बुधवार, 30 सितंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (६)
[निष्कम्प दीपक जलता रहा रात भर.... ]
दूसरे दिन का दफ्तर का वक़्त मुश्किल से कटा। इतने-इतने प्रश्न, शंकाएं, जिज्ञासाएँ कि बस, राम कहिये ! मैं लगातार यही सोचता रहा कि क्या आज रात मेरी माता से सचमुच बातें हो सकेंगी? क्या वह औघड़ इतना सक्षम है ? माता से बातें हो सकेंगी, यह विचार ही रोमांचकारी था। माता को गुज़रे सात वर्ष हो चुके थे--४ दिसंबर १९६८ को ब्रह्ममुहूर्त्त में, किसी से बिना एक शब्द कहे, उन्होंने शरीर त्याग दिया था और पूरा परिवार अवसन्न रह गया था। बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में उच्च-पदस्थ मेरी माँ पूर्णतः स्वस्थ-प्रकृतिस्थ थीं।
बहरहाल, शाम पांच बजे दफ्तर से छुट्टी मिली। संभवतः, ध्रुवेंद्र मेरे मन की उलझन का कुछ हद तक अनुमान कर चुके थे, लेकिन वह बिलकुल नहीं जानते थे मेरी लगन कहाँ लगी हुई है और मैं किस दिशा में दौड़ने को तत्पर हूँ। वह पीछे पड़े कि मैं उनके साथ आर्यनगर चलूँ, लेकिन मैं सिरदर्द की बात कहकर उनसे विलग हुआ। वह आर्यनगर गए और मैं तीर की तरह अपने कमरे पर पहुंचा। हाथ-मुंह धोकर हीटर पर चाय बनायी, पी और बेसब्री से वक़्त के गुजरने की प्रतीक्षा करने लगा। वक़्त था कि ठहरा हुआ लग रहा था। बमुश्किल साढ़े सात बजे, मैंने धुला हुआ वस्त्र निकाला और तैयार होकर साइकिल से भैरोंघाट के लिए चल पड़ा। औघड़ बाबा की धूनी पर मैं ४५ मिनट पहले ही पहुँच गया और उन्हें वहाँ न पाकर बेचैन होने लगा। कहाँ चले गए वह? कल अपनी ही किसी मौज में वह मुझे आमंत्रण तो न दे बैठे थे और आज भूल गए ! मन आशंकाओं से भर गया था। मैंने वहीं खड़े-खड़े दूर-दूर तक नज़र दौड़ाई। मेरे दृष्टि-पथ में कहीं नहीं पड़े बाबा। मेरी छटपटाहट चरम पर पहुँच रही थी। मैं बेचैनी में वहीं टहलने लगा।
जब नौ बजने में दस मिनट बच रहे थे, अचानक बाबा अवतरित हुए। आज उनके नेत्र कल की तरह रक्ताभ नहीं थे। मेरे पास पहुंचते ही बोले--'अरे, आ गया तू! चल-चल, अंदर आ जा। तू तो समय का बड़ा पाबन्द निकला। आ जा, करता हूँ तेरा काम...!' डूबते मन को सम्बल मिल गया था।
मैंने पहली बार उनकी छोटी-सी कोठरिया में प्रवेश किया। द्वार पर एक लालटेन जल रही थी, जिसका हल्का प्रकाश कक्ष के अंदर तक पहुँच रहा था। वहाँ एक जर्जर खाट पड़ी थी और एकरंगे में बंधी छोटी-बड़ी कई पोटलियाँ थीं, मालाएं खूँटी पर टँगी हुई और बेतरतीब पड़े दो-चार बर्तन । कोठरी के एक कोने में पूजा का एक चौरस स्थान खड़िये से चिन्हित किया हुआ था, जिसके मध्य में हवन के लिए छोटा-सा गड्ढा था । अगल-बगल खप्पर और कटोरे-जैसा पात्र रखा था। बाबा ने चिन्हित दीर्घा के अंदर एक आसनी डाल दी और उसके बगल में कुछ सादे पृष्ठ एक कलम के साथ रख दिए। टाट और कम्बल का एक मोटा आसान वहाँ पहले से ही लगा हुआ था।
बाबा ने मुझसे गंगा-जल से हाथ-पैर धोकर आसनी पर बैठने को कहा। मैंने उनके आदेश का पालन किया। बाबा कोठरी के दूसरे कोने से एक काष्ठ-पट्ट उठा लाये। उसे उन्होंने आसन के ठीक सामने रखा और स्वयं आसन पर विराजमान हुए। मैं प्रबल जिज्ञासा से भरा ये सारा क्रिया-कलाप देख रहा था। काष्ठ-पट्ट के तीन तरफ किनारे-किनारे अंग्रेजी की पूरी वर्णमाला लिखी हुई थी--ए से जेड तक, एक कोने पर 'YES' अंकित था, तो दूसरे कोने पर 'NO'। चौथे किनारे पर अंक लिखे थे--1 से 0 तक । मैं हैरत में था, सोच रहा था--क्या है यह सब! तभी बाबा ने एक दीपक जलाया और उसे वर्गाकार चिह्न के एक कोण पर रख दिया। तत्पश्चात उस गड्ढे में अग्नि-संयोग किया, अगरबत्तियां जलाईं। अग्नि प्रज्ज्वलित होकर जब मंद पड़ी, तब उन्होंने उसमें दो-तीन प्रकार के चूर्ण पदार्थ डाले, जिससे तीव्र गति से सुगन्धित धूम उठने लगी। सर्वत्र मौन था--एक रहस्यमय वातावरण का निर्माण उस कक्ष में हो चुका था और मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं।...
