शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

तुम आते एक बार...


मेरी देहरी पर आकर
क्यों ठिठक गए थे तुम..?
तुम्हारे हाथों ने
क्यों नहीं बजायी थी सांकल ?
क्या हवाओं ने थाम ली थी तुम्हारी कलाई
या मन के किसी अवगुंठन ने
रोक दिया था तुम्हें...?

मैं तो मन की खिड़की
खोले बैठा था,
द्वार भी खुला था
बस, पल्ले भिड़े थे...
बीच की दरार से
बेख़ौफ़ आती-जाती थी हवाएं,
विषैले मच्छर,
गुनगुनाती मक्खियां
और डंक मारती सुधियाँ...!

तुम्हें तो बस थपकी भर देनी थी,
खुल जाता द्वार
तुम आ जाते निर्विकार
खौलता हमारे बीच
फिर कोई नया विचार
या दमित प्यार
अथवा बढ़ जाती और दरार...
बंधु, तुम आते तो एक बार...!!

6 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

प्यारा एहसास...

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

आपकी एकलौती टिप्पणी के लिए आभारी हूँ पाण्डेयजी...!

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

शास्त्रीजी,
आभार! आपको प्रेम की यह पुकार, यह मनुहार प्रीतिकर लगी, जानकार अच्छा लगा! चर्चा में शामिल करने के लिए कृतज्ञ हूँ...! सादर--आ.

Unknown ने कहा…

आदरणीय बहुत अच्छी रचना चर्चा मंच की आभारी हूँ जो आपका लिखा पढने को मिला :-)
मेरी नई कविता समय निकाल कर अवश्य पधारें Os ki boond: तुम मिले

Arun sathi ने कहा…

गहरी सम्बेदना....प्रेम की....आभार

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

पंखुरी गोयलजी, अरुण सेठीजी,
आपकी टिप्पणियों के लिए आभारी हूँ!
साभिवादन--आनंद.