गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

'कितनी नावों में कितनी बार' की वह दुर्लभ प्रति !
[चौथी किस्त]

कालांतर में अज्ञेयजी दैनिक 'नवभारत टाइम्स', नई दिल्ली के प्रधान संपादक बने और उन्हीं के आग्रह पर सप्ताह में दो काॅलम उस पत्र के लिए पिताजी लिखने लगे। लिहाजा, सप्ताह में दो दिन न. भा. टा. के दफ़्तर मेरा जाना तय हो गया था। पिताजी का आलेख पहुँचाने के अलावा 'नया प्रतीक' के काम से भी वहाँ जाना होता था। उन दिनों मैं राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली के संपादकीय विभाग से सम्बद्ध था। कभी-कभी अपने दफ़्तर से फ़ोन करके अज्ञेयजी मुझे राजकमल से बुला लेते और आवश्यक निर्देश देते हुए 'प्रतीक' की सामग्री, प्रूफ़ आदि का पैकेट पिताजी को देने के लिए दे देते।
अब सप्ताह में दे-तीन बार अज्ञेयजी से मेरा मिलना होने लगा। अज्ञेयजी स्वभावतः अल्पभाषी थे और मैं अतिभाषी। वह मेरे बहुत सारे प्रश्नों का अत्यन्त संक्षिप्त, किंतु सटीक उत्तर छोटे-छोटे वाक्यों में देते। जब भी मैं उनके दफ़्तर में प्रवेश करता और उनके चरणों के स्पर्श को आगे बढ़ता, वह सावधान और संकुचित हो उठते तथा 'बस-बस' कहते हुए नमस्कार की मुद्रा में खड़े हो जाते थे। एक दिन जब मैं उनके पास पहुँचा, तो मैंने देखा कि वह बड़े मनोयोग से अपने चश्मे के शीशे के एक भाग को बहुत छोटी-सी रेती से घिस रहे हैं। मैंने पूछा--"आप यह क्या कर रहे हैं ?" उन्होंने कहा--"आज सुबह मुँह धोने के लिए बेसिन पर गया तो ध्यान ही न रहा कि चश्मा उतारा नहीं है। जल का छींटा मुँह पर मारा ही था कि चश्मा नीचे गिर पड़ा। गनीमत हुई वह बसिन में ही गिरा, नीचे नहीं; फिर भी इसके एक कोने में ख़राश पड़ गई है। उसे ही रेती से घिसकर ठीक करने की चेष्टा कर रहा हूँ।" अज्ञेयजी के पास छोटे-बड़े औजारों का अनूठा संग्रह था। वह कार, कलम, घड़ी, कैमरा, चश्मा आदि ज़रूरत की कई चीजें स्वयं सुधार लेते थे और न जाने किस कौशल से इसके लिए समय भी निकाल लेते थे।
अज्ञेयजी को उनकी कविता-पुस्तक 'कितनी नावों में कितनी बार' पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। इस पुरस्कार की घोषणा के बाद जब मैं उनसे पहली बार मिला, मैंने पुस्तक की एक हस्ताक्षरित प्रति देने का अनुरोध किया। उन्होंने बताया कि पुस्तक बहुत दिनों से 'आउट ऑफ़ प्रिंट' है; फिर भी वह अपनी लाइब्रेरी में देखेंगे और यदि एक प्रति भी मिल गई, तो मुझे अवश्य देंगे। उसके बाद करीब १५-२० दिन गुज़र गए, इस अवधि में भी उनसे कई बार मिलना हुआ, लेकिन मैंने संकोचवश पुस्तक की कोई चर्चा नहीं