हिन्दी साहित्य सम्मलेन के मंच से...
[छठी किस्त]
अज्ञेयजी को मैंने 'अप्रतिम' कहा है, अकारण नहीं कहा। अज्ञेय निःसंदेह अप्रतिम थे। उनके जैसी मैंने दूसरी सख्सीयत नहीं देखी । मैंने कभी उन्हें क्रोध करते, झुंझलाते यां आवेश में नहीं देखा। अप्रिय प्रसंगों को भी वह अपनी चुप्पी, गंभीरता और अपनी अप्रतिम तेजस्विता से परे धकेल देते थे। उनका सामान्य संभाषण भी सधा हुआ और आरोह-अवरोह-विहीन, किंतु यथातथ्य होता था। इच्छा होती थी कि उनका बोलना और हमारा सुनना कभी ख़त्म न हो; लेकिन सच है, वह बहुत कम बोलते थे। अनावश्यक बोलना उन्हें प्रिय नहीं था। राजेंद्र प्रसाद व्याख्यानमाला के तीन सत्रों में मैंने उनका व्याख्यान सुना है--वह भाषण नहीं करते थे, सारगर्भित व्याख्यान देते थे; शिष्ट शब्दों में तथ्यों को ऐसा सजाकर श्रोताओं के सम्मुख रखते थे कि विषय का पुखानुपुंख ज्ञान हो जाता था।
एक बार वह अच्छे मूड में दिखे तो मैंने उनसे कहा--"आपकी अमुक-अमुक कवितायें मैंने पढ़ी हैं। वह इतनी अच्छी हैं कि मुझे लगता है कि मैं जीवन भर अपनी कलम घसीटता रहूँ तो वृद्धावस्था तक ऐसी एक कविता भी नहीं लिख सकूँगा।" वह दूसरों को बोलने का पूरा मौका देते (जिन्हें देना चाहते थे) थे; लेकिन जब उनके उत्तर की बारी आती थी तो एक वाक्य की अर्धाली भी मुश्किल से कहते थे। उन्होंने मेरी बात चुपचाप सुन ली, मीठा मुस्कुराए, फिर बोले--"ऐसा क्यों सोचते हैं आप...?" अब आगे कहने को क्या था ??
अज्ञेयजी निरभिमानी व्यक्ति थे, लेकिन स्वाभिमान उनमे प्रचुर मात्रा में था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक वाक़या याद आता है। सम्मेलन के महामंत्री प्रख्यात साहित्यकार और पिताजी के मित्र थे। उन्होंने सम्मान-समारोह का आयोजन किया था। अन्य साहित्यकारों के साथ वह अज्ञेयजी को भी सम्मानित करना चाहते थे। उनके सम्मुख संकट यह था कि अज्ञेयजी की ऐसे आयोजनों में बिकुल रूचि नहीं थी। अज्ञेयजी हिन्दी के इन अखाडों से दूर ही रहते थे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दी की दूकानें सजाने से हिन्दी का भला नहीं होनेवाला है; हिन्दी में इमानदारी से निष्ठापूर्वक काम करने कि ज़रूरत है। सबको मालूम था कि अज्ञेयजी न तो ऐसे समारोहों में शिरकत करते हैं और न ऐसे आयोजनों को तरजीह देते हैं। बहरहाल, महामंत्री महोदय पिताजी के पास आए। वह जानते थे कि पिताजी और अज्ञेयजी अत्यन्त घनिष्ठ मित्र हैं और अगर पिताजी जोर डालेंगे तो उनकी बात अज्ञेयजी उठा न सकेंगे। लम्बी भूमिका के साथ मंत्री महोदय की बात पिताजी ने सुनी, फिर कहा--"आपका निवेदन मैं अज्ञेयजी तक पहुँचा दूंगा। स्वीकृति-अस्वीकृति तो उन्ही पर निर्भर है। जैसा वह कहेंगे, फ़ोन पर आपको सूचित करूँगा।"
अज्ञेयजी से अगली मुलाक़ात में पिताजी ने सारी बात उनके सामने रखी। अज्ञेयजी मुस्कुराये, फिर गंभीर होकर बोले--"आपके द्बारा निमंत्रण भेजकर उन्होंने मेरी मुश्किल बढ़ा दी है। सम्मेलन वाले मेरा सम्मान करना चाहते हैं, उनकी मर्जी; लेकिन आप उनसे साफ-साफ़ कह दें कि मैं सम्मान के लिए नहीं, आपके दिए आमंत्रण की वज़ह से वहां जाऊँगा। अग्रिम पंक्ति में नहीं, जहाँ इच्छा होगी, बैठूँगा और मंच से तो हरगिज़ कुछ बोलूँगा नहीं। यदि उन्हें मेरी शर्त मंजूर हो तो कहें, मैं आपके साथ हाज़िर हो जाऊँगा।"
