[समापन किस्त]
उस समय के जो लोग मेरी तरह आज भी जीवित हैं, उन्हें तो उस ज़माने की वे दृश्यावलियाँ कभी भूल ही नहीं सकतीं। बाद की पीढ़ी के लोगों ने भी उस ज़माने की ज़द्दोज़हद के बारे में पढ़ा और बड़े-बूढों से उस दीवानगी की कहानियां जानी होंगी। आज 'दीवानगी' का प्रयोग करते हुए मैं रोमांचित हो उठाता हूँ; क्योंकि मुझे भली-भांति याद है कि आज़ादी के उस समय के बलिपंथी सचमुच किस तरह और किस हद तक दीवाने हो गए थे। उन्हें घर-परिवार, बाल-बच्चे, खाने-सोने किसी बात का होश नहीं रह गया था; अगर होश था सिर्फ एक बात का कि हमें अपनी आज़ादी विदेशियों के हाथो से हर हालत में वापस लेनी है। यह देख-जानकर अचरज होता था कि आज़ादी के उन दीवानों का का एक लक्ष्य था, एक अभिलाषा थी और एक ही संकल्प था, जिसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने, अपने प्रियजनों से भी मुंह फेर लेने में उन्हें संकोच नहीं होता था। एक छोटी-सी घटना से मेरी इस बात का खुलासा हो सकेगा। मेरे एक परिचित लेखक के यहाँ शाम के धुंधलके में गिरफ्तारी का वारंट लेकर पुलिस दल पहुंचा। घर में पति-पत्नी दो ही व्यक्ति रहते थे और पत्नी आसन्न प्रसवा थीं। देखते-ही-देखते पड़ोस के कई लोग वहाँ पहुँच गए, जिनमे सबसे छोटी उम्र का मैं भी था। उनकी पत्नी तो गिरफ्तारी का नाम सुनकर रोने लगीं, लेकिन उन्होंने मुस्कुराकर हाथ आगे बढ़ा दिए और पुलिसवाले उनके हाथ में हथकड़ियां डालकर अपने साथ ले गए। इस घटना ने मेरे बालक मन को झकझोर दिया और मैं रात को बहुत देर तक सोचता रहा कि ऐसी हालत में भाभीजी का क्या होगा और उनके दिन कैसे गुजरेंगे।
लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ। दूसरे दिन मैंने जाकर देखा : घर में न तो पैसा था, न अन्न-पानी। भाभीजी ने अपना मन पोढ़ाबना लिया था और जल पीकर उदास बैठी हुयी थीं, लेकिन फिर ऐसा अजूबा हुआ कि मोहल्ले की अनेक महिलायें वहाँ आ जुटीं। आनन्-फानन में सारा प्रबंध हो गया और आठ- दस दिनों के बाद भाभीजी ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस तरह एक परिवार की असुविधा को और कष्ट को मोहल्ले के लोगों ने इस तरह बाँट लिया कि उस घर में अकेली रह गई भाभीजी को ऐसा लगा जैसे वह किसी भरे-पूरे परिवार में हों।
यह एक छोटा-सा चित्र है मेरी ज़िन्दगी के दूसरे दौर का। लेकिन पहला दौर जीतनी जल्दी ख़त्म हो गया था, दूसरा उतना ही लंबा खिंचता रहा। गांधीजी ने सन २० के आरम्भ में जो आन्दोलन चलाया था, वह विभिन्न स्थितियों, रूपों और पडावों से होता, उठाता-गिरता, तेज-मद्धिम होता सन ४७ तक चला और आखिर सन ४७ के १५ अगस्त को भारत स्वतंत्र हो गया। इस दूसरे दौर कि एक झांकी भी मेरी इसी कविता में देखी जा सकती है :
काल के अनंत प्रवाह में
सत्तर-अस्सी सालों का कोई महत्त्व नहीं होता
उस समय मैंने जिन लोगों को देखा था
जिनके साथ उठा-बैठा, जिया-बढ़ा था,
वह अपने देश पर
कुर्बान होने को तैयार रहते थे
उन्हें अपने देश पर,
अपनी संस्कृति पर,
भाषा पर, भूषा पर अभिमान था,
वे प्यार और आत्मीयता के
सुदृढ़ बंधन से बंधे हुए थे,
उनमे एक कि ख़ुशी दूसरे की
दूसरे का दर्द तीसरे का
और तीसरे की मुसीबत
चौथे की अपनी मुसीबत होती थी,
तब हर आदमी एक-दूसरे की मदद करने
एक-दूसरे के काम आने और
एक-दूसरे का दुःख बांटने के लिए
हर वक़्त तैयार रहता था ...
