अक्षर-अक्षर व्यथित हो गए
शब्द-शब्द मुरझाये
कैसे गीत लिखूँ मधुऋतु के
भावपुष्प कुम्हलाये ।
सपनों से देहरी सजा दी,
आशाओं से आँगन
इच्छाओं की सूखी डाली,
रुखा-सूखा सावन मरुथल
की यह कठिन तपस्या
देख नयन भर आये। कैसे गीत......
ठौर ठिकाने जितने भी थे,
उन पर काली छाया
शोर समाहित हुआ शहर भी,
लुटी-पिटी यह काया।
सड़क-सडक वीरान हो गयी
चौराहे घबराये ! कैसे गीत.....
भेद-विभेद बढाते आये
जन-प्रतिनिधि विषधर से
बूंद-बूंद अलगाव मांगती
आज मूक निर्झर से!
टहनी-टहनी ठूंठ हो गई
पत्ते सब मुरझाये! कैसे गीत...
गांव-गांव में आग लगी है
धुंआ उठा शहरों से
खंड-खंड हो गया नेह भी
सागर का लहरों से
धागे-धागे उलझे, चादर
झीनी होती जाये।
कैसे गीत लिखूं मधुॠतु के
भावपुष्प कुम्हलाये।