यह सब कृत्य करने में ४०-४५ मिनट का वक़्त व्यतीत हो गया था। सहसा बाबा ने मुझसे कहा--"अब तू अपने हाथ जोड़ ले और आँखें बंद कर अपनी माता के स्वरूप का ध्यान कर। उनसे यहां आने को कह। जब उनका मुख-मंडल साफ़-साफ़ तेरे ध्यान में आ जाए, तब उनसे मन-ही-मन प्रार्थना कर कि 'मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता, बस अपने कुछ सवालों का जवाब पाना चाहता हूँ। आप यहां, मेरे पास आवें।' जब तक तू मेरी कोई आवाज़ न सुन ले, 'आप यहां, मेरे पास आवें' बार-बार कहता रह।"
इतना कहकर, मेरे आँख मूँदने के पहले ही, बाबा ध्यानस्थ हो गए और निःशब्द कुछ बुदबुदाने लगे। मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। माता की मूर्ति को मेरे मानस-पटल पर उभर आने में वक़्त ही कहाँ लगना था। जैसा बाबा ने कहा था, मैंने आँखें मूंदकर, करबद्ध हो, प्रार्थना के शब्द कहे, फिर 'आप यहां, मेरे पास आवें' वाक्य की पुनरावृत्ति मन-ही-मन करने लगा। दो मिनट भी न गुज़रे न होंगे कि मुझे बाबा का स्वर सुनाई पड़ा--'देवि, क्या आप यहां विराज रही हैं?'
मैंने अपनी आँखें खोलीं और सिहर उठा। देखा, बाबा के दायें हाथ में एक छोटी-सी शीशी है, जिसे वह काष्ठ-पट्ट पर उलटकर मध्य में रख रहे हैं। मैंने कक्ष के मंद प्रकाश में चारो ओर दृष्टि घुमाकर देखा, कहीं कोई नहीं था। सहसा मेरे मुंह से कातर स्वर निकला--'बाबा, क्या मेरी माँ यहां आ गई हैं?' बाबा ने इशारे से मुझे चुप रहने का संकेत दिया और अपने दोनों हाथ जोड़ लिए, फिर किसी अज्ञात से पूछा--"माता, आप यहां आ गईं हैं तो 'हाँ' कहिये।"
प्रश्न पूछकर बाबा हाथ जोड़े स्थिर बैठे रहे।
अचानक मैंने देखा काष्ठ-पट्ट पर रखी शीशी हिल उठी और धीरे-धीरे सरकने लगी। आगे बढ़कर उसने 'YES ' शब्द का स्पर्श किया और फिर मध्य में आ ठहरी। मेरे पूरे शरीर में अजीब-सी सिहरन हुई और मन में विचित्र आलोड़न। शीशी का स्वतः चल पड़ना और उत्तर के लिए शब्द का चयन करना बहुत विस्मयकारक था। मैं विभ्रम में पड़ा था और आँखें नम हुई जा रही थीं। ...
बाबा ने पट्ट पर रखी शीशी की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा--'देख, तेरी माता यहीं विराज रही हैं। अब पूछ अपने मन की।' मैंने थोड़े संशय के साथ बाबा की ओर देखा। उन्होंने जोर देकर कहा--'अरे, सवाल पूछ, क्या सोचता है?' मेरे सामने विकल्प नहीं था, जबकि मन दुविधाग्रस्त था। मैंने स्वयं को समेटकर पहला प्रश्न पूछा--'माँ ! तुम तो पूरी तरह स्वस्थ थीं, शरीर में कोई रोग-दोष भी नहीं था; फिर अचानक तुम हमें छोड़कर चली क्यों गयीं?' इतना कहते-कहते मेरा गला भर आया। परम आश्चर्य कि प्रश्न पूरा होते-होते शीशी चल पड़ी। अक्षर-स्पर्श से जो वाक्य बना, वह था--'I died choking of thirst' (प्यास के कारण दम घुटने से मेरी मृत्यु हुई।)
उत्तर जानते ही मेरी तो हिचकियाँ बांध गयीं, आँसू बह निकले। कलेजे की हड्डियों में अजीब-सी ऐंठन हुई। तो क्या मेरी माँ इस दुनिया से प्यासी चली गईं? यह ख़याल मुझे निरीह-कातर बना गया।
मुझे इस तरह विह्वल होता देख बाबा ने वर्जना दी--'नहीं, ऐसा मत कर, सँभाल अपने को। तू आत्मा को पीड़ा पहुंचा रहा है।' मैंने बाबा की वर्जना सुनी, लेकिन भावोद्वेग इतना प्रबल था कि रुलाई उबल-उबलकर फूट पड़ती थी। बाबा ने जब देखा कि मैं स्वयं को संयत नहीं कर पा रहा हूँ तो उन्होंने हाथ बढ़ाकर मेरी पीठ पर रखा और बोले--'तूने माता को बुलाते हुए उनसे कहा था कि तू उन्हें पीड़ा पहुंचाने के लिए नहीं बुला रहा है, लेकिन यह क्या है? तू उन्हें पीड़ित ही तो कर रहा है न! यह गलत है, अब शांत हो जा।' बाबा की बात सुनकर मैंने बड़ी कठिनाई से स्वयं को संयत किया। मैंने अभी कोई प्रश्न भी न किया था कि अचानक शीशी चल पड़ी। अक्षर जोड़कर मैंने जाना कि माँ मुझसे कह रही हैं--'मेरे लिए शोक करना व्यर्थ है, मेरे पास उतना ही समय था और वही मेरी गति थी। तुम विलाप मत करो।'
