जाने क्यों सारी ट्रेनें विलंब से आ रही थीं। प्लेटफार्म पर बहुत भीड़ थी। आने-जानेवाले लोग, स्वागत करने आए परिजन, कुली, भिखमंगे ! अपनी छोटी बेटी के साथ वह भी प्लेटफार्म पर खड़ा-टहलता थक गया था, लेकिन कुर्सी कहीं खाली न थी। और ट्रेन थी कि आने का नाम न लेती थी।
बड़े-से रिफ्रेशमेंट रूम के बाहर कतार-बद्ध लोहे कि कुर्सियों को वह हसरत-भरी नज़रों से देख रहा था। कहीं तिल रखने को जगह नहीं थी। लम्बी प्रतीक्षा के बाद दो कुर्सियां खाली हुईं, झपटकर वह अपनी बिटिया के साथ उन पर बैठ गया और राहत कि साँस ली। सोचा, अब जब गाड़ी आए... यहीं विश्राम होगा। कुसियों पर विराजमान सभी लोगों का यही मनोभाव था। कुर्सी पर रूमाल रखकर वह बगल कि दूकान तक गया और बेटी के लिए कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल खरीद लाया और फिर कुर्सी पर पसर गया।
तभी मलिनवसना एक युवती रिफ्रेशमेंट रूम के सामने आ खड़ी हुई। उसके हाथ में भोज्य-सामग्री थी, जिसे उसने यात्रा-तत्र बिखरे जूठन से उठा लिया था। वातानुकूलित रिफ्रेशमेंट रूम के द्वार पर वह ठहर गई और भिक्षा की याचना करने लगी। किसी ने उसकी पुकार नहीं सुनी। अचानक वह चिल्ला-चिल्ला कर आवाजें लगाने लगी। उसका शोर सुनकर रिफ्रेशमेंट रूम के दो कार्यकर्ता बाहर आए और उस अभागन को बलात वहां से हटाने लगे। खींचतान में उसके हाथ से नाममात्र का भोजन भी जमीन पर गिरकर बिखर गया।
युवती ने आग्नेय नेत्रों से दोनों युवकों को देखा और क्रोध में भरकर उनका मुंह नोच लेने को आगे बढ़ी। एक युवक ने बचाव में युवती का हाथ उमेठ दिया और दूसरे ने आवेश में उसके गाल पर कई थप्पड़ जड़ दिए। थप्पडों की चोट से आहत युवती ज़मीन पर गिर पड़ी। क्रोधावेश में उसने अपने सारे कपड़े फाड़ दिए और जोर-जोर से चिल्लाते हुए फर्श पर उलटने-पलटने लगी।
कुर्सियों पर बैठे लोग ये सारा तमाशा देखते रहे, कोई अपनी जगह से हिला भी नहीं। किसी ने उस असहाय की चिंता नहीं की। सभी अपनी-अपनी कुर्सी की चिंता में सन्नद्ध थे।
तभी बिटिया के शब्द उसके कानों में पड़े--''पापा ! यह नंगू-पंगु क्यों हो गई ?'' अब उसके लिए वहां बैठे रहना असंभव हो गया था, बोला--''पागल है बेटा !''
इतना कहकर वह बेटी का हाथ थामे दूसरी दिशा में चल पड़ा...
थोडी देर इधर-उधर भटकने के बाद वह यह सोचकर दुखी हो रहा था कि अब जाने कितनी देर और खड़ा रहना पड़ेगा। कुर्सी का मोह छूटता न था। थोडी दूर जाकर वह पलटा और हसरत भरी नज़रों से अपनी छोड़ी हुई कुर्सियां देखकर आश्चर्य से अवाक रह गया। किसी ने अपनी कुर्सी न छोड़ी थी। उसकी दो कुर्सियों पर भी दो शोहदे जमकर बैठ गए थे और दबी नज़रों से रह-रहकर नग्न युवती कि कलाबाजियां देख रहे थे।
अब उसे अपनी नादानी पर कोफ्त होने लगी थी ....
