मंगलवार, 21 जुलाई 2009

अधूरा आकाश


एए मेरे सपनों के प्रेत !
मेरे आसपास नाचना, गाना या
धूम मचाना
तुम्हारे लिए मज़ाक हो सकता है;
लेकिन मेरे लिए
ताज़ा अफवाहों के सिवा कुछ नहीं !

वर्षों के इस नंगे और दुखदायक जुलूस को
मेरे टेबल लैंप की रौशनी में
छोड़ जाओ,
छोड़ जाओ कांपते संबंधों के नाम
अधूरा, अस्पष्ट ख़त,
जाहिल फरमान,
हाँ, दारियाई घोडों कि पीठ पर
तुम आओ हांफते हुए,
प्रश्नों और उत्तरों को जांचते हुए....

अनछुई मुद्राएँ,
अनदेखी प्यास,
संज्ञाएँ बाँध गईं कितना विश्वास ?
अन्तर के जिस कोने
अंट जाए जितना आकाश !!

7 टिप्‍पणियां:

ARUNA ने कहा…

bahut achaa likha aapne anand ji!!!

Poonam Agrawal ने कहा…

Anchui mudraye
ahchui pyaas,
sangyan baandh gayee kitnaa vishvaas.... anter ke jis kone,
ant jaye jitnaa aakaash..

bahut sunder bhaav.....badhai

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

आनन्दवर्धन जी,

यथा नाम तथा गुण वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया। शब्दों का प्रवाह भावनाओं की पीठ पर सवार दिल को छू जाता है।
नई उपमायें, नव प्रतीक सभी कुछ सुन्दर।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

आनन्दवर्धन जी,

आपकी टिप्पणी ने उत्साह से भर दिया। रही बात समधर्मा होने की तो हम तो बिल्कुल आप ही के जैसे हैं।

आज आप्से मिलकर आनन्द आया और यह बना रहे यही कामना है।

मुकेश कुमार तिवारी

Arkjesh ने कहा…

आपकी तीनों कवितायें बहुत बढ़िया हैं -
खासकर "पंखविहीन हुए तो क्या है, हम उड़ सकते हैं,
नए क्षितिज और नयी दिशाएं भी गढ़ सकते हैं ।"

और
"अनछुई मुद्राएँ,
अनदेखी प्यास,
संज्ञाएँ बाँध गईं कितना विश्वास ?
अन्तर के जिस कोने
अंट जाए जितना आकाश !!"

बहुत पसंद आयीं | आपकी rachanaaoon ko dekhakar lagata hai ki
जो कहते है ब्लॉग पर साहित्य नहीं है, वे या तो दुराग्रहपूर्ण हैं या जानबूझकर आँखों पर patti बांधे हैं |
utsaahwardhan ke liye aabhaar !

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

कितना कुछ व्यक्त करती रचना...और सपनों का प्रेत!! क्या उपमा है!!बधाई.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

आप सबों का आभारी हूँ ! आ.