की। मेरे मन में उथल-पुथल मची रही और मैं सोचता ही रहा कि देखूँ, अज्ञेयजी अपना वादा कब पूरा करते है ! लेकिन एक सप्ताह और गुज़र गया और उन्होंने पुस्तक का कोई ज़िक्र न किया। मुझे विश्वास होने लगा कि उन्हें मेरे आग्रह का पूरी तरह विस्मरण हो गया है। अगली मुलाक़ात में मैंने पूछा--"मेरी पुस्तक का क्या हुआ?" वह जैसे चौंक पड़े हों, बोले--"लीजिये, मैं तो बार-बार भूलता ही रहा और आपने भी याद नहीं दिलाई। पुस्तक की प्रति तो मैं दूसरे दिन ही ले आया था। आप आज भी स्मरण न दिलाते तो पुस्तक यहीं पड़ी रहती!" इतना कहकर उन्होंने दराज़ से 'कितनी नावों में कितनी बार' की एक पुरानी प्रति निकाली और मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने उसे उलट-पुलटकर देखने के बाद कहा--"इस पर कुछ लिखकर हस्ताक्षर कर दीजिये।" उन्होंने पूछा--"क्या लिखूँ?" मैंने कहा--"आशीर्वाद!" पुस्तक की जिल्द के बादवाले पृष्ठ पर उन्होंने लिखा--"प्रिय आनंदवर्धन को--सप्रीत, अज्ञेय।" अपने हस्ताक्षर के नीचे तिथि लिखते ही वह ठहर गए और मुझसे पूछा--"आप कहें तो यहाँ वह तिथि डाल दूँ, जिस तिथि को पुरस्कार की घोषणा हुई थी।" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और उन्होंने तिथि में सुधार कर पुरस्कार की घोषणावाली तिथि लिख दी और प्रति मेरी ओर बढ़ा दी। अज्ञेयजी की वह अनमोल भेंट मेरे संग्रह की शोभा आज भी बढ़ा रही है।
बहरहाल, अज्ञेयजी के दफ़्तर मेरा आवागमन इतना बढ़ गया था कि उनके निजी सचिव से लेकर दफ़्तर का पूरा स्टाफ मुझे पहचानने लगा था। उनके चेम्बर के ठीक सामने एक विशाल हॉल में सारा दफ़्तर कुर्सी-टेबुलों पर विराजमान रहता था। अज्ञेयजी से मिलकर लौटते हुए हमेशा एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, जिससे मुझे बाहुत संकोच होता था। मैं जैसे ही उनके चरण छूता, वह उठकर खड़े हो जाते और मुझसे आगे बढ़कर अपने चेम्बर का द्वार खोल देते और मुझसे कहते--"चलें!" मेरे बार-बार कहने पर भी वह दफ़्तर के बीच से होते हुए नीचे ले जानेवाली सीढ़ियों तक मुझे छोड़ने चले आते; जैसे मैं कोई किशोर बालक हूँ और वह सीढ़ियों तक न आयेंगे तो मैं राह भटक जाऊँगा ! उनकी ऐसी प्रीती, ऐसा स्नेह और सौजन्य देख मैं मन-ही-मन पुलकित होता, लेकिन साथ ही संकुचित भी हो उठता; क्योंकि अज्ञेयजी को अपने चेम्बर से अचानक बाहर निकल आया देख पूरा दफ़्तर उठकर खड़ा हो जाता था। अज्ञेयजी निर्विकार भाव से मुझसे बातें करते सीढ़ियों तक चले आते। मैं वहीं उन्हें पुनः प्रणाम करता और सीढ़ियाँ उतर जाता; लेकिन होता हर बार यही था।
[क्रमशः]

