मेरी देहरी पर आकर
क्यों ठिठक गए थे तुम..?
तुम्हारे हाथों ने
क्यों नहीं बजायी थी सांकल ?
क्या हवाओं ने थाम ली थी तुम्हारी कलाई
या मन के किसी अवगुंठन ने
रोक दिया था तुम्हें...?
मैं तो मन की खिड़की
खोले बैठा था,
द्वार भी खुला था
बस, पल्ले भिड़े थे...
बीच की दरार से
बेख़ौफ़ आती-जाती थी हवाएं,
विषैले मच्छर,
गुनगुनाती मक्खियां
और डंक मारती सुधियाँ...!
तुम्हें तो बस थपकी भर देनी थी,
खुल जाता द्वार
तुम आ जाते निर्विकार
खौलता हमारे बीच
फिर कोई नया विचार
या दमित प्यार
अथवा बढ़ जाती और दरार...
बंधु, तुम आते तो एक बार...!!
6 टिप्पणियां:
प्यारा एहसास...
आपकी एकलौती टिप्पणी के लिए आभारी हूँ पाण्डेयजी...!
शास्त्रीजी,
आभार! आपको प्रेम की यह पुकार, यह मनुहार प्रीतिकर लगी, जानकार अच्छा लगा! चर्चा में शामिल करने के लिए कृतज्ञ हूँ...! सादर--आ.
आदरणीय बहुत अच्छी रचना चर्चा मंच की आभारी हूँ जो आपका लिखा पढने को मिला :-)
मेरी नई कविता समय निकाल कर अवश्य पधारें Os ki boond: तुम मिले
गहरी सम्बेदना....प्रेम की....आभार
पंखुरी गोयलजी, अरुण सेठीजी,
आपकी टिप्पणियों के लिए आभारी हूँ!
साभिवादन--आनंद.
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