नवचेतना के छंद...
आज बूढा वृक्ष जर्जरथककर सो गया हैभूमि-शय्या परअतल-तल तक धंसी उसकी जड़ेंखींचती हैं --जीवनी शक्ति,शिथिल होती शिराएँ भीस्पंदित हो रहीं अभी;अधखुली आँखेंचेतना-उपचेतनाअर्ध-तंद्राअर्ध-जाग्रत की दशा मेंदेखती हैं स्वप्न !और मानसलोकअबतक बुन रहानवचेतना के छंद !!
13 टिप्पणियां:
इस ख़ूबसूरत और बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
सुन्दर अभिव्यक्ति |
हर रचना कमाल! पंक्ति-पंक्ति बेमिसाल..
सही कहा है |
वृक्ष कोमा में चला गया है |
ऊपरी लीपापोती से नवचेतना के छंद नहीं लिखे जा सकते |
बंधुवर (arkjeshji),
ठीक कहा आपने, किन्तु, बूढे वृक्ष को नवचेतना के छंद लिखने नहीं थे, वह तो उसकी शिथिल होती संरचना में भी उसका मानसलोक बुन रहा था; क्योंकि पत्तों में हरीतिमा, फूलों में लालिमा शेष थी, जीवन शेष था....
अग्रज आनंद वर्धन जी|
मै सन्दर्भ को समझ नहीं पाया था |
आपका आश्य मेरे लिए पूर्णतः स्पष्ट न होते हुए भी मैंने टिप्पणी की थी |
लेकिन अब शंका दूर हो गई है |
मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद |
bahut hi gahari baat ko darshati ek rachana......badhaaee
बहत सुन्दर अभिव्यक्ति है।
बधाई स्वीकार करें।
आपका निम्न स्पष्टीकरण
"किन्तु, बूढे वृक्ष को नवचेतना के छंद लिखने नहीं थे, वह तो उसकी शिथिल होती संरचना में भी उसका मानसलोक बुन रहा था; क्योंकि पत्तों में हरीतिमा, फूलों में लालिमा शेष थी, जीवन शेष था...."
पूरे गीत के वास्तविक मंतव्य को स्पष्ट कर गया.
सुन्दर गहन भाव से ओतप्रोत गीत पर हार्दिक बधाई.
आप सबों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ ! सादर... आ.
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आप सबों का आभारी हूँ ! आ.
vicharo ki anubhuti ak hi hai aur anubhuti jeevan ke anubhvo ki jhanki hai .
dhnywad
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