8 टिप्‍पणियां:

sanjay vyas ने कहा…

पूरे मनोयोग से पढ़ रहा हूँ.ये वृत्तान्त शायद अप्रकाशित हैं.आपका आभार ये अवसर दिलाने का.

के सी ने कहा…

मैं निरंतर पढ़ता आ रहा हूँ
सोचता हूँ कि आप अपने इन संस्मरणों को किसी प्रकाशक को दें तो ज्यादा हितकारी होगा. आपके इन मनीषियों के बारे में लिखे गए संसमरणों को मैंने पहले कभी नहीं सुना और पढ़ा था. जाने कितने ही पाठक होंगे जो इस तकनीक तक नहीं पहुँच पाते हैं. साधुवाद निशुल्क बांटने के लिए वैसे किसी पुस्तक भण्डार पर आपका नाम दीखता तो शुल्क देने को भी कोई कष्ट नहीं होगा.

सर्वत एम० ने कहा…

ऐसी महान विभूति का सान्निध्य एवं स्नेह जिसे प्राप्त हुआ, वह स्वयं कितना महान होगा, मैं केवल कल्पना कर सकता हूँ. कई दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आ सका हूँ. एक बैठक में चारों किस्तें पढ़ लीं और प्यास है कि बढ़ती जा रही है. आपका लेखन इंद्रजाल का सा काम करता है. स्नेह बनाये रखियेगा.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बस आप लिखते चलें हम पढने के लिये आतुर बैठे हैं. " कितनी नावों में कितनी बार" के उस हस्ताक्षरित पृष्ठ की तस्वीर क्यों नहीं लगाई आपने? ऐतिहासिक हो गई है अब वो.

ज्योति सिंह ने कहा…

आनंद जी अज्ञेय जी के बारे में आपके ब्लॉग पर लिखा देख कब से उतावली हो रही थी पढने को मगर इसे इत्मीनान से पढना था क्योकि अज्ञेय जी ko मैं आमने -सामने मिली हूँ ,उनकी कविता उन्ही से सुनी है ,वो भी उनके जन्मदिन पर ,उस समय उनकी हिरोशिमा नामक रचना की काफी चर्चा रही और हमने सब मिलकर उनसे विनती की उसे सुनाने के लिए और वो हमारी इच्छा को पूरी भी किये ,मेरे साथियों ने आटोग्राफ भी लिया ,इस मामले में मैं धन्य हुई जो उन्हें देखने का मिलने व बाते करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ,आप के लेख को पढ़कर मन प्रफुल्लित हुआ .

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

संजय व्यासजी, किशोरजी, एम० सर्वतजी, वंदना दुबेजी, ज्योतिजी,
विलंब से प्रत्युत्तर दे रहा हूँ, क्षमा चाहता हूँ ! आभार व्यक्त करने में इतना विलंब क्षम्य है न ?
हृदय से आभार सहित--आ.

गौतम राजऋषि ने कहा…

बड़े मनोयोग से पढ़ता जा रहा हूँ इस अप्रतिम संस्मरण को किस्त-दर-किस्त! जैसा कि ऊपर किशोर जी ने लिखा है, ये सचमुच में किताब की शक्ल लेनी चाहिये ओझा जी।

"कितने नाव में कितनी बार" आज से तीन साल पहले खरीदा था पटना पुस्तक-मेला में। यूं ही ख्याल उभरा था कि काश कि अज्ञेय जी का हस्तक्षार मिल पाता इस प्रति पर...!

"विशफुल थिंकिंग????"

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

राजरिशीजी,
आभारी हूँ आपका ! आप तो पन्ने पीछे की तरफ पलटकर अज्ञेयजी के साथ अतीत में कदम-ब-कदम चल रहे हैं... अच्छा लगता है न सीढियों पर नीचे उतरना...? आपने कहा भी था--'लौटता हूँ खूब सारी फुरसतों के साथ.' यकीन हुआ आप लौट आये हैं बन्धु !
मेरे सिर पर गट्ठर बहुत बड़ा है. १९९५ से ही पिताजी की तीन पुस्तकें प्रकाशन के लिए तैयार हैं. २७ जनवरी २०१०- पिताजी की जन्म-शती है, इसी अवसर पर उन्हें छपवाने की हसरत है--सुन्दर संस्मरण हैं उनमे ! कई और योजनायें लंबित हैं--पितामह की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक, छोटे चाचाजी (स्व. भालचन्द्र ओझा) की रचनाएं भी समेटनी हैं और प्रकाशित करनी हैं ! मेरा नंबर तो बहुत बाद में आएगा; लेकिन ब्लॉग का सहारा लेकर लिखना शुरू कर चुका हूँ और आप-जैसे मित्रों की सम्मति से मानने भी लगा हूँ कि बहुत फिजूल का लेखन नहीं कर रहा हूँ. बारह-पंद्रह संस्मरण हो जाएँ तो कभी उन्हें पुस्तकाकार छपवा भी लूँगा. इसके लिए किशोर भाई, अपूर्वजी और अर्जकेशजी का भी आग्रह मेरी गाँठ में है ! अब आपकी भी यही इच्छा है, तो ऐसा ही सही: लेकिन मानता हूँ, प्रभु-इच्छा सर्वोपरि है !
सप्रीत--आ.