बुधवार, 1 जुलाई 2009

क्यों है ?

सलीब यहाँ-वहां क्यों है ?
दोस्तों ने कह दिया खुदाहाफिज़,
दुश्मनों की ही ज़रूरत अब यहाँ क्यों है ?
रेश-रेशा जल रही है ज़िन्दगी अपनी,
फिर उजाले में जली शमा क्यों है ?

लुटने को क्यों खड़े हुए सरे-बाज़ार हम,
दीवानगी इतनी बेजार अमाक्यों है ?
इस झुलसती आग से तो दिन निकल गया,
मुझको जला रही ये बादे-सबा क्यों है ?

हर गली के मोड़ पर कुछ हादसे हुए,
चौराहों पर सहमी हुई हवा क्यों है ?
अब झाँकने लगी हैं खिड़कियाँ माकन से,
कतरा-कतरा बिखरा लहू वहां क्यों है ?

वो अब अमन के नाम की देंगे दुहाईयाँ,
ये बे-गैरत शोर ही बरपा वहां क्यों है ?
हम झूल जाने को तैयार बैठे हैं सलीब पर,
मेरा घर छोड़ कर सलीब यहाँ वहां क्यों है ?

10 टिप्‍पणियां:

ज्योति सिंह ने कहा…

बहुत खूब आनंद जी ,हर शब्द लाजवाब ,आप की तारीफ़ के लिए तो शब्द नहीं मिलते .बस इतना ही कह सकती हूँ क्या खूब लिखा है ?

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत खूब लिखा है...
खुद की पहचान का सफर...
शिकायतें भी खुद से...
खुदा भी कहां खुद से दूर...
खुद के क़रीब है खुदा तो भी शिकवा है हमें
दूर का खुदा तो सुनेगा क्यों?

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हर गली के मोड़ पर कुछ हादसे हुए,
चौराहों पर सहमी हुई हवा क्यों है ?
क्या बात है. लगता है, आपका प्रवास खत्म हो गया है.

के सी ने कहा…

वाह आपने तो मेरा आज का दिन मस्त कर दिया है , कभी कभी ही कुछ ऐसा पढने को मिल पाता है. आपकी लेखनी में जादू है कौनसी स्याही से लिखते हैं ?

ओम आर्य ने कहा…

वंदना अवस्थी दुबे जी ने आपका ब्लॉग सुझाया, उनका आभार प्रकट करता हूँ. और आपका शुक्रिया इस तेवर की रचनाओं के लिए.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

प्रिय किशोरजी,
प. के लिए ध. स्याही तो दरअसल वही है, जिससे आप 'परमिंदर की प्रतीक्षा में ठहरे हुए वक़्त' को रूपायित करते हैं. यह भोगे हुए यथार्थ, पहचानी हुयी पीड़ा की स्याही है.
'जुलहा कपड़े बुनता है, जाने क्या क्या गुनता है.
नयी चदरिया उससे बनती, जो कपास को धुनता है.'
जान चूका हूँ कि आप भी धुनने में लगे हुए हैं, मैं भी. आपको साधुवाद इसलिए कि परमिंदर ने मुझे भी भावुक किया; कुछ धुंधली यादें सजीव होकर सम्मुख आ खड़ी हुयीं. सोये को जगाने का शुक्रिया !

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

ओमजी,
आपको रचना प्रीतिकर लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ. आभारी हूँ.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

अजितजी,
आपकी टिपण्णी महत्वपूर्ण है. आभारी हूँ. कभी-कभी रचना के अभिप्रेत अर्थ से भिन्न अर्थ मूलतः प्रक्षिप्त होते हैं और पाठक उसका अन्वेषक भी होता है. कविता में गहराई तक उतरने का शुक्रिया !

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी,
प्रवास चालू आहे... ओम आर्यजी से परिचय कराने का शुक्रिया !

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

ज्योतिजी,
आपकी प्रशंसा अच्छी लगी. आप इसी तरह रचनाएँ पढ़कर मेरा उत्साहवर्धन करती रहें और मैं लिखता रहूँ. कुछ दिनों से आपके ब्लॉग पर जा नहीं सका, नहीं जनता आपने नया क्या लिखा. दिल्ली का जीवन बहुत भाग-दौड़ का है. इससे फुर्सत मिले तो आपकी अन्य रचनाएँ भी देखूं, पढूं. सप्रीत...