[कलम की जुबान से...]
आज चिंतन के क्षणों में
डूबता है एक सूरज
व्यक्ति का विक्षोभ लेकर
और अन्तर की मनोरम घाटियों में
एक स्वर ही गूंजता है
आस्था के अर्थ का विस्फोट लेकर ;
किंतु जीवन थम गया है--
अवरोध ही अवरोध अब तो शेष है ।
विषमताओं के भयंकर काल के सम्मुख
प्रणय की मत करो चर्चा
लो, समय का एक सूरज डूबता है ।
निःशब्द-सा गूंजा गगन में
एक अभिनव हास लेकर
मृत्तिका का घोर गर्जन
यवनिका अब गिर रही है ।
काल के फंदे जकड़ते जा रहे हैं
और कोई पास बैठा
क्षीण-से स्वर में पुकारे जा रहा है,
सड़कें गूंगी व्यथा दुहरा रही हैं;
खाली-खुली हथेलियों का दर्द फिर भी
कितनों को छीलता है ?
कश-म-कश की ज़िन्दगी से ऊबकर
कुछ शब्द कोरे जी लुभाना चाहते हैं :
चाकू, छुरा, पिस्तौल,
विश्वविद्यालय की तीन टांगवाली कुर्सियां--
'बंदी' के आक्रोश-भरे नारे उभर आते हैं,
ज़िन्दगी हडतालों के दोराहे पर
खड़ी होकर उसांसें लेती है;
चायघर में कुछ फिल्मी गीतों का
कुछ गालियों का
कुछ शोर-शराबे का
मिला-जुला अजीब-सा स्वर
पिघले शीशे की तरह कानों में उतर जाता है,
सिगरेट के धुंए की तरह अस्तित्व सुलग जाता है !
सच मेरे मित्र !
सारे अहसास गूंगे हो जाते हैं
जब मैं टूटती उँगलियों से
कलम को जबान देना चाहता हूँ !!