पिताजी ने मंत्री महोदय को फ़ोन पर अज्ञेयजी की शर्तें और सारी बातें विस्तार से बता दीं। उन्हें शर्तें मंज़ूर थीं। यथासमय वह समारोह हुआ। अज्ञेयजी पिताजी के साथ वहां पहुंचे और विशाल हॉल में पिछली पंक्ति में कहीं बैठ गए। वह एक बड़ा और भव्य आयोजन था, जिसमे हिन्दी के कई मनीषियों को सम्मानित किया जाना था। सबों का तो स्मरण नहीं रहा, लेकिन अज्ञेयजी के आलावा पंडित किशोरीदास वाजपेयीजी भी समारोह में सम्मानित होने के लिए उपस्थित थे। कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। हिन्दी-मनीषियों के सम्मान के बाद अचानक उद्घोषक ने मंच से अज्ञेयजी को दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किया। इस अप्रत्याशित पुकार से अज्ञेयजी अचकचाए और पिताजी की ओर वक्र दृष्टि डालते हुए और धीर-गंभीर पदाघात करते हुए मंच पर पहुंचे। माईक पर उन्होंने जो पहला वाक्य कहा, वहीँ से श्रोताओं के आनंद का ठिकाना न रहा। उनका पहला वाक्य था--"हिन्दी साहित्य सम्मेलन से मेरा उतना ही नाता है, जितना हिन्दी साहित्य सम्मेलन का हिन्दी से। ...." फिर तो अजेयजी ने ऐसी फुलझडियाँ छोडीं, ऐसे कटाक्ष किए और ऐसा तीखा व्यंग्य किया कि सम्पूर्ण दर्शक समूह ठहाके लगाता और तालियाँ पीटता रहा। आयोजकों का तो बुरा हाल था, उन्हें काटो तो खून नहीं।
पिताजी जब अज्ञेयजी के साथ कार से लौट रहे थे तो पिताजी ने कहा था--"मुझे मालूम नहीं था कि वह शर्तें मानकर भी ऐसा व्यवहार करेंगे।" अज्ञेयजी ने हमेशा की तरह संक्षिप्त उत्तर दिया--"लेकिन मुझे मालूम था !" पिताजी हंस पड़े और बोले--"लेकिन आपने भी आज उनकी खूब खबर ली।"
[क्रमशः]
7 टिप्पणियां:
agyey ji ke bare mein aapka sansamarn atisundar laga. unki do kavitayein mujhey bahut priy hain.Sanp tum sabhy to hue nahin...
doosri Yayavar rahega yad?...
aapka aabhar
आपकी लेखन शैली इतनी सजीव और सरल है कि सारी घटनायें चलचित्र की भांति दिखाई देतीं है. पढ के लगा जैसे इस समारोह में मैं भी मौजूद हूं. बहुत ही सजीव वर्णन.
वाह ! अन्य खूबियों के साथ-साथ रोचक भी हैं ।
लिखते रहिये बाद में इसे पुस्तकाकार छपवा दीजियेगा ।
YAH BILKUL SAHI HAI KI AAPAKE DWARA LIKHI GAYI SANSMARAN BILKUL CHALCHITRA KE BHANTI AANKO KE SAMANE PRASTUT HOTI HAI ...........INTAJAR RAHEGA ..........
नये-नये रंग जानने को मिल रहे हैं अज्ञेय जी के आपकी जादू भरी कलम के माध्यम से..तार-सप्तक की अपनी भूमिका मे कही अ्ज्ञेय जी ने लिखा भी था कुछ ऐसा कि सभा-गोष्ठियों मे कम जाने और एकाकी रहने की उनकी आदत को कुछ कृपालु लोग गंभीरता समझते हैं और शेष लोग अहंकार..
ओझा जी इतनी तफ़सील के साथ अज्ञेय जी के जीवन के विविध पक्षों के साथ हमारा परिचय कराने के लिये बहुत बहुत आभारी हूँ..आदत लगती जा रही है आपकी कलम से उनकी जिंदगी को पढने की.
श्यामजी, वंदना दुबेजी, अर्कजेशजी, आर्यजी,
आपलोगों की प्रतिक्रिया से बल मिलता है, आभारी हूँ !
अपूर्वजी,
'कलम से ज़िन्दगी पढने' वाली जो बात आपने लिखी है, इस पंक्ति से मन खिल आया है ! आभारी हूँ आपका !
सप्रीत--आ.
श्रद्धेय अज्ञेय की जिंदगी के इन रोचक पहलुओं से रूबरू होने का ये अनूठा मौका है।
आपके द्वारा तारीफ़ किये जाने पर उनका ये पूछना कि "--ऐसा क्यों सोचते हैं आप...?" लाजवाब कर गया...
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