13 टिप्पणियां:
अच्छी लगी यह लघुकथा ।
मन को कहीं गहरे तक छू लेने वाली कथा
आपकी इस लघु कथा ने दिल को छू लिया
और सोचने पर मजबूर कर दिया
एक त्वरा के साथ ये रचना हमारे 'सभ्य' समाज से नकाब नोच लेती है...
बेधती है ये अन्दर तक.
आभार,ओझा सर.ज़रूरी रचना पढ़वाने का.
सूझ नहीं रहा था कि क्या कहूं ? इस बीच तीन बार पढ़ लिया.
संजय जी के शब्दों का सहारा लेता हूँ और इसे अपना वक्तव्य कह देता हूँ.
आप जो भी लिखते हैं है वह संवेदना के स्तर पर गहराई लिए होता है.
बधाई !
ऐसा घटनायें हम बहुधा देखते हैं । झकझोरने वाली लघुकथा । सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा ।
हाल में जबलपुर रेल्वे स्टेशन पर मैं भी एक हट्टी कट्टे बाप द्वारा अपनी चार साल की लडकी से भीख मगवाकर खाते देखा । दृश्य मुझे नहीं भूलता । वो आदमी एक जगह बैठा था और उसकी लडकी मांग-माग कर ला रही थी खाना और वह खा रहा था ।
रोचक और सफल लघुकथा के लिए आभार!
एक दर्द की आह है बस.....!!
आपकी रचना भीतर तक छू गई ......आपने जो ब्यान करना चाहा इसके आलावा भी वह औरत बहुत कुछ कहती है ....उसका पागल होना न जाने कितने राजों को छिपाय बैठा हो .....बहुत ही मार्मिक रचना .....!!
आपकी कुछ टिप्पणियां पढ़ीं अपने किसी प्रिय ब्लौगर के पोस्ट पर और खिंचा चला आया इस जानिब....जाने कैसे बेखबर था मैं शब्दों के इस अनमोल खजाने से!
एक सशक्त लघुकथा...शिल्प बांध के रखता है और कथ्य देर तक अपना प्रभाव छोड़ता हुआ। ’अप्रतिम अज्ञेय’ श्रंखला को पढ़ना चाहूंगा बारी-बारी से। लौटता हूँ खूब सारी फुरसतों के साथ!
राजरिशीजी,
ब्लॉगर मित्र बनने के लिए आभारी हूँ ! सधे क़दमों से आईये और मेरी पीठ थपथपाइए ताकि मज़बूत हो सके मेरी कलम और मेरा संकल्प !!
आभार--आ.
हकीकत बयान करती सुन्दर लघु-कथा, जिसने दीर्घ प्रभाव छोडा..बहुत सच्चे मन से लिखी गई कथा.
aaj sabhee ko bas apanee padee hai kahee samay ka abhav par yaha to manavata ka hee abhav nazar aa raha hai .badee marmik laghu katha .
चन्दनजी, बहुत दिन बाद दिखे ! मसरूफ थे क्या ?
सुनील भास्करजी, आपका मेरे ब्लॉग पर आना प्रीतिकर लगा.
अनिलकांतजी, व्यासजी, किशोरजी, अर्कजेशजी, शास्त्रीजी, हरकीरतजी, राजरिशीजी, वंदना दुबेजी,
यह लघु-कथा सत्य-दर्शन की बानगी है... इस सत्य के साक्षात्कार से मैं भी उद्विग्न था कुछ दिनों तक... फिर बात आयी-गई हो गई; लेकिन कई वर्षों तक वह मन के किसी कोने में दबी पड़ी रही और अब कथा के रूप में प्रकट हुई है ! इस पीडा के आपने भी दर्शन किये और मेरे मन की पीडा के सहभागी बने--इससे अब भार-मुक्त होता हूँ और आप सभी को साधुवाद देता हूँ !!
--आनंद.
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