अपने को समेटकर, किंचित विराम के बाद मैं माँ से फिर प्रश्न करने लगा और शीशी बोर्ड पर घूम-घूमकर, अक्षरों को छूकर, उत्तर देने लगी। बाबा ने मुझसे कहा--'अक्षरों को कागज़ पर लिखता जा, बाद में भूल जाएगा।' शीशी जैसे ही किसी अक्षर का स्पर्श करती, मैं उसे लिख लेता। इस तरह उत्तर के वाक्य बनते जा रहे थे। यह प्रश्नोत्तर देर तक चलता रहा और वातावरण की असहजता में भी कमी आई। बाबा कभी आँख मूँद लेते, कभी खोलते, कभी अप्रज्ज्वलित अग्नि में समिधा डालते, लेकिन ज्यादा वक़्त तक आँखें बंदकर करबद्ध रहे। बोर्ड पर शीशी की गति भी क्षिप्र हो गई थी। माँ ने परिवार हर सदस्य के विषय में मुझे हिदायतें दीं, कतिपय सावधानियाँ बरतने का निर्देश दिया--खासकर छोटी बहन (महिमा) के विषय में, जो ज्यादातर अस्वस्थ रहती थी।
अक्षरों के स्पर्श से जैसे-जैसे उत्तर आ रहे थे, उससे अंततः मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माता वहीं उपस्थित थीं। उनसे जो उत्तर मुझे मिले थे, उसे केवल वही दे सकती थीं। रात के बारह बजते ही मेरी माँ ने स्वयं लौट जाने की इच्छा व्यक्त की। बाबा क्षिप्रता से उन्हें विदा करने को तत्पर हुए। उन्होंने मुझसे कहा--'बस बच्चे, बस! आज बस इतना ही। चल, तू माँ को प्रणाम कर, मैं उन्हें विदा करता हूँ।' इतना कहकर बाबा कुछ बुदबुदाने लगे। मैं हाथ जोड़े भावुक हो रहा था। बाबा ने निःशब्द बोलना बंद किया और शीशी को सीधा करके पट्ट पर रखकर प्रणाम किया। जब पूजन-कोष्ठक से मैं उठा, एक कोण पर रखा दीपक निष्कम्प जल रहा था। मैंने उसे भी कृतज्ञता से भरकर प्रणाम किया।
बाबा लालटेन लेकर मुझे सीढ़ियों तक छोड़ने आये। मैंने उनकी असीम कृपा के लिए कृतार्थता से द्रवित होकर थोड़े-से रुपये उन्हें देने चाहे, तो उनका रोष भरा स्वर सन्नाटे में गूँज उठा---'ख़बरदार..... !'
(क्रमशः)
[चित्र : देवीस्वरूपा मेरी माँ--भाग्यवती देवी]

शनिवार, 26 सितंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (५)

['यह रूहों की सैरगाह है...!']

दो वर्षों के कानपुर प्रवास के वे दिन मौज-मस्ती से भरे दिन थे। दिन-भर दफ्तर और शाम की मटरगश्तियां, यारबाशियाँ। कुछ दिनों बाद मैंने भी एक साइकिल का प्रबंध कर लिया था। ध्रुवेंद्र के साथ मैं शहर-भर के चक्कर लगा आता। आर्य नगर हमारा मुख्य अड्डा बन गया था, जहां शाही के कई पुराने मित्र भी थे। उनसे मेरे भी मैत्री-सम्बन्ध बन गए थे। कभी-कभी गंगा-किनारे भैरों (भैरव)) घाट तक मैं अकेला चला जाता, जो तिलक नगर के आगे पड़ता था। जाने क्यों, उन दिनों श्मशान में जलती चिताएं मुझे आकर्षित करती थीं और गंगा के तट पर घूमना अच्छा लगता था। कविताओं के लिए वह बहुत उर्वर भूमि थी, ऐसा मुझे प्रतीत होता था। भैरों घाट पर जो मंदिर था, वहाँ नियमतः मत्था टेकता मैं लौट आता था। ध्रुव भाई की कथा-कहानी और साहित्य में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह इसे समय का अपव्यय समझते थे और स्वयं अपने शरीर-सौष्ठव तथा खान-पान पर अधिक ध्यान देते थे। हमारी रुचियाँ भिन्न थीं, किन्तु बहुत थोड़े समय में हम दोनों मित्रता के प्रगाढ़ सूत्र में बंध गए थे।
ध्रुवेंद्र स्वदेशी कॉलोनी में शिफ्ट हों, उसके पहले की बात है। एक शाम मैं यूँ ही गंगा-किनारे टहल रहा था। अचानक मेरे कान में एक अभद्र पुकार पड़ी। पहले तो मैंने समझा कि कोई मुझे नहीं, किसी और को आवाज़ लगा रहा है, लेकिन पलटकर देखा तो लाल लम्बे चोंगे में एक औघड़ साधु मुझे ही बुला रहा था--'अबे, कहाँ जा रहा है, इधर आ।' उसकी दोनों आँखें टुह लाल थीं, काला वर्ण था। पैंतालीस-पचास का वह औघड़ आँखें फाड़कर मुझे देख रहा था। मैं सम्भ्रम में पड़ा, खिन्न-मन, कुछ समझ पाता, इसके पहले ही लम्बे डग भरता वह तो ठीक मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला--'अरे, क्या खोजता है यहां ? यह तफ़रीह की जगह नहीं है। भाग जा यहां से।'
मैंने थोड़ी खिन्नता से पूछा--'क्यों ? मेरे यहां टहलने से आपको क्या दिक्कत है...?'
