[समापन क़िस्त]
कभी गंगा चाचा घर आते और पिताजी से कहते--"मैं तुम्हारे लिए सिर्फ पंद्रह मिनट का वक़्त निकालकर किसी तरह भाग आया हूँ। तुम कुछ नहीं कहोगे, मैं जल्दी से अपनी बात कह लूँ तो चलूँ।" लेकिन जब वह बैठ जाते और बातें शुरू हो जातीं तो दो-ढाई घंटे कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता। घड़ी पर नज़र पड़ते ही वह घबरा कर उठ खड़े होते और यह कहते हुए चल देते--"तुमने आज मेरा बहुत नुक्सान कर दिया 'मुक्त'! अब चलता हूँ, फिर मिलते है।"
मद्रास में दिनकरजी के निधन के वक़्त और आपातकाल की घोषणा के बाद जयप्रकाशजी की गिरफ्तारी के समय दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में गंगा चाचा उपस्थित थे। उन्हीं से इन दोनों कठिन अवसरों का विस्तृत विवरण पिताजी को मिला था--दिनकरजी के महाप्रयाण की व्यापक चर्चा से पिताजी शोकाकुल हो उठे थे। गंगा चाचा से ही यह सुनकर पिताजी विस्मित-हतप्रभ हुए थे कि जेल जाने से पहले जयप्रकाशजी ने इंडियन एक्सप्रेस के स्वत्वाधिकारी रामनाथ गोयनकाजी को अलग ले जाकर पिताजी का ख़याल रखने का उनसे अनुरोध किया था। गंगा चाचा का मित्र-मंडल बहुत बड़ा और श्रेष्ठ-सिद्ध लोगों से भरा था. वह देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के बहुत निकट थे. देश के तत्कालीन राजनेताओं, वरेण्य साहित्यकारों और विद्वद्जनों की पूरी जमात में उनकी गहरी पैठ थी और सर्वत्र उनका समादर होता था।
एक बार पिताजी ने गंगा चाचा से कहा था--"तुम्हारे पास अनुभवों और अनमोल संस्मरणों का खज़ाना है, भाषा पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। अब भाग-दौड़ भी तुम्हारे वश की बात नहीं रही। एक जगह जमकर बैठो और उन संस्मरणों-अनुभवों को लिख डालो। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि तुम्हारा वह लेखन साहित्य की अमूल्य निधि और समय का जीवित इतिहास सिद्ध होगा।" पिताजी की बात सुनकर गंगा चाचा मुस्कुराये थे और उन्होंने कहा था--"मुक्त, सचमुच चाहता हूँ, कुछ लिखूं। जानता हूँ, लिखने लायक बातें मेरे पास हैं; लेकिन इस यायावरी, इस भाग-दौड़ से मुक्ति नहीं मिलती। लगता है, इस जीवन में अब मिलेगी भी नहीं। फिर, समय की पूंजी भी कितनी बची है मेरे पास....?"
सचमुच, समय की पूंजी तो धीरे-धीरे ख़त्म ही हो गई, जब ८३ वर्ष की अवस्था में सन १९८८ में गंगा चाचा ने जीवन-जगत से मुक्ति पाई। मैं पिताजी को लेकर राजेंद्र नगर (पटना) वाले आवास पर गया था। गंगा चाचा निर्विकार भाव से चिरनिद्रा में सोये थे, किन्तु उनके मुख-मंडल पर एक सहज स्मित परिलक्षित कर मैं स्तंभित रह गया था। एक समर्पित जीवन में वह जितना कुछ हिंदी के उन्नयन के लिए और देश की राजनीति के लिए भी कर गए हैं, आज की दुनिया का आदमी तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन सच है कि अनुभवों का, संस्मरणों का और प्रखर चिंतन का विशाल भण्डार भी उन्हीं के साथ चला गया था। वह उसे लिपिबद्ध नहीं कर सके थे।
गंगा चाचा के निधन पर पिताजी ने बहुत विह्वल होकर कहा था--"गंगा भाई शारीरिक रूप से बहुत पीड़ा में थे, मुझसे चार-पांच साल बड़े भी थे; उनका चला जाना उनके लिए चाहे जितना अच्छा रहा हो, लेकिन उनका विछोह मुझे निरीह और कातर बना गया है। एक वही मेरे दुःख-सुख के साथी बचे थे, आज वह भी साथ छोड़ गए... !" पिताजी की पैंसठ साल पुरानी मित्रता की मज़बूत डोर उस दिन टूट गई थी। उनकी इस पीड़ा का मैं साक्षी रहा हूँ।
मेरे मन-प्राण में बसनेवाले गंगा चाचा मुझे आज भी रह-रहकर याद आते हैं...!