मुझे याद है, सन २० में जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया, रोज़ जुलूस निकलते, रोज़ धरने दिए जाते, धर-पकड़ होती और चारो ओर गहमा-गहमी मची रहती थी। उन दिनों इलाहाबाद के किसी देहात से एक मस्ताना मर्द खंजड़ी बजा-बजाकर बड़ी दिलकश आवाज़ में एक गाना गाया करता, जिसके बोल अभी तक मेरी स्मृति में गूंजते रहते हैं। गीत था--
सुनि ल का का इहवां होई, जब सुरुजिया होई ना।
गेहूं के रोटी गदेलवा खईहीं, ओपर गुड धई जाई ना॥
इस गीत से स्पष्ट होता था कीउस समय के आम आदमी कि सबसे बड़ी कामना यह थी कि उसके बाल-बच्चों को खाने के लिए गेहूं कि रोटी मिले और उस पर थोड़ा-सा गुड भी रखा हो। परतंत्रता की पीड़ा को उजागर करनेवाला यह एक ऐसा मर्मंतुद चित्र था, जो विदेशी शासन की बर्बरता और तज्जनित भारतीयों की दुर्दशा को एक साथ उजागर करता था....
[७५ वर्षों के विशाल साहित्यिक फलक पर अनवरत चलती मुक्तजी की लेखनी ने इन्हीं शब्दों के साथ चिर-विराम पाया! उन्हें शत-शत प्रणाम !!]
10 टिप्पणियां:
लेख की अन्तिम किशत भी सुन्दर रही!
बहुत सुन्दर आलेख रहा...
aashchrya! aap ki lekhni me jaadu hai,jaise hr pl ke sakshi hm bhi ho
सचमुच कितने कष्ट उठाकर यह आजादी मिली थी ...प्रणाम !
कठिन समय के आदमी की पीड़ा बस रोटी के साथ गुड मिलने तक ही थी ...कठिन समय बीतने के बाद पीड़ा कम हुई और लालसाएं , महत्वाकांक्षाएं बढती गयी जिसकी परिणिति सामने है ...
मगर साथ मिल कर पीड़ा बांटने की कोशिशें मौजूद भी है ...पहला कदम हम बढ़ाये तो ...!!
इस उत्कृष्ट लेखनी को प्रणाम ! क्या गद्य, क्या पद्य - हर जगह विस्मित विमुग्ध रहा !
प्रस्तुति का आभार ।
आपकी लेखनी को शत शत नमन ...पहली बार यहाँ आना हुआ..और मन गद गद हो उठा है.
क्या कहूं? अविस्मरणीय श्रृंखला.
"काल के अनंत प्रवाह में सत्तर-अस्सी सालों का कोई महत्त्व नहीं होता"...काश कि मुक्त जी अभी होते तो मैं कहता उनसे कि ये सत्तर-अस्सी साल कितने महत्वपूर्ण रहे कि उनके चले जाने के पश्चात भी हम उनके योग्य पुत्र की कृपा से जी रहे हैं उन सालों को।
आज फुरसत में बैठ कर तीनों किश्त पढ़ लिया है। एक अप्रतिम दस्तावेज है ये तो। वैसे सच कहूँ तो पोस्ट-दर-पोस्ट ये पूरा का पूरा "मुक्ताकाश" ही कालजयी, अप्रतिम होता चला जा रहा है।
बंधुओ,
एक बेहद दुखद प्रसंग उपस्थित हो जाने के कारण जौनपुर के सुदूर गाँव में दस दिनों के लिए जाना पडा था. मेरी समधिन श्रीमती परमावती उपाध्यायजी का हृदय गति रुक जाने के कारण अचानक ५ फ़रवरी को निधन हो गया था...विषाद की घनी छाया में उनका पूरा घर लिपटा था. मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने वहीँ गया था. आज ही लौटा हूँ !
आप सबों की प्रतिक्रया के लिए हृदय से आभारी हूँ !
विनीत--आ.
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