सोमवार, 20 जुलाई 2009

जनता पूछती है...


बात बेमानी हुई जाती,
चाल ढुलमुल हो रही है,
और संभाषणों के रंग
बदले-से नज़र आने लगे हैं !
जाने क्यों, हम ही शरमाने लगे हैं !

फिर कुठाराघात,
वज्राघात हुआ है आत्मा पर,
सहनशीला बनी सरकार --
यह सब देखती है,
भारत अपनी अदम्य शक्ति पर
अंकुश डाले
कब तक रहेगा मौन --
जनता पूछती है ?

कौन जाने कब खुलेगा
नेत्र तीसरा शिवशंकर का,
पद-दलित करने दुश्मनों को
कब जमेंगे पाँव भारत के --
अचल होंगे ?
मनमोहन जाने कब अटल होंगे ??

5 टिप्‍पणियां:

ओम आर्य ने कहा…

भाईया क्या क्या कह रहे हो .......सुन्दरता से पुछ रही हो यह जानकर अच्छा लगा ......सुन्दर

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत सही पूछ रही है जनता...

सागर ने कहा…

agar ismein neta ka naam nahi aata to sambhavtah zyada behtar rachna hoti. kyonki phir yeh sab par laagu hoti.

bahut achchi rachna... pehle ke post bhi padhe. kafi achche ban pade hai.

ज्योति सिंह ने कहा…

वंदना जी ने सही कहा ,आप लिखते कमाळ का तो है ही .बहुत सुन्दर .

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

सागर भाई,
आपकी टिपण्णी का शुक्रिया ! कई बार रचनाएँ सामयिक प्रभाव से उत्पन्न होती हैं, उसमे जाग्रत विवेक चाहे जैसा इस्तेमाल हुआ हो, उसे सार्वजनीन बनाने की चेष्टा कम ही होती है. 'जनता पूछती है..' भी ऐसी ही रचना है.
आपके ब्लॉग पर घूम आया हूँ; कवितायें ताजगी और नयापन लिए हुए उपस्थित थीं, अच्छा लगा. लिखते रहें. सप्रीत ...