वह निश्छल-उन्मुक्त हँसी...
[तीसरी किस्त]
सदा धीर-गंभीर और सजग रहनेवाले महाकवि अज्ञेय के सम्बन्ध में सामान्यतया यह धारणा बद्धमूल है कि वह अत्यधिक आत्मगोपन की प्रवृत्ति के कारण सहज नहीं थे। विशाल पर्वत की तरह अटल रहनेवाली उनकी गंभीरता किसी को भी निकट आने से रोकती थी। अज्ञेयजी के शिष्यों ने ही उन्हें, बाद के वर्षों में, 'कई तहों में लिपटा हुआ व्यक्तित्व' तक कह दिया था। लेकिन इस धारणा के विपरीत मैंने उन्हें बहुत सरल, सहज और उन्मुक्त हँसी हँसते हुए देखा है। अज्ञेयजी के सम्बन्ध में ऐसी धारणाओं को भ्रांत सिद्ध करने के लिए मेरे पास एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं। उनमे से एक का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा।
१९६८ में मेरी माता के निधन के बाद मेरी बड़ी बहन ने घर की रसोई संभाली थी। १९७३ में बड़ी बहन के विवाह के बाद यह दायित्व मेरे अनुज के कन्धों पर आ पड़ा। वर्षों तक रंधन-कर्म करते हुए वह सिद्ध पाक-शास्त्री बन गए थे। अज्ञेयजी के यहाँ भोजन करते हुए पिताजी अक्सर मुग्ध-भाव से मेरे अनुज की पाक-कला की प्रशंसा किया करते थे। एक दिन अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा--"लगता है, किसी दिन आपके कनिष्ठ पुत्र के हाथ का बनाया भोजन करना ही पड़ेगा।" योजना बनाकर वह इलाजी के साथ हमारे घर पधारे। मेरे अनुज ने दिन के सामान्य भोजन की व्यवस्था की थी। लेकिन हुआ कुछ ऐसा कि जैसे ही अज्ञेयजी ने इलाजी के साथ मेरे घर में प्रवेश किया, मानसिक रूप से अविकसित मेरी छोटी बहन महिमा अचानक प्रकट हुई और अज्ञेयजी का हाथ पकड़कर 'बाबूजी-बाबूजी' कहती हुई उन्हें बलात अपने कक्ष में ले गई। उसने अज्ञेयजी से अपने अस्त-व्यस्त बिस्तर पर बैठने का आग्रह किया, जिस पर कंकड़-पत्थर और धूल पड़ी रहती थी। साफ़-सुथरी वेश-भूषावाले अज्ञेयजी ने एक क्षण का भी विलंब नहीं किया, तत्काल उस गंदले बिस्तर पर बैठ गए। मेरी उस छोटी बहन की मति-गति विचित्र थी। उसके पास शब्दों की पूँजी बहुत थोडी थी। वह घर-बाहर से नंगे पाँव दौड़ लगाती आती और अपने बिस्तर पर बैठ जाती। बाहर से चुनकर लाये कंकडों से खेलना उसे प्रिय था। जब अज्ञेयजी उसके बिस्तर पर बैठ गए, तो वह उन्हीं कंकडों से खेलने का उनसे आग्रह करने लगी। अज्ञेयजी की असुविधा का ख़याल करके मैंने हस्तक्षेप करने की चेष्टा की तो इशारे से उन्होंने मुझे रोक दिया और महिमा के साथ कंकडों का विचित्र खेल खेलने लगे। प्रसन्नता से भरकर मेरी बहन किलकारियां भरती और अज्ञेयजी उसके साथ बच्चों की तरह उन्मुक्त हँसी हँसते। विराट व्यक्तित्व के धनी अज्ञेयजी उस दिन सचमुच छोटे-से बालक बन गए थे। आज न अज्ञेयजी हैं और न मेरी छोटी बहन, लेकिन उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी, बाल-सुलभ चेष्टाएँ जब भी याद आती हैं, मन में एक टीस-सी उभरती है !
तब दिल्ली के उस किराए के घर में हमारे पास सीमित साधन थे। भोजन के लिए डायानिंग टेबल और कुर्सियां नहीं थीं। जामीन पर चटाई बिछाकर हम सबों ने अज्ञेयजी-इला जी के साथ भोजन किया। घर से विदा होते वक्त अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा था--"बहुत दिनों के बाद वैष्णवी मुद्रा में बैठकर किया गया भोजन सचमुच बहुत तृप्तिदायक था। " पिताजी और हम सभी उनकी इस प्रतिक्रिया से अत्यन्त प्रसन्न थे। ...
[क्रमशः]
7 टिप्पणियां:
सच है. अज्ञेय जी के धीर-गम्भीर व्यक्तित्व को देख कभी कोई उनके भीतर की मासूमियत को महसूस ही नहीं कर सका. केवल पढ कर जानने वाले तो उन्हें आभिजात्य वर्ग का कवि ही मानते है. आप चूंकि उनके करीब रहे हैं इसलिये उनके बारे में ज़्यादा प्रामाणिक बातें बता सकते हैं. बेहतर तरीके से उनके अन्तर्मुखी व्यक्तित्व को समझा सकते हैं.
प्रसन्नता से भरकर मेरी बहन किलकारियां भरती और अज्ञेयजी उसके साथ बच्चों की तरह उन्मुक्त हँसी हँसते। विराट व्यक्तित्व के धनी अज्ञेयजी उस दिन सचमुच छोटे-से बालक बन गए थे। आज न अज्ञेयजी हैं और न मेरी छोटी बहन, लेकिन उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी, बाल-सुलभ चेष्टाएँ जब भी याद आती हैं, मन में एक टीस-सी उभरती है.............
बेहद खुबसूरत यादे .........
सादर
ओम
आपकी स्मृतियों के साथ साथ चल रहे हैं अच्छा लग रहा है ।
आपने अज्ञेय जी का बहुत बढ़िया संस्मरण प्रस्तुत किया है।
आभार!
ओझा जी अज्ञेय जी के व्यक्तित्व के साथ साथ समय और परिस्थितियों की उस कठोर आग जिसमे तप कर आप स्वर्ण से तप्त और मूल्यवान हुए हैं, का साक्षात्कार आँखें भिगो देता है..यकीनन इतने भावस्पर्शी रंग बिखेरना आपकी कलम की उपलब्धि है.
वंदना दुबेजी, ओम भाई, अर्जकेशजी,शास्त्रीजी, अपूर्वजी,
आप सबों की टिप्पणियां सहस और संबल देती हैं; आभारी हूँ ! सच में...
--आ.
ये तो वाकई नयी जानकारी मिली है गुरूवर। वर्ना हम जैसे तुच्छ पाठकों के लिये तो अज्ञेय हमेशा एक चमकता सितारा रहे हैं, जिसे देखा तो जा सकता है, महसूसा तो जा सकता है लेकिन छुआ नहीं जा सकता।
दिलचस्प किस्त!
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