि जड़ता ही मेरा अहसास है
और मुझे ये पूरा विश्वास है
कि विवशताओं कि सुरसा से बचता हुआ
त्रिकोण में फंसा मेरा काला चेहरा
मेरे स्तब्ध अहसास को शब्द देगा;
क्योंकि अहसासहीन निस्तब्धता के क्षण
रात में सोये-थके मुसाफिर के शरीर पर
एक साथ हजारों-हज़ार विषैले बिच्छुओं के
फ़ैल जाने जैसा है...
यां फिर,
किसी की हथेलियों से
उम्मीदों की सारी लकीरें चुरा लेने जैसा है !
ऐ मेरे मित्र !
अपने गूंगे अस्तित्व के हाथों
अहसानों का तोहफा लेने से
कहीं बेहतर है तेरा घुटना
और घुटकर दम तोड़ देना...!!
[महाकवि नागार्जुन की उपस्थिति में कई बार पढ़ी गई बिहार आन्दोलन की एक कविता]
16 टिप्पणियां:
और जब अहसास मर जाता है
तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता ।
आपकी इस एक लाइन ने बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया
- वीनस केशरी
उस दौर का आभास देती एक रचना !
शुभकामनाएं !
माहौल की तल्खी, इंसानियत पर सवाल , सब मुखर है....
किसी की हथेलियों से
उम्मीदों की सारी लकीरें चुरा लेने जैसा है !
कैसे लिख लेते हैं इतना सुन्दर? सार्थक?
..........................................................................
बहुत बहुत आभार
ओम
बहुत सशक्त रचना जो दिल मे भारीपन छोड़ गई |
कविता को पढ़ कर हतप्रभ हूँ, समय की गर्द इसे छू भी नहीं पाई है. समकालीन या समसामयिक रचना इसे ही कहते हैं. आप इसी तरह अपनी डायरी से मोती बिखेरते रहें.
हर आदमी के हाथ में
उसी का चेहरा
कोलतार भरे गुब्बारे-सा
फैलता जा रहा है--
यह एक और मृत्यु की शुरुआत है,
सचमुच...
सर जी , मै तो मुकेश जी तिवारी का ब्लोग पढ रहा था वहां आपकी कविता के वारे मे जानकारी और आपकी तस्बीर से प्रभावित होकर आपकी सेवामे आ पहुंचा ।और जब अहसास मर जाता है तो कहने को वाकी रह ही क्या जाता है ।हजारों हजार बहुत अच्छा प्रयोग है। उस आन्दोलन के वक्त लिखी रचना आज भी प्रासंगिक है
और जब अहसास मर जाता है
तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता
-------------------------
ऐ मेरे मित्र
अपने गूंगे अस्तित्व के हाथों
अहसानों का तोहफा लेने से
कहीं बेहतर है तेरा घुटना
और घुटकर दम तोड़ देना
--- इस कविता के तेवर से भी महाकवि नागार्जुन की याद आती है।
-बहुत अच्छी कविता।
यह एक और मृत्यु की शुरुआत है,
सचमुच...
सचमुच अहसास ही मर गया है !
एक पूरे युग की हकीकत को आइना दिखाती आपकी यह नेजे की धार सी पैनी कविता पाश साहब की सबसे मशहूर उस नज़्म की याद दिलाती है जिसमे वो कहते थे..सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...
सच मे जब तक भावनाएं है..गलत चीजों को बदलने का हौसला है..जड़ता तो तोड़ने का जज़्बा है..तब तक ही यह मानवता है...दुनिया है..
हर आदमी के हाथ में
उसी का चेहरा
कोलतार भरे गुब्बारे-सा
फैलता जा रहा है--
..क्या बेहतरीन प्रतीक लिया है..हकीकतबयानी का आपने..
बार-बार पढ़ूँगा इसे..
कितनी करुणा है कविता में. समय खंड जीवंत हो गया.
आपकी इस अद्भुत रचना की तारीफ कहाँ से शुरु करूँ ....हर बंद आपकी सोच की दाद दे रहा है .....हर आदमी के हाथ में उसी का चेहरा....कोलतार भरे गुब्बारे-.....अस्पताल कितनी दूर है....त्रिकोण में फंसा काला चेहरा....हजारों-हज़ार विषैले बिच्छुओं के फ़ैल जान ......उम्मीदों की सारी लकीरें चुरा लेना.... जैसे शब्द ...आपकी विलक्षण प्रतिभा के घोतक हैं ....एक सशक्त रचना .....!!
और हाँ शुक्रिया इन बेहतरीन पंक्तियों के लिए ....
'न रहा जुनूने-रूखे-वफ़ा, ये रसम, ये दार करोगे क्या ?
जिन्हें जुर्म-e-इश्क पे नाज़ था, वो गुनाहगार चले गए !'
आनंद जी
कई सच्चाइयाँ कितनी भयावह होती हैं फिर भी उनका सामना इंसान करता है . वह निगेटिव भी हो जाता है . फिर भी चलता रहता है .उम्मीद की रोशनी के साथ साथ .सब कुछ ख़त्म हो जाता है पर उम्मीद नहीं . वह बच जाती है . जैसे रोने के बाद आँखों में नमी.
nishabd kar diya...........ek bhayavah sachchayi ko ujagar kar diya.
आप सबों का मशकूर हूँ बहुत-बहुत; पुरानी डायरियों में झांकना अतीत के गलियारे में जाने जैसा है ! आप सभी मेरे साथ उस गलियारे में गए...वहां की स्तब्ध कर देनेवाली शान्ति ने आप सबों को भी थोडा अशांत किया--यही मेरी उपलब्धि है !
वीनस केशरीजी, देवेन्द्रजी, पंकजजी और पद्मजा शर्माजी ! आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ; आप लोग पहली बार 'मुक्ताकाश' पर आये और अपने-अपने मंतव्य से आप लोगों ने मेरा उत्साहवर्धन किया !!
अभिवादन सहित--आनंदवर्धन.
ऐ मेरे मित्र !
अपने गूंगे अस्तित्व के हाथों
अहसानों का तोहफा लेने से
कहीं बेहतर है तेरा घुटना
और घुटकर दम तोड़ देना...!!
bahut hi saarthak aur sateek
एक टिप्पणी भेजें