सहसा निशा हुई...
[दसवीं समापन किस्त]
अज्ञेयजी ने 'हरी घास पर क्षण भर' बैठकर कोमल टहनी से चिडिया के उड़ जाने के बाद उसका थरथराना देखा था, उन्होंने सागर की अनेक मुद्राएँ देखीं थीं और 'एक बूँद के सहसा उछल जाने को' दुलारा था। उन्होंने 'साँप से सभ्य न बन पाने की' शिकायत की थी, उन्होंने 'दोलती कलगी छरहरी बाजरे की' को प्रीति से निहारा था और 'नीरव संकल्प' के साथ उसे शब्दों के सांचे में ढालकर एक अमर चित्र खींच दिया था। उन्होंने 'तनी हुई रस्सी पर ज़िन्दगी को एक छोर-से-दूसरे छोर तक नाचते' देखा था और रस्सी में जरा-सी ढील होने और संतुलन बिगाड़ने की बेफिक्र प्रतीक्षा की थी। ... पर्वत उन्हें पुकारते थे, नदियाँ उन्हें बुलाती थीं, सागर उन्हें आकर्षित करता था--ये सब उनकी काव्य-सर्जना के उपादान बनते हैं। उनका काव्य-फलक इतना विस्तृत और विराट है कि उसका कोई ओर-छोर नहीं मिलता। यह ऐसा यशःशरीर है, जिसका कभी क्षय नहीं होता।
कैवेन्तर्स ईस्ट (न० दि०) के विशाल प्रांगण में एक शानदार कोठी थी, उसी में अज्ञेयजी निवास करने लगे थे। १९८७ में उसी अहाते के एक बड़े वृक्ष की पुख्ता दरख्त पर उन्होंने काष्ठ का खूबसूरत कक्ष बनवाया था। उनका इरादा उसमे दिन का कुछ वक्त बिताने का था। यथासमय इसकी सूचना भी उन्होंने पिताजी को भेजी थी; लेकिन जिस दिन उन्हें काष्ठ-कक्ष में प्रवेश करना था, उसके एक या दो दिन पहले ही काल के क्रूर हाथों ने उन्हें वृक्ष की काष्ठ-कोठारी में जाने न दिया। उस दिन पिताजी अपने हिंदीसेवी मित्र गंगा शरण सिंह के साथ विद्यापीठ की एक सभा का सभापतित्व करने देवघर गए थे। उन्हें वहीँ और मुझे पटना में आकाशवाणी से यह दुखद समाचार मिला कि अचानक हृदयाघात से हिन्दी के शीर्षस्थ कवि-कथाकार अज्ञेय नहीं रहे। उस दिन पिताजी की (और मेरी भी) पीडा पराकाष्ठा पर पहुँची थी। देवघर में पिताजी और पटना में हम सभी शोक-संतप्त तथा मनःपीड़ा में पडे रहे। हिन्दी-जगत में जैसा सहसा निशा की घोर कालिमा व्याप्त हो गई थी। हिन्दी के दिवंगत साहित्यकारों की पंक्ति में अज्ञेयजी भी सम्मिलित हो गए थे। दिन-भर और देर रात तक उन्हीं की काव्य-पंक्तियों का स्मरण होता रहा :
''यह दीप अकेला गर्व भरा है,
प्रीति भरा, मदमाता--
इसको भी पंक्ति में दे दो !''
[समाप्त]
9 टिप्पणियां:
आलेख बढ़िया रहा।
आज खुशियों से धरा को जगमगाएँ!
दीप-उत्सव पर बहुत शुभ-कामनाएँ!!
अप्रतिम श्रृंखला रही ये.आभार.
लगा जैसे अभी-अभी हमें अज्ञेय जी के देहावसान की सूचना मिली हो...इतने दिनों से तो आपने उन्हें जीवंत कर रखा था...अप्रतिम शृंखला..साधुवाद.
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !
मित्रो,
दस किस्तों की संस्मरण-श्रृंखला लिखने के लिए, कहिये, एक तरह से समाधि में था. मेरे लिए अज्ञेयजी पर लिखना आसान नहीं था. जो जितना निकट का होता है, उसके बारे में कुछ कहना-लिखना उतना ही कठिन होता है, मेरी यह मुश्किल समझी जा सकती है. अज्ञेयजी पर लिखने में इतने मनोयोग की आवश्यकता हुई कि और चीजों पर मेरी पकड़ ढीली पड़ गई. मैं प्रति-टिप्पणियां न कर सका, ब्लोगर मित्रों के प्रति आभार प्रकट न कर सका; इसका मुझे खेद है; लेकिन संस्मरण को समाप्त करके मै पीत-प्रसन्न हूँ.
उन सभी मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने संस्मरण की विभिन्न कड़ियों में अपने विचारों और मंतव्यों से मेरा उत्साहवर्धन किया है.
--आनंदवर्धन.
