गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

जाने कब आओगे तुम...?


कुछ आहटें
तकलीफों के
खुले दरवाज़े पर
देती हैं दस्तक,
बार-बार देखता हूँ उधर;
वहां कोई नहीं होता
तुम भी नहीं,
तुम्हारा वजूद भी नहीं...
होती है सिर्फ़
दरवाजों की भड़-भड़
शायद ये हवाएं
ले आयी हैं --
तुम्हारी यादें !

जाने कब बंद होंगे
तकलीफों के
ये खुले द्वार;
इन पर सांकल चढाने
जाने कब आओगे--
तुम !!

15 टिप्‍पणियां:

Himanshu Pandey ने कहा…

भावनात्मक संवेदना पूर्ण खूबसूरत प्रविष्टि । आभार ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बढ़िया लिखा है।
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

"जाने कब बंद होंगे
तकलीफों के
ये खुले द्वार;
इन पर सांकल चढाने
जाने कब आओगे--
तुम !!"

अत्यन्त सुंदर रचना! आभार ।

vandana gupta ने कहा…

ek bahut hi samvedansheel rachna likhi hai.......badhayi

Naveen Tyagi ने कहा…

दरवाजों की भड़-भड़
शायद ये हवाएं
ले आयी हैं --
तुम्हारी यादें !

bahut sundar

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

जाने कब बंद होंगे
तकलीफों के
ये खुले द्वार;

बढ़िया सरल-सुबोध शब्दों के प्रयोग से गहरी भावव्यक्ति. प्रयोग पुर्णतः सफल रहा.
हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

sanjay vyas ने कहा…

छोटे में स्मृतियों और साझेपन के विराट भाव समेटे.
सादर.

ज्योति सिंह ने कहा…

bahut sundar aanand ji .

के सी ने कहा…

कुछ लम्हे, ख़ास लोगों के बिना जीवित नहीं होते.
बहुत खूब !

अपूर्व ने कहा…

क्या बात है सर जी..एक नया अंदाज..एक नया तेवर..बहुत खूब..इस नज़्म की शिद्दत, इसकी बेचैनी, और इसमे छुपी उम्मीद के शाश्वत्य की तारीफ़ मे कही कोई भे बात सूरज को दिया दिखाना हो होगा..बेसब्री से रहता है आपकी हर पोस्ट का इंतजार..

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

एक विचित्र अनुभव और भावोद्वेग को आप सबों ने इतना सराहा है कि मैं कृत-कृत्य हुआ जाता हूँ. सत्यतः बहुत-बहुत आभारी हूँ आप सबों का ! विनीत--आ.

ओम आर्य ने कहा…

कुछ चीजे ऐसी होती है कि जिनका इंतजार ताउम्र रहती है ......और इंतजार जिसमे एक कशिश और खुमार दोनो ही भरपूर होता है .....बहुत ही खुबसूरत भाव से लबरेज़ रचना.

सादर
ओम

ओम आर्य ने कहा…

कुछ चीजे ऐसी होती है कि जिनका इंतजार ताउम्र रहती है ......और इंतजार जिसमे एक कशिश और खुमार दोनो ही भरपूर होता है .....बहुत ही खुबसूरत भाव से लबरेज़ रचना.

सादर
ओम

Ambarish ने कहा…

जाने कब बंद होंगे
तकलीफों के
ये खुले द्वार;
इन पर सांकल चढाने
जाने कब आओगे--
तुम !!

aayega,
wo jaroor,
ek na ek din,
saankal chadhane,
in khule dwaron par,
aur fir,
wo pal,
bhul nahi paaogey kabhi--
tum!!

पारुल "पुखराज" ने कहा…

bahut sundar !