गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

बन न सका सम्बन्ध-सेतु...
[आठवीं किस्त]

दिल्ली-प्रवास के दौरान ही मेरे ससुराल-पक्ष के लोगों का परिचय अज्ञेयजी और इलाजी से हुआ था। मेरे श्वसुर पूज्य श्री आर० आर० अवस्थी की प्रथम कन्या मेरी भार्या बनीं। वह कभी अपने पिता के साथ, कभी अपनी बहनों के साथ मायके जाया करती थीं। जैसा पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ, म० प्र० की यात्रा के लिए रात्रि-विश्राम अज्ञेयजी के घर होता था और सुबह-सबेरे हज़रात निजामुद्दीन स्टेशन पर मैं अपनी गृह-लक्ष्मी को उनके परिवार-जनों के साथ झाँसी केलिए विदा कर आता; इलाजी-अज्ञेयजी अनिवार्य रूप से साथ होते । 'देखकर छोड़ देने' के (सी-ऑफ़ करने) ऐसे ही एक मौके पर हमारे साथ सामन कुछ ज्यादा था, अज्ञेयजी ने एक बैग स्वयं उठा लिया। मेरी श्रीमतीजी और 'क़ानून की नज़र में मेरी बहन' अर्चनाजी परेशान होने होने लगीं और कहने लगीं--'आप बैग छोड़ दें, हम कुली ले लेते हैं।' अज्ञेयजी ने शांत स्वर में कहा--'कुली भी इसे उठाएगा ही। फिर ये तो भारी है नहीं।' हम निरुत्तर हो गए।...
मेरे श्वसुरजी इंटर कॉलेज के प्राचार्य थे। कार्यालयीय व्यस्तताओं के कारण वह प्रायः अपनी द्वितीय कन्या अर्चना अवस्थी अथवा तृतीय कन्या वंदना अवस्थी (अब 'दुबे' भी) को दिल्ली भेज देते, मेरी श्रीमतीजी को विदा कराने के लिए। इलाजी और अज्ञेयजी उन्हें भी यथेष्ट स्नेह देते और रात का भोजन आग्रहपूर्वक कराते। इलाजी एक-से-एक व्यंजन बनवातीं और उन्हें बनाने का विधि-विधान मेरी पत्नी को समझातीं। एक रात उन्होंने एक संपूर्ण फूलगोभी छुरी-कांटे के साथ टेबल पर रखी। मेरी श्रीमतीजी ने आश्चर्य से पूछा--'यह पूरी फूलगोभी क्या बनी हुई सब्जी है?' इलाजी ने बताया की इसे किस तरह वाष्प से पकाया गया है और इसे स्वादिष्ट बनाने के लिए क्या-कुछ ऊपर से डाला-छिड़का गया है। इस वार्तालाप में अज्ञेयजी की टिप्पणियां अलग महत्त्व की थीं। छुरी से काटकर सबों ने उसी गोभी की सब्जी के साथ रोटियाँ खाई थीं । उस सब्जी के स्वाद के क्या कहने ! अज्ञेयजी की वह पसंद की सब्जी थी और उसे बनाने का विधि-विधान भी उन्हीं का निर्धारित किया हुआ था।
कुछ मुलाकातों में ही अर्चनाजी ने अज्ञेयजी-इलाजी की प्रीती और स्नेह प्राप्त कर लिया था। तब अर्चनाजी ने स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की थी और अनुबंध पर आकाशवाणी, छतरपुर (म० प्र०) से सम्बद्ध थीं। एक दिन अकस्मात, अज्ञेयजी ने इलाजी की उपस्थिति में पिताजी के सम्मुख अर्चना के विवाह के लिए अपने भतीजे का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव से सभी प्रसन्न-मन हुए। अज्ञेयजी के भ्रात्रिज गोरे-चिट्टे सुदर्शन युवा थे। पिताजी ने अवस्थीजी को इस प्रस्ताव की सूचना दी और लिखा कि बिटिया के साथ शीघ्र ही दिल्ली आ जायें। अवस्थीजी अर्चनाजी के साथ दिल्ली आए। लड़की दिखाने और लड़के को देखने तथा वार्ताओं का दौर चला। फिर अवस्थीजी घर-परिवार की सहमति की बात कहकर अर्चनाजी के साथ वापस लौट गए। ... अपरिहार्य कारणों से वह सम्बन्ध हो न सका। पिताजी को इसका थोड़ा मलाल ज़रूर रहा, लेकिन अज्ञेयजी से हमारे संबंधों में कोई अन्तर न पड़ा। सच है, दैव-योग न हो तो सम्बन्ध नहीं हो पाते ! वह सम्बन्ध- सेतु बनते-बनते रह गया... हम ने यही मान कर संतोष कर लिया कि यह होना नहीं था !...
[क्रमशः ]

4 टिप्‍पणियां:

ओम आर्य ने कहा…

बढ़ा दो अपनी लौ
कि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,

इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !
दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ
ओम आर्य

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

अरे वाह!! मुझे मालूम था ये "प्रकरण" भी संस्मरण में स्थान पायेगा...बहुत खूब.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

ओम भाई,
दीप-उत्सव की अमित शुभकामनाएं !
वंदना दुबेजी,
यह प्रकरण तो स्थान पाता ही, अमूल्य-अविस्मरणीय यादें हैं वे--एक विशेष काल-खंड की !!
--आ.

गौतम राजऋषि ने कहा…

अरे वाह, अप्रतिम अज्ञेय के बहाने आज दो और रिश्तों का खुलासा हो गया...तो "हम-ब्लौगर" वंदना जी के आप जीजाजी हुये{हमारे यहाँ "ओझाजी"}...