वह भी थोड़ी आजिजी के स्वर में बोला--'अरे भाई, तू समझता क्यों नहीं...! यहां कितनी आफतें-लानतें तुझे ही ढूँढ़ रही हैं और तू है कि यहीं आ जाता है रोज़...!'
जाने कैसे, किस साहस से मेरे मुंह से सहसा निकल गया--'मैं भी तो उन्हें ही ढूँढ़ रहा हूँ।'
कुछ क्षण तो वह औघड़ मुझे विस्मय से घूरता रहा, फिर बोला--'अच्छा, तो इतनी हिम्मत भी रखता है तू..?' दो क्षण कुछ बुदबुदाने के बाद उसने कहा--'तो फिर ऐसे नहीं, वहाँ (दूर, एक दिशा में अपनी उंगली से संकेत करते हुए) मेरी धूनी है, वहीं चल, मैं तुझे बताता हूँ कि इन आफतों को कैसे संभालेगा तू।'
मैं कुछ कहता, इसके पहले ही औघड़ बाबा तो अपनी ही मस्ती में चल पड़े। मैं न जाने किस सम्मोहन से बंधा, थोड़ा भीत और थोड़े संशय के साथ उनके पीछे चल पड़ा। उनकी मड़ैया दूर नहीं थी। बस, एक छोटा-सा छाजन, जिसके बाहर बुझा हुआ-सा अलाव था और उससे उठ रही थी मंद-मंद धूम। धूनी के पास ही उन्होंने मुझसे बैठने को कहा और अंदर चले गए। मैं उत्सुकता से भरा बैठा रहा। थोड़ी देर बाद वह बाहर आये और बोले--'बोल, क्या चाहता है तू?'
मैंने कहा--'मैं तो कुछ नहीं चाहता। आपने ही तो कहा कि कई आफतें मुझे ढूँढ़ रही हैं। मैं सिर्फ यही जानना चाहता हूँ कि वे कौन-सी आफतें हैं, जो मेरी तलाश में हैं।'
वह मेरे पास थोड़ा खिसक आये और बड़ी राज़दारी से बोले--' तू जानता नहीं, यह रूहों की सैरगाह है। यहां तेरा रोज़-रोज़ आना ठीक नहीं। इन आत्माओं में बड़ी बेचैनी रहती है, उन्हें बहुत कुछ कहना-बकना होता है और वे तेरे जैसों की ही तलाश में रहती हैं। मेरा तो ख़याल है कि तू यहां आना छोड़ दे। इसी में तेरा भला है। हाँ, अगर तुझे कोई परेशानी है, तेरे मन में कोई सवाल है, तू किसी से कुछ पूछना, बातें करना चाहता है, तो बता।'
उनकी बात सुनकर मुझे थोड़ी हैरानी हुई और दिमाग में सो रहे पुराने कीड़े कुलबुलाने लगे। भला उन्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं किसी से कुछ कहना, पूछना या बातें करना चाहता हूँ! मेरे मुंह से अचिंतित रूप से निकला--'मैं अपनी माँ से बात करना चाहता हूँ।'
उनकी आँखें मेरे चहरे के भाव पढ़ रही थीं। उन्होंने दृढ़ता से कहा--'ठीक है, हो जायेगी तेरी बात। कल तू मेरे पास रात नौ बजे आ। आज इस काम के लिए पाक-साफ़ नहीं हूँ मैं।'
उन्हें प्रणाम कर मैं चलने को हुआ तो उन्होंने धूनी के पास से चुटकी भर राख उठाई और मेरे सिर पर तिलक लगाकर कहा--'तो कल तेरा आना पक्का रहा, मैं तेरा इंतज़ार करूंगा...!'
जब में उनके पास से लौट रहा था, रात गहराने लगी थी और भावनाओं का ज्वार मेरे दिमाग में ठाठें मार रहा था।...
