'बौर नया आया अमिया पर,
विशाल बरगद सूख गया...!
वे अजीब बौराए दिन थे। मौसम भी बौराया-सा था... । शहतूत में रस और आम में नया बौर आ गया था... और फालसे का रंग चटख सुर्ख हुआ जाता था। महुआ टपकने को और कपास की फलियाँ चटखने को तैयार थीं... सब पर एक अजीब नशा तारी था। और मैं...? मेरी न पूछिये... ! सन १९६३-६४ का साल और मैं छठी कक्षा का उद्दंड छात्र ! पटना के श्रीकृष्ण नगर की चौहद्दी के बाहर भी मेरी ख्याति थी। कॉलेज में पढ़नेवाले लड़कों की टोली भी मुझ किशोर से डरती थी, परहेज करती थी। सारा मोहल्ला जानता था कि इस सिरफिरे को छेड़ना किसी शामत को दावत देना है। स्कूली पढ़ाई में कभी अनुत्तीर्ण नहीं हुआ; लेकिन ग्यारहवीं कक्षा तक पिताजी ने कम-से-कम बारह स्कूल तो बदलवाए ही होंगे। हर विद्यालय के हिन्दी और गणित शिक्षक से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी; या तो उन्हें मुझसे या मुझे उनसे जल्दी ही ढेरों शिकायतें हो जाती थीं। कभी शिक्षक महोदय की साइकिल का टायर, ट्यूब सहित मुंह खोले पड़ा रहता था और विद्यालय की छुट्टी के बाद जब वह अपनी साइकिल उठाते तो अपना सिर पीटते और दूसरे दिन प्राचार्य के कार्यालय से मेरी पुकार हो जाती। मैं कहता--''मैंने ऐसा कुछ किया ही नहीं।'' शिक्षक कहते--''ऐसा करनेवाला दूसरा कोई छात्र पूरे स्कूल में है ही नहीं।'' अजब मुसीबत के दिन थे वे ! लेकिन, मैं जाने किस सनसनाते घोडे पर सवार रहता हरदम ! स्कूल में खटापटी हो गई तो मैं किसी आम या इमली के पेड़ पर जा चढ़ता या किसी अमरुद के बगीचे की शरण ले लेता। दिन आराम से गुज़र जाता और शाम होने के पहले मैं घर पहुँच जाता बेधड़क ! कहना न होगा, मैं भी बौराया-सा था उन दिनों !
उन्हीं गर्म दिनों की बात है। शाम होते-न-होते पिताजी की पुरानी बेबी ऑस्टिन कार शोर-शराबे के साथ गैरेज में आ लगती और वह दफ्तर के कपड़े बादल भी न पाते कि एक वयोवृद्ध सज्जन छड़ी टेकते हुए मेरे घर आ जाते और बैठक में पड़ी किसी कुर्सी पर बैठ जाते--मुमूर्शुवत ! बोलते कुछ नहीं ! लम्बा कद, गह्नुआ रंग, भरी-पूरी देह, आंखों पर चश्मा, श्वेत परिधान--धोती-कुर्ता ! पिताजी कपड़े बदलकर बैठक में आते और पूछते, ''कैसे हो भाई ?'' वह कोई उत्तर न देते, टुकुर-टुकुर देखते रहते पिताजी कि ओर निरीह भावः से; जैसे दम साध रहे हों। थोडी देर बाद पिताजी फिर पूछते--''चाय पियोगे ?'' वह फिर भी कुछ न कहते। सिर्फ़ अपने बांये हाथ को हवा में लहरा देते और कलाई को विपरीत दिशा में मोड़ते हुए अपनी लम्बी उँगलियों को हवा में काँपने के लिए छोड़ देते; जैसे कह रहे हों--'पी लूँगा' या नहीं भी पियूँगा तो क्या फर्क पड़ेगा ?' थोडी देर में चाय आ जाती। पिताजी चाय पी लेते, फिर पान बनाकर खाने लगते और अचानक कहते--''भाई, तुमने चाय तो पी ही नहीं, वह ठंडी हुई जाती है... ।'' तब वह हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाते--''प्याली संभलेगी नहीं मुझसे, गिलास मंगवा दो।'' इस एक वाक्य को बोलने में भी उन्हें दो-तीन मिनट लग जाते। कई बार ऐसा भी होता कि वह क्या कहना चाह रहे थे, यही भूल जाते। फिर एक लंबे विराम के बाद वाक्य वहीँ से शुरू करते, जहाँ से उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया था। सप्ताह में तीन-चार बार सुबह अथवा शाम वह मेरे घर आ जाते और घंटे भर बैठे रहते। कभी जल्दी ही ऊब जाते और पितजी से कहते, ''किसी को कहो कि मुझे सड़क पार करा दे, मैं अब जाना चाहता हूँ।'' सड़क पार कराने कि जिम्मेदारी हमेशा मुझे ही सौपी जाती थी; क्योंकि मैं घर का बड़ा बेटा था।
मैं खूब पहचानता था उन्हें। वह मेरे बाल-सखा मनन, रतन और छोटन के पितामह थे। यह तो कुछ समय बाद पता चला कि वह साहित्य-जगत के अनूठे रचनाकार, शब्द-शिल्पी रामवृक्ष बेनीपुरीजी थे।
[क्रमशः]
7 टिप्पणियां:
रामवृक्ष बेनीपुरी जी की कुछ रचनाएं मैने पढ़ी हैं। राजनीति में भी वे सफल रहते अगर संस्कारी न होते। पर ऐसे लोग बिरले ही होते हैं।
यह भी गौरव की बात है कि आप जैसे लोग हैं जो इस युग में रामवृक्ष बेनीपुरी का नाम ब्लागजगत के जरिये लोगों को बता रहे हैं।
आभार
"साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी" जी की चर्चा करने के लिए आभार!
आह!
मुझे एकदम से "गेहुँ और गुलाब" याद आया।
संस्मरण का खुलता एक और दरिचा ओझाजी की स्मृति-पट से और हम इंतजार में अगली कड़ी के।
benipuri ji ki charcha ke liye aabhar.
आप साहित्य के अमुल्य धरोहर से हम पाठको को मालामाल कर रहे हो अगले अंक के इंतजार मे .....
सादर
ओम
आपके संस्मरण तो ब्लॉग-जगत के अनुपम संस्मरणों में शुमार किये जायेंगे ।
अज्ञेय पर आपकी प्रविष्टियों का सजग पाठक रहा । अब बेनीपुरी-स्मरण । आभार ।
...प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!
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