24 दिसम्बर की शाम जेट एयरवेज का वायुयान ले आया मुझे लखनऊ। दो दिन स्कूल के सहपाठी और अभिन्न मित्र विनोद कपूर के नशेमन में गुजरे।...ओह, क्या खूब गुजरे...! विनोद कपूर दो वर्षों के बाद मिले थे, बहुत-सी बातें एकत्रित हो गयी थीं, फरियाने को...हम उन्हें निबटाते रहे।
विनोद की पत्नी उत्तर के इस अंचल की शीत लहरी से क्लांत थीं--भीषण खाँसी की गिरफ़्त में, फिर भी उनकी बातों का अंत नहीं था। बातें भी कम तो नहीं थीं। उनकी बहू की सेवा-भावना और प्यारी पोती मिष्टी की मीठी बातों से मन प्रसन्न रहा। विनोद के घर में दो दिन पलक झपकते बीत गए। ये दो दिन पुरानी यादों को सहलाने में रीत गये।
कल सुबह शाही भाई के घर आ गया हूँ और जब से आया हूँ तभी से अतीत के उलझे धागे सुलझा रहे हैं हम दोनों। कितने झंझावत झेल आये हैं ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही इन दस वर्षों में। मेरे अभिन्न मित्र तो हैं ही, जोड़ीदार भी हैं। उनकी अदम्य जिजीविषा और कर्मठता आकर्षित करती है, अभिभूत भी करती है। संकटों-संघर्षों को स्वयं आमंत्रित करते रहे हैं वह, और जूझते रहे हैं उनसे। शाही ने आसन्न अवरोधों को अपने मन की असीम शक्ति से परास्त किया है। यह साहस तो बस उन्हीं के पास है, उन्हीं के योग्य है। उनकी सहधर्मिणी, मेरी स्नेहमयी भाभी हैं।...उनकी और साधनाजी की बातें निरंतर प्रवहमान हैं और बीच-बीच में मेरी चिकोटियां भी।... तीन पोते-पोतियों से भरा शाही का विशालकाय भवन चहक रहा है और परमानंद विराज रहा है यहाँ।...
ऐसे निकटतम मित्रों की अलभ्य-सी हो चुकी मुलाक़ातों का क्या मज़ा है, यह तो वही जान सकता है, जो ऐसा अवसर पाता है।...ये परम आनंद के दिन हैं, अविस्मरणीय दिन हैं। मैं कह सकता हूँ, सुख में हूँ, सुखी हूँ।...
[चित्र : विनोद कपूर के साथ मैं और शाही भाई के साथ भी.]
--आनन्द, लखनऊ : 27-12-2017.
विनोद की पत्नी उत्तर के इस अंचल की शीत लहरी से क्लांत थीं--भीषण खाँसी की गिरफ़्त में, फिर भी उनकी बातों का अंत नहीं था। बातें भी कम तो नहीं थीं। उनकी बहू की सेवा-भावना और प्यारी पोती मिष्टी की मीठी बातों से मन प्रसन्न रहा। विनोद के घर में दो दिन पलक झपकते बीत गए। ये दो दिन पुरानी यादों को सहलाने में रीत गये।
कल सुबह शाही भाई के घर आ गया हूँ और जब से आया हूँ तभी से अतीत के उलझे धागे सुलझा रहे हैं हम दोनों। कितने झंझावत झेल आये हैं ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही इन दस वर्षों में। मेरे अभिन्न मित्र तो हैं ही, जोड़ीदार भी हैं। उनकी अदम्य जिजीविषा और कर्मठता आकर्षित करती है, अभिभूत भी करती है। संकटों-संघर्षों को स्वयं आमंत्रित करते रहे हैं वह, और जूझते रहे हैं उनसे। शाही ने आसन्न अवरोधों को अपने मन की असीम शक्ति से परास्त किया है। यह साहस तो बस उन्हीं के पास है, उन्हीं के योग्य है। उनकी सहधर्मिणी, मेरी स्नेहमयी भाभी हैं।...उनकी और साधनाजी की बातें निरंतर प्रवहमान हैं और बीच-बीच में मेरी चिकोटियां भी।... तीन पोते-पोतियों से भरा शाही का विशालकाय भवन चहक रहा है और परमानंद विराज रहा है यहाँ।...
ऐसे निकटतम मित्रों की अलभ्य-सी हो चुकी मुलाक़ातों का क्या मज़ा है, यह तो वही जान सकता है, जो ऐसा अवसर पाता है।...ये परम आनंद के दिन हैं, अविस्मरणीय दिन हैं। मैं कह सकता हूँ, सुख में हूँ, सुखी हूँ।...
[चित्र : विनोद कपूर के साथ मैं और शाही भाई के साथ भी.]
--आनन्द, लखनऊ : 27-12-2017.
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-01-2018) को "*नया साल जबसे आया है।*" (चर्चा अंक-2840) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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