(क्रमशः)
[चित्र : काल्पनिक
]

बुधवार, 23 सितंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (४)


पूज्य पिताजी ने अपने एक लेख 'मरणोत्तर जीवन' में लिखा है--"मनुष्य-शरीर में आत्मा की सत्ता सभी स्वीकार करते हैं। शरीर मरणशील है, आत्मा अमर। मृत्यु के बाद शरीर को नष्ट होता हुआ--जलाकर, गाड़कर या अपचय के द्वारा--सभी देखते हैं, लेकिन आत्मा का क्या होता है? वह कहाँ जाती है? क्या करती है? शरीर के नष्ट होने के बाद उसका अधिवास कहाँ होता है? क्या इस जगत से उसका सम्बन्ध बना रहता है? क्या वह व्यक्ति-विशेष का ही प्रतिनिधित्व करती है? ये और इससे सम्बद्ध अन्य अनेक प्रश्न स्वभावतः मानव-मन में उठते रहते हैं। लेकिन आज के युग में उसका सुनिश्चित, तर्क-संगत, वैज्ञानिक उत्तर नहीं मिल पाता। इसलिए मनुष्य का मन ऊहापोह में पड़ा रहता है। उसकी खोज, उसके चिंतन का क्रम चलता रहता है।
हमारे पुराणों में मरणोत्तर जीवन का बड़ा विशद और संशय-रहित विवरण मिलता है। लेकिन आज के आदमी के लिए उसकी विशदता और संशयहीनता ही अविश्वास का कारण बनती है। उसका कहना है कि स्वयं मरे बिना मरणोत्तर जीवन की बात कैसे जानी जा सकती है और मरने के बाद उसे लिपिबद्ध कैसे किया जा सकता है? इसलिए पुराणों का विवरण कोरी कल्पना मात्र है।"
आत्मा की सत्ता के विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहूंगा। वैसे भी अनुभूत सत्य को प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती। मरणोत्तर जीवन को जानने की अभीप्सा निरंतर बनी रही और जीवन अपनी राह चलता रहा।
मैंने १९७४ में पटना विश्वविद्यालय से स्नातक, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त की और पूज्य पिताजी के पास दिल्ली चला आया। सन १९७५ में मैंने अपनी पहली नौकरी के लिए दिल्ली से कानपुर के लिए प्रस्थान किया। उत्तर भारत की एक प्रतिनिधि टेक्सटाइल कंपनी (स्वदेशी कॉटन मिल्स) में मुझे नियुक्ति मिली थी, पद था--लेखा-सहायक का। पिताजी ने एक पत्र मुझे चलते वक़्त दिया था श्रीलेखा विद्यार्थी के नाम। वह हुतात्मा गणेशशंकर विद्यार्थी की पौत्री थीं। पत्र-लेखक स्व. मार्तण्ड उपाध्यायजी थे। मार्तण्ड बाबूजी पिताजी की युवावस्था के दिनों के मित्र तो थे ही, कालान्तर में वह पिताजी के समधी भी बने थे। मेरी बड़ी बहन का विवाह उन्हीं के कनिष्ठ पुत्र से हुआ था। पुराने दिनों में ('प्रताप' के ज़माने में) पिताजी का भी प्रगाढ़ सम्बन्ध और पत्राचार गणेशशंकरजी से रहा था, किन्तु उनके अवसान के बाद वह सम्बन्ध-संपर्क विच्छिन्न हो गया था। मार्तण्ड बाबूजी का उनके परिवार की नयी पीढ़ी से संपर्क बना रहा। वह बहुत स्नेही, प्यार बाँटने वाले उदारमना भद्रपुरुष थे। उन्होंने स्वयं प्रवृत्त होकर श्रीलेखाजी के नाम वह पत्र लिखा था, ताकि कानपुर में यदि मुझे कोई परेशानी हो, तो उससे मेरी रक्षा हो सके।
बहरहाल, कानपुर पहुँचकर मैंने पद-भार स्वीकार कर लिया। जूही (कानपुर) के मिल-ऑफिस में मुझे पदस्थापित किया गया था तथा मिल से सम्बद्ध एक अलग परिसर में बने स्वदेशी कॉलोनी के बैचलर्स क्वार्टर में एक कमरा मुझे दिया गया था। बैचलर्स क्वार्टर का एक मेस भी था, जिससे दो वक़्त का भोजन मुझे मिल जाता था। मैं प्रतिदिन दफ़्तर जाने लगा।
जिस दिन मैंने स्वदेशी मिल ज्वाइन किया, उसके ठीक दूसरे दिन एक अन्य युवक ने भी स्वदेशी मिल के लेखा विभाग में नौकरी पकड़ी--सुदर्शन, गौरांग, कसी हुई बलिष्ठ भुजाओंवाले और कंधे तक झूलते हिप्पी-जैसे केशोंवाले युवा! उनका नाम था--ध्रुवेन्द्रप्रताप शाही। उन्हें मेरे ही समतुल्य पद पर नियुक्त किया गया था तथा स्वदेशी कॉलोनी के बैचलर्स क्वार्टर में मेरा ही रूम-पार्टनर बनाया गया था। दफ़्तर तो वह आने लगे थे, लेकिन मेरा रूम-पार्टनर बनने में उन्होंने प्रायः डेढ़-दो महीने का वक़्त लगाया। दरअसल, उनके बड़े पिता का