[पांचवीं किस्त]
दिन एक-सा नहीं रहता, मौसम एक-सा नहीं रहता; वह रंग बदलता रहता है। वे बौराए दिन भी बीत गए। सन १९६५ में मेरी माताजी विद्यालय निरीक्षिका के पद पर नियुक्त होकर हम बच्चों के साथ रांची चली गईं । आकाशवाणी की सेवा से बंधे पिताजी पटना में ही रहे। श्रीकृष्ण नगर में तिनका-तिनका जोड़कर जो नीड़ बना था, वह बिखर गया। मनन-रतन और छोटन--मेरे मित्र मुझसे बिछड़ गए--नशेमन उजड़ गया। बेनीपुरीजी भी पटना में अधिक समय तक नहीं रह पाते थे। वह कभी मुजफ्फरपुर तो कभी बेनीपुर चले जाते थे। सन १९६८ में एक दिन अचानक उनके देहावसान का दुखद समाचार हमें अखबारों से मिला। अपने समय में देश की तरुणाई को आवाज़ देनेवाला, शीतल छाया प्रदान करनेवाला विशाल बरगद धराशायी हो गया था....
राँची में दो साल कार्यरत रहने के बाद घर के समीप आने की लालसा से मेरी माताजी ने स्थानान्तरण की मांग की थी। उन्हें सोनपुर (पटना की गंगा के पार का एक शहर) स्थानांतरित कर दिया गया। वहां कुछ महीने ही बीते होंगे कि सन १९६८ के अन्तिम महीने में हृदयाघात से अचानक माताजी का भी निधन हो गया। माता के लोकान्तरण से आहात पूरा परिवार एक बार फिर पटना में एकत्रित हुआ; लेकिन मातृ-विहीन बच्चों को लेकर पिताजी श्रीकृष्ण नगर में न रह सके और पटनासिटी में मेरी ननिहाल में रहने लगे। तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। मेरी अधकचरी कविताई तो आठवीं कक्षा से ही शुरू हो गई थी, लेकिन ग्यारहवीं तक आते-आते रुचियाँ परिष्कृत होने लगी थीं। युवा होते आम पर बौर आने लगे थे....
बाद के दिनों में मैंने बेनीपुरी साहित्य पढ़ा। उन पर लिखा पिताजी का संस्मरण पढ़ा। लेकिन बेनीपुरीजी के संस्मरणों का संग्रह (वे दिन...) पढ़कर मैं अवसन्न रह गया। कैसे संघर्षों के तपते रेगिस्तान को उन्होंने अपनी छाती के बल रेंगकर पार किया था ! अपनी माताजी के निधन का जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला वृत्तान्त बेनीपुरीजी ने शब्दों में बांधा है, उसे पढ़कर मैं अन्दर तक हिल गया था। मैंने भी मातृ-वियोग का आघात ताज़ा-ताज़ा सहा था, आहत था, मर्म-विद्ध था। ऐसे में बेनीपुरीजी का वह दस्तावेज़ मेरे कलेजे की हड्डियाँ मरोड़ता था !.... रूढ़िवादी मान्यताओं और लोकाचारों की दुहाई देकर उनकी माता के शव-दाह के पूर्व किए गए अमानवीय कृत्यों का मार्मिक वृत्तान्त तो पाषाण को भी पिघला देनेवाला था। सच कहूँ तो बेनीपुरीजी की मातृ-विछोह की पीड़ा के सम्मुख मुझे मेरी पीड़ा छोटी जान पड़ी थी। और शोक-शमन के लिए वह मेरा संबल भी बनी थी कभी.... उस दस्तावेज़ को मैंने उन दिनों बार-बार पढ़ा था और मेरी आँखें बार-बार भर आती थीं। अंपनी बाल्य-काल की शैतानियों को याद करके मेरा मन क्षोभ से भर उठता था... और एक पश्चाताप मेरी अंतरात्मा पर छा जाता था दीर्घ-काल के लिए....
[क्रमशः]
7 टिप्पणियां:
दुखद पडाव पर ।
बेनीपुरी जी को कभी पढ़ने का मौका मिला नहीं है मुझे...अब "वे दिन" खोजता हूं।
aap benipuri ji ki wo hridaysparshi rachna yahan jaroor likhiye taki hum bhi use padh sakein .........aabhari honge wo kavita padhkar aur aapke bhi jinke madhyam se hamein itna sab kuch janne ko mil raha hai.
दुखद प्रसंग.साथ ही बेनीपुरी जी को पढने की इच्छा भी बलबती हो उठी है.
पहली किश्त पढ़ी, फिर दूसरी, फिर तिसरी और अंत में पांचवी....
आपका वर्णन इतना रोचक है कि अब रोज आपके लेख का मुझे इंतजार रहेगा
आपका यह लेख अमूल्य है।
vandana ji ki baat sahi hai ,marmik prasang padhte huye aankhe nam ho gayi ,benipuri ji ko padhne ki ichchha jaag uthi ,naam se to parichat rahi magar vistaar se ab jaana unke baare me .aabhari hoon dil se aapki aanand ji ,shukriyaan .
bahut kam padha hai,Phir bhi yeh kah sakta hoon ki apni hi tarah ke rachnakaar rahe hain.
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