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
आपकी इस श्रंखला को पढ़ते हुए एक भी क्षण ऐसा न था जब मुझे अपने बचपन के दिन न याद आए हों, उन दिनों मुझे ख़ुशी इस बात की थी कि मैं इस नाम का शुद्ध उच्चारण किया करता था. आपके इस संस्मरण पर कहने के लिए चार ही शब्द जुटा पाया हूँ " आप भी अप्रतिम हैं "
ओझा जी पहले तो मैं आपसे कहना चाहता हूँ..कि आप स्वयं भी नही जानते होंगे कि संस्मरण की यह अभूतपूर्व श्रंखलालिख कर आपने मेरे ऊपर और मेरे जैसे कितने ही उत्सुक साहित्यानुरागियों पर कितना अहसान किया है..नदी के द्वीप, शेखर, हरी घास पर क्षण भर आदि कृतियां बाजार मे मिल जायेंगी आज भी..मगर उनके जीवन की यह दैनिन्दिन बातें, व्यक्तित्व के नये-नये खुलते पहलू और एक सहज हृदय के अंतर का साक्षात्कार..किसी पुस्तक, किसी रचना मे नही मिलेगा..इस लिये आपकी यह श्रंखला हिंदी ब्लॉगिंग की अनमोल धरोहर है
....और जो एक उपलब्धि इस श्रंखला की मुझे लगी कि अज्ञेय जी के बहाने एक पूरा दिक्काल...एक पूरा समयचित्र जैसे उपस्थित कर दिया आपने उस वक्त का..आप व आपका पूरा परिवार..साहित्येतर मुश्किलें..सतत संघर्ष..और आप मे अँखुआती साहित्यप्रतिभा के विकास का क्रम...दरअसल अज्ञेय जी के हेतु से उस समय/परिस्थितियों का इतना सजीव चित्रण..किसी संस्मरण के कैनवस को विस्तृत और कालजयी बनाता है..मैं तो बस कहूँगा..अप्रितम ओझा जी....
आशा करता हूँ कि अपने अनुभव के मोती अपनी अद्भुत प्रतिभा से चमका कर हम ग़रीबों पर आप आगे भी लुटाते रहेंगे..और यह संस्मरण का क्र्म आगे भी चलता रहेगा...आपने शुरू मे जैनेंद्र जी के सानिध्य का भी जिक्र किया था ;-)
कृतज्ञ हूँ आपका..विनती स्वीकार करने के लिये!!
सम्मान्य शास्त्रीजी, स्नेही भाई व्यासजी, मुझे मेरी याद दिलानेवाली वंदना दुबेजी, लेखन को मिशन बनानेवाले भाई शिवम् जी,
आप सबों को 'अप्रतिम अज्ञेय' संस्मरण पसंद आया, यह जानकार मुझे प्रसन्नता हुई है. आप सबों का बहुत-बहुत आभारी हूँ !
किशोर भाई,
मेरी बड़ी बेटी (जिसके पास मैं इन दिनों हैदराबाद आया हुआ हूँ) जब तीसरी कक्षा में थी, तो उसने भी अज्ञेय जी की एक कविता का पाठ किया था : 'मतिआया सागर लहराया...' और उनका पूरा नाम शुद्ध-शुद्ध उच्चारित किया था ! बिटिया को खूब तालियाँ मिली थीं. बाद में, बड़ी कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते, वह अपने विद्यालय (केंद्रीय) की प्रमुख प्रवक्ता ही बन गई थी; बच्चों में ये संस्कार रचने होते हैं--परत-दर-परत ! जानता हूँ, आप भी अपने बच्चों को ऐसा ही संस्कार देंगे... इसके प्रमाण तो मिलने भी लगे हैं !
अज्ञेयजी पर आपकी टिप्पणियों से आगे लिखने का साहस बना रहा, सचमुच आभारी हूँ !
अपूर्वजी,
जब आप आये तो खूब आये ! मैंने एक सूची बनाई है और निश्चय किया है कि हर महीने एक संस्मरण ब्लॉग पर लिखूंगा, जब तक सूची के नाम समाप्त न हो जाएँ ! अब मेरी स्मृति में उभरने वाला अक्स किनका होगा, ठीक-ठीक कह नहीं सकता; लेकिन कोई अनूठा, अप्रतिम चेहरा होगा ज़रूर !
मेरी रचनाओं को अपने विवेक के खरल में डालकर कूटते रहिये और अवांछित खर-पात को निकाल फेंकने को निःसंकोच कहिये, मुझे ख़ुशी होगी ! सचमुच आपका बहुत आभारी हूँ !
सप्रीत--आ.
आह! ये संस्मरण इतनी जल्दी संपन्न हो जायेगा सोचा न था। बड़े मनोयोग से हर दूसरे-तीसरे दिन इस "अप्रतिम अज्ञेय" पढ़ने की आदत सी हो गयी थी।
आपकी अनूठी लेखन-शैली और जाहिर होते नित नये प्रसंगों से एक अलग ही अनुभव से गुजरने का मौका दिया हओ तुच्छ ब्लौगरों को। ये पूरी श्रृंखला हिंदी ब्लौग के सर्वश्रेष्ठ पृष्ठों में शुमारा होगी....
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