निवास कानपुर के आर्य नगर में था, वह वहीं से साइकिल चलाकर दफ़्तर आया करते थे। पहली ही मुलाक़ात में उनके व्यक्तित्व ने मुझे आकर्षित किया था, लेकिन वह मुझे कम मिलनसार व्यक्ति लगे थे, थोड़े चुप-से और थोड़े अकड़ू भी डेढ़-दो महीने बाद जब वह सचमुच मेरे रूम-पार्टनर बने और उनके निकट आने का मुझे पर्याप्त अवसर मिला, तो ज्ञात हुआ कि वह एक गम्भीर व्यक्ति अवश्य हैं, लेकिन नीरस नहीं। कालान्तर में उनसे मेरी मित्रता इतनी प्रगाढ़ हुई कि आज इतने वर्षो बाद भी वह ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।
कानपुर पहुँचने के बाद जो पहला रविवार का अवकाश मुझे मिला, उसी दिन सुबह तैयार होकर मैं मार्तण्ड बाबूजी के पत्र के साथ श्रीलेखा विद्यार्थीजी से मिलने उनके तिलक नगर आवास पर पहुंचा। एक विशाल परिसर के बीच बना वह पुरानी हवेली-सा मकान था। उनके सम्मुख पहुंचते ही मैंने मार्तण्ड बाबूजी का पत्र उन्हें दिया। पत्र पढ़कर वह बहुत प्रसन्न हुईं। वह कानपुर न्यायालय की सरकारी वकील और समाज की सम्मानित महिला थीं--अविवाहिता। उस हवेलीनुमा मकान के अग्र भाग में उनका दफ्तर था और पीछे आवास। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी छोटी बहन को बुलाया, जिनका नाम मधुलेखा विद्यार्थी था। मधुलेखाजी कानपुर के एक महाविद्यालय में हिंदी की व्याख्याता थीं। वे दोनों बहनें बहुत आत्मीयता से मिलीं और मुझे देर तक अपने पास रोके रखा। दिन का खाना खिलाकर और प्रति-सप्ताह घर आने का वादा लेकर ही उन्होंने मुझे विदा किया। दोनों बहनों ने इतना स्नेह दिया कि मैं अभिभूत हो गया। उन दोनों ने मुझे अपना मुंहबोला भाई बना लिया और क्रमशः अपनत्व इतना प्रगाढ़ हुआ कि
(क्रमशः)
[चित्र : स्व. मार्तण्ड उपाध्यायजी एवं पिताजी (दाएं )]
मैं प्रति शनिवार उनके घर जाता और सोमवार की सुबह सीधे दफ्तर के लिए वहाँ से निकलता। जब तक मैं कानपुर में रहा, यह सिलसिला अनवरत चलता रहा।

सोमवार, 21 सितंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३)

[ओझागिरी मैं अवश्य करूंगा...]


जब मैंने किशोरावस्था की दहलीज़ लांघी और मूंछ की हलकी-सी रेख चहरे पर उभर आई, तो चाचाजी मेरे प्रश्नों के संक्षिप्त और संतुलित उत्तर देने लगे। उनके पास कथाओं का अंबार था--अनुभूत सत्य से भरी कथाएं--रोमांचक! फिर भी वह आत्माओं से संपर्क के अपने अनुभव बतलाते हुए अपनी वाणी को संयमित रखते। उतना ही बताते, जितना बतलाना उचित समझते। इस विद्या के उनकी गति बहुत थी। उनके निर्देश पर आमंत्रित आत्माएं स्वयं उत्तर दे जाती थीं, पेन्सिल स्वयं खड़ी होकर प्रश्नों के उत्तर कागज़ पर लिख जाती, कोकाकोला के टिन के ढक्कन समस्याओं के समाधान के लिए अक्षरों का स्पर्श करने स्वतः चल पड़ते।उनके पास यह जो गूढ़ विद्या थी, उन्हीं के साथ चली गई। उसे उन्होंने किसी के साथ बांटा नहीं, किसी को दिया नहीं। मैं जिज्ञासु बना उनके आगे-पीछे मंडराता भी रहा, लेकिन उस कच्ची उम्र में वह मुझे इस विद्या के लिए अयोग्य अथवा अपात्र ही मानते रहे। सत्य यह भी है कि मैं उनके संपर्क में कम ही रहा। मैं पटना में, तो वह किसी दूसरे शहर में। छुट्टियों में ही उनसे मिलना हो पाता। कालान्तर में उनका स्थानांतरण तुर्की, मुजफ्फरपुर से आरा के एक जनपद (बभनगावाँ) में हो गया। वहीं रहते हुए, मात्र ५१ वर्ष की आयु में, सन १९७० में उन्होंने परमगति पायी। सच है कि उन्होंने ही मेरे मन में पारलौकिक जीवन के रहस्यों को जानने की तीव्र उत्कंठा, प्रबल आकर्षण और गहरी पिपासा जगाई थी। इस रूप में वे ही मेरे प्रथम गुरु थे। आज यह दस्तावेज़ लिखते हुए मैं उन्हें स्मरण-नमन करता हूँ।
मैं थोड़ा और बड़ा हुआ तो खोज-ढूंढकर पराजीवन में हस्तक्षेप की अनेक पुस्तकें पढने लगा--'रवीन्द्रनाथ की परलोकचर्चा', 'The Life after death ' आदि। इसी अध्ययन-क्रम में एक पुस्तक मेरे हाथ लगी--'पीले गुलाब की आत्मा'। इस पुस्तक के लेखक थे--विश्वम्भर मानव। पुस्तक में चाचाजी का उल्लेख देखकर मुझे प्रसन्नता हुई थी। यह भी ज्ञात हुआ था कि इस विधा में उनकी क्षमता और पहुँच क्या थी। प्रौढ़ावस्था की पहली सीढ़ी पर पाँव रखते ही उन्होंने शरीर त्याग दिया था। पितामह की तरह अल्पायु हुए चाचाजी (दोनों की आयु ठीक ५१ वर्ष) को यदि अपेक्षाकृत दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता, तो मेरे वयस्क होने पर इस विद्या का कोई सूत्र वह मुझे ही देते, इसका मुझे पूरा विश्वास है। किन्तु जो हो न सका, उसका खेद भी क्या ? बाबा तुलसीदास कह भी तो गए हैं--'हानि-लाभ जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ।'
लेकिन एक माध्यम बनकर परा-जगत में हस्तक्षेप करने की अपनी प्रबल इच्छा मैंने लम्बे समय तक मन में ही दाबाये रखी और सोचता रहा कि जब कभी, कहीं योग्य गुरु मिलेंगे, तो थोड़ी ओझागिरी मैं अवश्य करूंगा।
(क्रमशः)

रविवार, 20 सितंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२)


[प्रथम स्पर्श]
मेरे रोने की आवाज़ जैसे ही वातावरण में गूंजी, चाचाजी और उस अज्ञात स्त्री की वार्ता अवरुद्ध हो गई। चाचाजी अपनी चौकी से उठकर मेरे पास आये और पूछने लगे--'क्या हुआ, रो क्यों रहे हो ?' मेरे मुंह से तो शब्द ही नहीं निकल रहे थे। बोलने की कोशिश की, तो हकलाकर रह गया। चाचाजी ने मेरी मशहरी उठाई और मेरे पास बैठ गए, मेरी पीठ सहलाते हुए बार-बार अपना वही प्रश्न दुहराते रहे। थोड़ी देर में मैं संयत हुआ और अंततः मेरे मुंह से बोल फूटे--'मुझे यहां डर लग रहा है।' उन्होंने मेरी बात सुनकर कहा--'ठीक है, डरो मत, आओ, तुम मेरे पास सो जाओ...।' लेकिन मुझे तो उनसे भी डर लगने लगा था। मेरे हठ पर चाचाजी मुझे घर के अंदर ले गए और चाचीजी के सुपुर्द कर आये। वह रात करवट बदलते, डरते और जागते-सोते बीत गई।
सुबह मैं देर से उठा और आँखें मींचते सीधे चाचाजी के पास जा पहुंचा। मैंने उनसे हठात प्रश्न किया--'चाचाजी, आप रात में किनसे बातें कर रहे थे? ' वह मुझसे अचानक ऐसे प्रश्न की उम्मीद शायद नहीं कर रहे थे। कुछ क्षण ठहरकर बोले--'तुम्हें भ्रम हो गया होगा।...ओह, तभी तुम रात में डर गए थे...!'
मैंने दृढ स्वर में प्रतिवाद किया--'नहीं, मैं तो आपकी बातचीत सुनकर ही जागा था और आपके पास किसी को न देखकर भयभीत हुआ था। डर के मारे ही मैं रोने भी लगा था। मुझे बताइये न, जब आपके पास कोई नहीं था, फिर आप बातें किनसे कर रहे थे?'
चाचाजी समझ गए कि मैं रात की कोई बात भूला नहीं हूँ। उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा--'अच्छा, सब बताऊंगा, पहले दातून कर लो, फिर नाश्ता करके मेरे पास आना।' मुझे लौटना पड़ा। जल्दी-जल्दी मैंने नीम के दातून से दांत साफ़ किये, नाश्ता किया और तुरंत चाचाजी के कमरे में जा खड़ा हुआ। उन्होंने कॉलेज जाने की बात कहकर मुझे फिर टाल दिया। मुझे थोड़ी निराशा हुई, लेकिन मेरी जिज्ञासा चरम पर थी। मैंने अपने चचरे बड़े भाई (श्रीनवीनचन्द्र ओझा) को पकड़ा। पिछली रात की सारी बात बताकर मैंने उनसे पूछा--'भैया, आप मुझे बताइये, रात में चाचाजी किनसे बातें कर रहे थे?' उनके पास भी मेरे प्रश्न का स्पष्ट उत्तर नहीं था, बोले--'अरे, बाबूजी को कभी-कभी नींद में बोलने की आदत है। तुमने वही कुछ सुन लिया होगा और डर गए।' मैंने फिर पूछा--'लेकिन वह जो एक महिला की आवाज़ मैंने सुनी थी...?' भइया बोले--' डरे हुए बच्चे ऐसी कृत्रिम आवाज़ें सुन लेते हैं, वह तुम्हारा भ्रम है अथवा कल्पना।' भइया की बात सुनकर मैंने चुप्पी मार ली और चाचाजी के कॉलेज से लौटने की प्रतीक्षा करने लगा।
दोपहर में देर से चाचाजी घर लौटे। मैं उत्सुकता से भरा शीघ्र उनके पास पहुंचा और मैंने अपना वही प्रश्न फिर दुहराया, लेकिन उस प्रवास में मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिलना था, सो नहीं मिला। ग्रीष्मावकाश अथवा दुर्गापूजा की छुट्टियों में बार-बार तुर्की जाने का अवसर मिलता, किन्तु मेरे मन में गूंजते प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते। अपनी इसी आतुर जिज्ञासा पर कई बार मुझे उनकी झिड़की भी सुननी पड़ी थी।
अंततः एक दिन अचानक ही वह राज़ मुझ पर फाश हो गया। सुबह के समय कुछ लोग चाचाजी के पास आये थे और बंद कमरे में उनकी बातें हुई थीं। वहाँ बच्चों का प्रवेश बाधित था। आधे घंटे की बातचीत के बाद वे लोग चले गए। शाम के वक़्त वही लोग फिर आये। गोधूलि का समय था। धरा से प्रकाश तिरोहित हो रहा था। वे सब लोग, जिनकी संख्या तीन थी, चाचाजी के कमरे में बंद हो गए। कमरे में बल्ब भी नहीं जलाया गया था, लिहाज़ा, वहाँ बाहर से अधिक अन्धकार व्याप्त था। मेरी उत्कंठा मुझे उस छजली पर ले गई, जहां एक रौशनदान चाचाजी के कमरे में खुलता था। मैंने उसी रौशनदान से अंदर देखने की कोशिश की, वहाँ से बस आधा कमरा दीखता था। रौशनदान से गुगल-हुमाद-लोहबान और अगरबत्ती की खुशबू आ रही थी और धुँआ छनकर निकल रहा था। कक्ष में बस एक मोमबत्ती जल रही थी। मुझे लगा, कोई पूजन-विधान, कोई अनुष्ठान वहाँ हो रहा है। मैं वहीं छजली पर टिका रहा और अंदर की गतिविधियों पर दृष्टि गड़ाए रहा। थोड़ी देर में अस्पष्ट स्वर कानो में पड़े, वह चाचाजी की आवाज़ थी, लेकिन वह क्या बोल रहे हैं, यह समझना कठिन था। वहाँ घुटने के बल बैठे हुए मुझे मुश्किल से पंद्रह-बीस मिनट ही हुए थे कि जाने कैसे चाचाजी को आभास हो गया कि कोई अनुष्ठान में बाधक बन रहा है। उनका तीव्र रोष प्रकट हुआ--'कौन है वहाँ...?' मैं घबराकर रौशनदान से हट गया और वहीं थोड़ा हटकर दुबका रहा। लेकिन चार-पांच क्षणों के बाद ही घर के अन्य सदस्य बाहर निकल आये--सबसे आगे नवीन भैया थे, उनके पीछे गीता दीदी और चाचीजी। उन्होंने आवाज़ देकर मुझे नीचे उतर आने को कहा। मैं क्या करता, चुपचाप नीचे उतर आया--चोरी-जैसे अपराध-बोध के साथ। वह रात गुमसुम बीत गयी।
दूसरे दिन चाचाजी के सामने मेरी पेशी हुई। उन्होंने मेरे कान उमेठे और नाराज़गी के साथ हिदायत दी कि फिर ऐसा कभी न करूँ। मेरा बाल-मन इससे बहुत आहत हुआ; क्योंकि चाचाजी का स्नेहभाजन मैं उस दिन कोपभाजन बन गया था। मेरी सारी चंचलता काफूर हो गई और मैं शाम तक चुपचाप अपनी नाराज़गी का इज़हार करता हुआ मुंह फुलाये रहा। मेरी मनोदशा देखकर शाम के वक़्त बड़ी दीदी (गीता ओझा--अब गीता पाण्डेय) द्रवित हुईं और मुझे समझाने-बुझाने मेरे पास आयीं। उन्होंने बड़े स्नेह से मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा--'तुम्हें भी तो ऐसा नहीं करना चाहिए था।' मैंने तपाक से कहा--'मैं तो सिर्फ यह जानना चाहता था कि अंदर क्या हो रहा है... और क्या? मेरे पूछने पर चाचाजी तो मुझे कुछ बताते नहीं और अब तो वह मुझसे नाराज़ भी हो गए हैं। पिछली बार भी, जब रात में वह किसी से बातें कर रहे थे, मैंने कितनी बार उनसे पूछा था कि वह कौन थीं, उन्होंने बताया था क्या...?'
बड़ी दीदी मेरे प्रश्न-प्रतिप्रश्न सुनकर और मेरा भाव-विगलित होना देखकर अंततः बोल ही पड़ीं--'अरे, वह कुछ नहीं, बाबूजी बंद कमरे में आत्माओं का आह्वान कर रहे थे। उनके पास जो लोग आये थे, उनकी किसी समस्या को सुलझाने के लिए...! वहाँ बच्चे नहीं जाते...। तुम्हें भी छज्जे पर नहीं जाना चाहिए था।'
मैंने पूछा--'मरे हुए लोगों की आत्मा का आह्वान...?' बड़ी दीदी के हामी भरने पर मैं चकित रह गया था और मेरी आँखें फटी रह गई थीं। मैं अपने मस्तिष्क में पिछले प्रवास की उस घटना के तंतु जोड़ने-सुलझाने लगा था। तभी पहली-पहली बार मैंने जाना था कि मृतात्माओं को बुलाया जा सकता है और उनसे बातें भी की जा सकती हैं, जटिल जीवन के उलझे धागे सुलझाये जा सकते हैं...! सचमुच, मैं आश्चर्य से अवाक था।...
(क्रमशः)